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शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

घूमावदार सत्य

‘इस ट्रक के भी विभिन्न पहलू थे जैसे सत्य के कई पहलू होतें हैं।’ रागदरबारी के इस वाक्य का अर्थ मुझे उस समय समझ में आया, जब मैंने सत्य के कई पहलू देखे। ‘सत्य’ एक ही था मगर उसे विभिन्न दृष्टिकोणों से देखकर अलग-अलग अर्थ निकाले जा रहे थे। मेरे एक मित्र को बिहार जाना था, इस कारण मुझे ट्रेन का तात्कालिन टिकट लेने के लिये सुबह चार बजे सरोजनी नगर रेलवे स्टेषन जाना पड़ा। आरक्षण खिड़की के खुलने का समय सुबह आठ बजे था मगर लोगों की कतार इतनी लम्बी थी कि कुछ लोग रात के आठ बजे से ही बिस्तर डाल कर सो रहे थे। खैर, जब मैं लाइन में लगा तो मेरे आगे लगभग सौ लोग थे। औरतों के लिये अलग से लाइन थी। यह दीदी के दौर की राजधानी ट्रेन की कहानी है। जैसे आमतौर पर भीड़ में होता है वैसे ही कभी कभी लोगों में झड़पें हो रही थी।
अचानक औरतों की कतार मंे शोर-षराबा होने लगा, लोगों का एक रैला उस तरफ उमड़ा और कुछ ही देर में धक्का मुक्की होने लगी। मैं भी दौड़कर उनके पास पहुंचा और भीड़ को चीरता हुआ घेरे के बीच तक जा पहुंचा। तीन औरतों में आपस में झगड़ा हो रहा था जिसमें दो सक्रिय रूप से भाग ले रही थी और एक बीच में कभी कभार हस्तक्षेप कर रही थी। झगड़े का कारण था कि जो औरत कम बोल रही थी वो रात को आठ बजे आकर लाइन में लगी थी मगर उसका बच्चा रोने लगा और वो बच्चे को लेकर घर चली गई। जाते समय अपने आगे वाली औरत को को बोलकर गई थी कि मेरा नम्बर तेरे पीछे है, यही सत्य का एक पहलू था। जब वो सुबह लौटकर आयी तो उसकी जगह पर एक तीसरी औरत थी जो उसे लाइन में नही जगने दे रही थी। उसका कहना था कि एक बार आकर कह गई कि यहां मेरा नम्बर है उसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि मैं यहां रात भर बैठी रही हूं। यह भी सत्य था कि वो औरत वहां रात भर बैठी रही, दूसरा पहलू भी हो गया। झगड़ा आगे ओर पीछे वाली औरत में था जिसमें आगे वाली औरत का बस इतना ही कहना था कि बीचवाली औरत रात को आकर गई थी। यह भी सत्य था जो सबसे प्रभावषाली था और इसीलिये जिस औरत के कारण झगड़ा हो रहा था वो चुप थी, लड़ाई के दोनों पक्ष आगे पीछे वाली औरतें सम्भाले हुए थी। एक साथ सत्य के तीन पहलू थे और तीनों अपनी अपनी जगह सत्य से जुड़े हुए थे।
अचानक सत्य का चौथा पहलू उजागर हुआ जो सबसे खतरनाक था। एक आदमी भीड़ से निकलकर आया जिनका इन तीनों औरतों और कतार से कोई संबंध नहीं था। आते ही बोला, ‘तुम औरतों को तो लड़ाई झगड़े के अलावा कोई काम नही होता है, चुपचाप बैठ जाओ।’ जब इस वाक्य का उन तीनों औरतों ने विरोध किया तो धीरे धीरे पुरूषों की जमात झगड़े के मैदान मे टपक पड़ी जिनका इस झगड़े से दूर दूर तक कोई संबंध नही था। अब यह लड़ाई औरतों के बीच कतार के नम्बरों से बदल औरत और पुरूष के बीच की लड़ाई का रूप धारण कर चुकी थी। यह पूरा तबका झगड़े के शांत करवाने के बजाये मजाक के मकसद से शामिल हुआ था। अतः में तीनों औरतें चुप बैठ गई।
चौथा पहलू सत्य के तीन अलग अलग पहलूओं से हटकर पुरूषवादी समाज का सटीक चित्र प्रस्तुत कर रहा था। भारतीय समाज में आज भी औरतों को पर जाति और धर्म के नाम पर जुल्म ढ़ाये जाते हैं उनके पीछे एक बहुत बड़ा कारण है कि सामाजिक व्यवस्था में औरत को समाज का बराबर का हिस्सा माना ही नहीं जाता है। समाज में औरत और पुरूष दोहरी नैतिकता को स्थापित किया गया है जिसके उदाहरण रोज अमानवीय घटनाओं के रूप में सामने आते है। समाज में बच्चें के जन्म से ही उसमें इस भवना को बढ़ावा दिया जाता है कि पुरूष श्रेष्ठ है और औरत के भोग की वस्तु है और ऐसे कुसंस्कार अनपढ़ समाज के आलावा पढ़े लिखे समाज में भी धड़ले से पोषित होते है। पढ़े लिखे समाज में तो कहीं कहीं इतनी विद्रुपताएं देखने को मिलती है कि जो स्त्री अधिकारों की बात करतें हैं वो ही अपने निजी जीवन में सामंतवादी और पुरूषवादी मानसिकताओं से जकड़े रहते है।
चौथे पहलू को मैंने गांव में भी देखा था और शहर में भी देखा है, दोनों जगह पर बाकि भौतिक संसाधनो में तो बहुत बड़ा अंतर है, शोषण के तरीके बदले हुए है मगर शोषण का रूप वही है, कितना सार्वभौमिक है यह सत्य का चौथा पहलू। काश! वो तीनों सत्य मिलकर चौथे का जवाब दे पाते।

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

पद की गरिमा

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में निर्णय दिया है कि राज्यपालों को बदलने के लिये पुख्ता वजह का होना जरूरी है, इस निर्णय ने फिर से राज्यपाल के पद को लेकर नई बहस को जन्म दिया है। भारतीय राजनीति में राज्यपाल का पद सबसे विवादास्पद पद हो गया है, जब सरकारें बदलती है तब राज्यपालों का हटना भी शुरू हो जाता है। भारतीय लोकतंत्र मंे यह सवाल बार उठता है कि राज्यपाल के पद का क्या मतलब है? इस सवाल के पिछे बहुत से कारण में से एक कारण यह भी है कि आजादी के बाद इस पद की गरीमा को भूलकर इसे एक राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया है। विभिन्न राजनैतिक दलों के आपसी मतभेदों के कारण इस संवैधानिक पद की गरीमा को बार बार उछाला गया है। जब कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति को केन्द्र में मंत्री पद नहीं मिल पाता है या उसे सक्रिय राजनीति से हटाना हो तो उसे किसी राज्य का राज्यपाल नियुक्त कर दिया जाता है, इससे दो फायदे है- एक तो पार्टी का एक नेता संतुष्ट हो जाता है जिससे पार्टी में विद्रोह की आषंका नही रहती और दूसरा फायदा है कि अगर राज्य में विरोधी दल की सरकार है तो उसके खिंच तान करने के लिये भी इस पद का उपयोग कर लेते हैं और यह परम्परा सी पन गई कि राज्यपाल सताधारी दल का राजनेता ही होगा। कुल मिला कर यह पद केन्द्रीय राजनीति का राज्यों पर नियंत्रण रखने का एक साधन हो गया है। झारखण्ड और बिहार के राज्यपालों का हाल पिछले दिनों देख ही चुके है, जब भी किसी राज्य में कोई राजनीतिक संकट आता है तो राज्यपाल की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है, लेकिन दुर्भाग्यपुर्ण बात यह है कि जब भी ऐसी स्थिति आती है तो इस पद को विवादों के घेरे में पाते है।
संसदीय लोकतंत्र में केन्द्र और राज्य के बीच राज्यपाल एक सेतु का काम करता है, इस पद की उपयोगिता खासकर तब देखने को मिलती है जब मंत्रिमंडल भंग हो जाता है लेकिन ऐसी स्थिति में भी किसी पार्टी विषेष की वफादारी के कारण कई बार पक्षपात का आरोप लगाया जाता है। संवैधानिक पद होते हुए भी राज्यपाल को विषष संवैधानिक अधिकार प्राप्त नहीं है, केवल शाही खर्चे का प्रतीक बनकर रह जाता है। हाल के वर्षों में धारा 356 के गलत उपयोग के मामले भी सामने आ रहे है जो स्पष्ट करते है कि इस पद के महत्व व अधिकारों को लेकर पुनर्विवेचना हो। ऐसी स्थिति में सुप्रिम कोर्ट का निर्णय स्वागत योग्य है, लेकिन सवाल उठता है कि वो पुख्ता वजह क्या होगी? जब तक इस पद पर राजनीतिक लोगों को आरूढ़ किया जाता है तो निष्चित रूप से वो अपनी पार्टी के प्रति वफादारी दिखाने की कोषिष करेंगे, अगर राज्यपाल विरोधी पक्ष का है तो वो अपने अपने आप में एक वजह बन जायेगी। सुप्रिम कोर्ट ने इस फैसले में बताया है कि राष्ट्रीय नीति के साथ राज्यपाल के विचारों का मेल नहीं होने के कारण उसके कार्यकाल में कटौती करके हटाया जा सकता है और वो केन्द्र सरकार से असहमत भी नही हो सकते अर्थात केन्द्र में जिस पार्टी की सरकार हो उसे पूरी छूट है कि वो राज्यपाल को जब चाहे हटा सकते है। राज्यपाल का पद पूर्णरूप से राजनीतिक आकाओं के रहम पर निर्भर हो गया है जो कि एक स्वतंत्र संवैधानिक पद है।
6 दषक के संवैधानिक अनुभव के आधार पर साफ जाहिर है कि राज्यपाल के पद की पुर्नविवेचना जरूरी हो, इसे एक संवैधानिक पद के रूप में स्थापित किया जाये और राजनीतिक चालबाजीयों से अलग करके स्वतंत्र अभिनेता का स्थान दिया जाये जो संविधान के अनुसार राज्य और केन्द्र के मध्य अपनी भूमिका निभाये।

सोमवार, 18 अक्टूबर 2010

प्रवासी मजदूर मताधिकार अभियान

बिहार की खराब हालत के कारण लोगों का पलायन वर्षों से लगातार जारी है, इस पलायन में दिन प्रतिदिन बढ़ोत्तरी ही हो रही है, वहीं दूसरी तरफ बिहार सरकार को विकास की सरकार के नाम से प्रचारित किया जा रहा है। 2007, 2008 एंव 2009 के दौरान बेगुसराय, कुसहा एंव सीतामढ़ी में तटबंध टूट कर बिहार में सैलाब आए। इसी सरकार के दौरान 2009 में बिहार के कुछ जिले एंव 2010 में अधिकांश ज़िले सूखे की चपेट में आए। राहत की घोषणाएँ तो बहुत हुईं लेकिन पीड़ितों तक कितनी राहत पहुँची यह एक विवाद का विषय है। इस वर्ष भी राज्य एक ओर तो भीषण सूखे की चपेट में है वहीं दूसरी ओर सारण में गंडक नदी पर बना तटबँध टूट गया है और दर्जनों गाँव बाढ़ के ख़तरे से जूझ रहे हैं। तटबँधों के रख-रखाव के मामले में शासन पूरी तरह से असफल साबित हो रहा है।
1990 के भूमण्डलीकरण के कारण एंव पिछले 10 सालों से लगातार बाढ़ व सूखे के कारण पलायन प्रतिशत में और एजाफा हुआ। दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता जैसे शहरों में बिहारी प्रवासी मजदूरों की संख्या बहुत अधिक है, पंजाब जैसे राज्य में खेती के लिए खास तौर पर बिहार से खेत मजदूर बुलाए जाते हैं।
राज्य में मनरेगा एंव बी.पी.एल. जैसी सभी सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी योजनाओं की हालत दयनीय है। अगर हम बिहार की शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, सिंचाई, बिजली आपूर्ति जैसे मुद्दों की बात करें तो पता चलता है कि पिछले 5 वर्षों में भी कोई सार्थक प्रयास नहीं हुए है। अगर बिहार को बाढ़ और सूखे से बचाया गया होता और आम लोगों को सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी योजनाओं का लाभ मिला होता तो आज बिहार से इतनी अधिक संख्या में लोगों का पलायन न हो रहा होता।
बिहार से पलायन कर दूसरे शहरों में रोज़गार के लिए जाने वालों की संख्या लगातार बढ़ती हुई दिखती है, जिसका सही आंकड़ा किसी के पास भी मौजूद नहीं है। दूसरे शहर में रह कर काम करने वाले ये असंगठित क्षेत्र के मजदूर हमारे जनतंत्र में अपने मताधिकार का प्रयोग भी नहीं कर पाते हैं। चूँकि अन्य शहरों से बिहार वापस जाकर वोट देना इन मजदूरों के लिए संभव नहीं, इसलिए इनके मुद्दे भी चुनाव में शामिल नहीं होते। ऐसा महसूस होता है मानो बिहारी मज़दूरों को अन्य शहरों में सम्मान के साथ जीने का कोई अधिकार ही नहीं है। इन मजदूरों पर जब कभी किसी भी प्रकार का हमला होता है, उस समय कोई राजनैतिक पार्टी या राजनेता ज़ुबानी जमाख़र्च के अलावा कोई सार्थक प्रयास नहीं करते। कोई बिहारी अस्तित्त्व पर सम्मेलन कर देता है तो कोई नारेबाज़ी तक अपने आप को सीमित रखता है। न ही उन प्रदेशों में प्रभावी तौर पर कोई अन्य दल मज़दूरों के साथ खड़ा होता है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह लगती है कि इन प्रवासी मज़दूरों का इस जनतंत्र में कहीं वोट देने का अधिकार ही नहीं है। अपने इलाक़े से पलायन कर रोज़गार की तलाश में देश के किसी भी कोने में जाने वाले ये असंगठित क्षेत्र के मज़दूर चुनाव के समय न तो अपने शहर वापस जा कर वोट दे पाते हैं और न ही जिन शहरों में वे काम कर रहे हैं वहाँ उनको वोट देने का अधिकार होता है। शहर के ऐसे तमाम लोग जो चुनावी प्रतियाशियों को वोट देकर कामयाब बनाने का अधिकार नहीं रखते, हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था ऐसे लोगों को रोज़गार, राशन, बिजली, पानी और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत ज़रूरतों से भी वंचित रखतीे है। दूसरे शब्दों में जनतंत्र में वही जी पाता है जो जनतंत्र का हिस्सा है।
पलायन के लिए ज़िम्मेदार मज़दूर नहीं सरकार की नाकामियाँ और इच्छा-शक्ति का अभाव हैं। सरकार की नाकामियों के कारण लोगों से उसके मतदान का हक़ छिन जाए तो नागरिकता और जनतंत्र दोनों ख़तरे में दिखाई देते हैं।
जनतंत्र में केवल उनका सम्मान किया जाता है जो वोट देते हों, जिनका वोट नहीं होता उनके मुद्दे हमेशा दबे रह जाते हैं।
पिछले दिनों में हमारी बातचीत के दौरान इस समस्या के समाधान के लिये निम्न सम्भावनाएं सामने आयी:-
1. मजदूर जहां पर रहते है, ज्यादा से ज्यादा संख्या में उन्हें वहां का मतदाता बनाया जाये। या
2. लोकसभा, विधानसभा और पंचायत चुनावों में आने जाने का यात्रा भता दिया जाये। या
3. मजदूर जहां पर रह रहे हैं वहां पोस्टल बैलेट की व्यवस्था की जाये। या
4. मजदूर के रहने के स्थान पर पोलिंग बूथ लगाये जायें। या 5. इसके अलावा सम्भावनाओं को तलाश किया जाए।
इस समस्या के बाबत हम चुनाव आयोग को ज्ञापन भी दे चुके हैं और आने वाले समय में बिहार विधानसभा चुनावों के 6 चरणों के दौरान दिल्ली में मजदूरों से अपील भी कर रहे हैं कि बिहार जा कर ज्यादा से ज्यादा मतदान में भाग लें, फिर भी जो मजदूर चुनाव में शामिल नहीं हो पाऐंगे वह चुनाव आयोग को पत्र लिख कर इस बात की सूचना देंगे कि वह अपने मताधिकार का प्रयोग दिल्ली में रहने की वजह से नहीं कर पा रहे हैं, यही हमारे वोट हैं इन्हें स्वीकार करें अर्थात चिट्ठी के माध्यम से चुनाव आयोग को अपना वोट दर्ज करायेंगे।

अंतिम चरण के चुनाव के दिन 20 नवम्बर 2010 को मतपत्र के रूप में सभी पत्र चुनाव आयोग को सोंपे जायेंगे ,
बिहार बाढ़ विभीषिका समाधान समिति के सदरे अलम ने बताया कि इस अभियान कि अपील सभी राजनैतिक दलों को भेजी जाएगी , अमन ट्रस्ट के जमाल किदवई ने बताया कि हाल ही में ए एन सिन्हा संस्था (पटना) कि एक रिपोर्ट आई है , जिसमे बताया गया है कि बिहार के ३० % मत दाता पलायन कर गए हैं जो चुनाव में हिस्सा नहीं लेंगे उनके मुताबिक श्रीनगर में एक लाख से अधिक बिहारी मजदूर हैं जो वोट नहीं करते

सोमवार, 23 अगस्त 2010

कैसे बाज आयें कबूतरबाज

विदेश में नौकरी दिलाने का झांसा देकर पैसे हड़पने की घटनाएं रोज सामने आनी लगी हैं। बाहरी देशों में जाकर मजदूरी करने वाले मजदूरों में ज्यादातर मजदूर खाड़ी देशों में जातें हैं और खाड़ी देशों में रोजगार दिलाने वाले कबूतरबाजों का जाल पूरे देश में फैला हुआ है। पिछले दिनों में लीबिया में 116 भारतीयों को बंधक बनाने की खबरें आयीं हैं जिन्हें कबूतरबाजों द्वारा अच्छी पगार और बेहतर रोजगार का झांसा देकर लीबिया भेजा गया, जहां पर अच्छी तनख्वाह तो दूर खाना तक नहीं दिया गया। ऐसे वाकयात बहुत से बेरोजगारों के साथ हाते रहते है। कबूतरबाजी के इस धंधे में ज्यादातर गरीब मजदूर फंसतें हैं क्योंकि एक ओर तो देश में रोजगार की कमी है, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र में और दूसरी बात यह है कि मजदूरी के लिये विदेश भेजने की सरकारी स्तर पर कोई व्यवस्था नहीं है। ऐसी स्थिति में सच्चाई जानते हुए भी मजदूरों को इन कबूतरबाजों का सहारा लेना पड़ता है जो लाखें रूपये लेकर ठगते हैं। ये सबसे पहले तो बेरोजगारों को अच्छी पगार और बेहतर रोजगार के सपने दिखातें हैं और नहीं मिलने पर पैसे वापस करने के खोखले वादे भी करतें हैं। जब इन मजदूरों की विदेशों में दुर्दशा होती है, बेहतर रोजगार तो दूर कम्पनीयों और मालिकों द्वारा मानवीय व्यवहार भी नहीं किया जाता तो बहुत से मजदूर तो वापस लौट आतें हैं और जो नहीं लौटतें है उनकी स्थिति दयनीय होती है। जब वापस लौटकर पैसा मांगतें हैं तो कबूतरबाज पैसा वापस करने से इंकार कर देते हैं। ऐसी स्थिति में पीड़ित पक्ष अगर कानून की शरण में जाता है तो भी उन्हें कोई फायदा नहीं होता है क्योंकि कानून को सबूत चाहिये और मजदूरो व ठगी कबूतरबाजों के बीच कोई लिखित समझौता तो होता नहीं है और बहुत से मामलों में तो गवाह पेश करना भी मुश्किल हो जाता है, तब कबूतरबाज आराम से कानून की पकड़ से बच जातें हैं। इन कबूतरबाजों का जाल गांवों से लेकर बड़े शहरों तक फैला हुआ है जिसकी गिरफ्त में अधिकतर बेरोजगार युवा आते हैं। यह समस्या न केवल कबूतरबाजों द्वारा लोगों को ठगने की है बल्कि यह मुख्यरूप से समाज की उन हालातों की और संकेत करती है जो एक ओर तो ऐसे ठगी लोगों के पनपने का रास्ता साफ करती है, दूसरी ओर लोगों को इनके पास जाने को मजबूर भी करती है जिसके कारण बड़े पैमाने पर श्रम का शोषण होता है।
देश में संसाधनों का बंटवारा कुछ इस प्रकार से हुआ है कि खुशहाली कुछ मुटठीभर लोगों के हिस्से में चली गई और समाज के एक बड़े तबके को बदहाली की स्थिति में जीना पड़ रहा है। मगर इससे भी बड़ा सवाल है कि आबादी लगातार बढ़ती जा रही है और संसाधन सिमित हैं, ग्रामीण क्षेत्र में नए रोजगारों का सृजन नहीं हो रहा है जबकि परम्परागत रोजगार के साधन दिनोंदिन घटते जा रहें हैं। इस पूरे परिदृश्य ने युवाओं के सामने चनौती खड़ी कर दी कि आखिर वो क्या करंे ? यहीं से बहुत सी समस्याओं का जन्म हो जाता है जिन्हें आज हम हमारे चारों ओर के समाज में देखतें हैं और इन कबूतरबाजों का मामला भी उसी का हिस्सा है। जबकि पुलिस व प्रशासन को इन कबूतरबाजों के बारे में पूरी जानकारी रहती है क्योंकि लोगों के संवादों में ये इतने प्रचारित किये जातें हैं कि प्रशासन को आराम से पता चल जाता है। इस पर भी प्रशासन अगर यह तर्क देता है कि उन्हें पता भी नहीं था कि ऐसा कोई धंधां चल रहा है तो सवाल उठता है कि पता क्यों नहीं था ? शिकायत दर्ज होने के बाद भी इन कबूतरबाजों द्वारा लगातार लोगों को ठगा जाये तो जाहिर है कि ये कोई आम ठग या लूटेरे नहीं है बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से सक्षम व ताकतवर लोगों का गिरोह है जो अपनी शक्ति का गलत उपयोग करके लोगों को ठगता रहता है। एक गरीब बेरोजगार 1 लाख रूपये देकर नौकरी के लिये जाता है और उसे इस प्रकार से प्रताड़ित किया जाता है, यह बहुत ही गम्भीर मामला है जिस पर कोई राजनीतिक बातचित नहीं हो रही है। हो सकता है कि इन कबूतरबाजों के तार स्विस बैंक में जमा भारतीय पूंजी तक हो या बहुत से नेता व प्रशासनिक अधिकारीयों की मिलीभगत हो, अपराधीयों को देश से बाहर जाने में भी ऐसे लोगों का हाथ हो सता है जिसकी जांच होनी चाहिए।
इस समस्या का हल करने का पहला तरिका तो है कि देश में ग्रामीण क्षेत्रों में नये रोजगारो का सृजन किया जाये ताकि बेरोजगारों को विदेशों की तरफ रूख ही न करना पड़े और दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि लोगों के साथ ठगी और धोखाधड़ी करने वाले इन कबूतरबाजों के प्रति प्रशासन कड़ा रूख अपनाये ताकि एक बेरोजगार को अमावीय यातनाओं से बचाया जा सके। अगर समय रहते इन कबूतरबाजों पर अंकुश नहीं लगाया गया तो ये आज तो श्रम को विदेशों में बेच रहें है कल पूरे देश को ही बेच खायेंगे।

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

नवउदारीकरण के जाल में किसान

1991 के बाद भारत विष्वव्यापी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का अंग बनता जा रहा है। खुले व्यापार और निजी निवेष के माॅडल को अपनाने के बाद प्राथमिक क्षेत्र पर लगातार संकट के बादल मंडरा रहे है और उससे कृषि व कृषि से जुड़ा हुआ तबका बूरी तरह प्रभावित हुआ है। यूरोप के देषों में औधोगिककरण के बाद खेती पर निर्भरता घटती गई मगर भारत में 1971 की तुलना 2005 में कृषि कामगारों की संख्या दुगुनी हो गई है। एक तरफ जनसंख्या के बढ़ते दवाब और दूसरी तरफ कृषि में सार्वजनिक निवेष के घटने के कारण भारतीय कृषि हाषिये पर पहुंच गई है। विष्व बैंक ने भी 2008 की रिर्पोट में कृषि को विकास के ऐजेंडे में माना है क्योंकि विकासषील देषों की अधिकांष जनता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि से जुड़ी हुई है। वैष्विक परिदृष्य पर पूंजीवादी ताकतें विष्व बैंक व अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के माध्यम से विकासषील देषों की कृषी पर लगातार हमला कर रही है क्योंकि वे अपने टनों अनाज को बाजार में मंदी के डर से नहीं ला सकते, इसलिए समुंद्र में डुबाये जाने वाले अनाज के लिए बाजार तैयार करना चाहते है और वो तभी सम्देषों की कृषि को पूरी तरह तबाह कर दिया जाये।
भारत की जीडीपी में कृषि क्षेत्र की भागीदारी लगातार कम हो रही है और अब यह मात्र 15.7 फीसदी रह गई है क्योंकि कृषि क्षेत्र में 1991 के बाद लगातार सार्वजनिक निवेष को घटाया जा रहा है। 1991 में कृषि पर सार्वजनिक निवेष 16 फीसदी था जो पिछले वर्ष घटकर 6 फीसदी रह गया है। आर्थिक सुधारों के दौरान कृषि की अनदेखी हुई है जिसका मुख्य कारण है कि सरकार कृषि लागतों पर सब्सिडी और उपज पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की नीतियों को ही मुख्य ऐजेंडे में रखा लेकिन कृषि पर शोध, तकनीकी विकास, सिंचाई, ऊर्जा, भंडारण व अन्य परम्परागत ज्ञान के विकास पर कोई निवेष नहीं किया। नई आर्थिक नीतियों को अपनाने के बाद भारतीय किसान वैष्विक बाजार में विकसित देषों के किसानों से प्रतिस्पद्र्धा में टिक ही नहीं पाता है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था को विष्व बाजार में प्रतिस्पद्र्धा के लिये तो खोल दिया मगर अर्थव्यवस्था के प्रारम्भिक ढ़ांचे- कृषि और प्राथमिक क्षेत्र का आधारभूत विकास ही नहीं किया गया। पिछले साल यू. पी. ए. सरकार की 78 हजार करोड़ रूपये की ऋण माफी के बाद भी किसान आत्महत्याएं कर रहे है और इस वर्ष भी कृषि वृद्धि दर पिछले वर्ष की तुलना में 0.2 प्रतिषत ऋणात्मक रही है। जिस देष में 60 प्रतिषत लोग कृषि से जुड़े हुए हो, वहां पर कृषि वृद्धि दर ऋणात्मक रहना कृषि विरोधी नीतियों को दर्षाता है। सही मायनों में ऋण माफी किसानों को फायदा देने के लिये नहीं थी, वो बड़े बैंको की एमपीए कम करने की साजिष थी जो किसानों सिर पर मढ़ दी गई। मीडिया भी कृषि मृद्दो को लेकर संवेदनषील नहीं है, 78 हजार करोड़ रूपये की ऋण माफी को ऐसे उछाला जैसे इससे भारतीय कृषि का मूलभूत ढंाचा ही बदल जायेगा लेकिन उसी साल औधोगिक क्षेत्र को 3 लाख करोड़ रूपये का टेक्स रिबेेट दिया गया जिस पर कोई सवाल नहीं उठे। कार लोन शून्य प्रतिषत ब्याज पर दिया जा सकता है लेकिन किसानो को ऋण देने के लिए सरकार ने नाबार्ड से लेकर किसान तक इतनी ज्यादा औपचारिक कड़िया बना रखी है कि उसे समय व जरूरत के मुताबिक ऋण मिल पाना मुष्किल है। नई आर्थिक नीतियों के तहत अर्थव्यवस्था को पूर्णरूप से सेवा क्षेत्र पर निर्भर करने की कोषिष की गई और प्राथमिक क्षेत्र को नजर अंदाज किया गया। आज किसान और उपभोक्ता के बीच के दलालोे की संख्या इतनी बढ़ गई है कि दोनों का पैसा बिचैलियों द्वारा हड़प लिया जाता है। एक अध्ययन के मुताबिक कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य तथा थोक मूल्यों में 33 प्रतिषत का और थोक एंव खुदरा मूल्यों मंे लगभग 60 प्रतिषत का अन्तर होता है। अगर एक किसान अपनी उपज का 100 रूपये पाता है तो उपभोक्त द्वारा 200 चुकाये जाते है। बीच के 100 रूपये सप्लाई चैन सिस्टम की कमजोरी के कारण बिचैलियों के जेब में जाते है। आज भारतीय कृषि एक घाटे का व्यवसाय बन गई है जिसके मुख्य कारण प्राकृतिक प्रकोप और नई आर्थिक नीति के तहत कृषि विरोधी नीतियों का लागू होना है। कृषि के पिछड़ेपन और ग्रामीण रोजगार के अभाव में बहुत बड़ा तबका शहरों की ओर पलायन कर रहा है जिसके कारण शहरो की अर्थव्यस्थाओं का ढंाचा भी चरमरा रहा है। कृषि क्षेत्र को दिये जाने वाले कर्ज में पिछले कुछ सालों में काफी वृद्वि हुई है। 1996-97 से 2003-04 के बीच यह 14.27 प्रतिषत वार्षिक वृद्धि की दर से बढ़ा है लेकिन कृषि क्षेत्र में वास्तविक निवेष नहीं बढ़ा है। कृषि में सार्वजनिक निवेष और कृषि सब्सिड़ी में विपरीत संबंध दिखाई देता है।
1990 के दषक में विष्व पटल पर समाजवादी आंदोलन का नेतृत्वकर्ता सोवियत संघ के विघटन के कारण पूंजीवादी ताकतों को खुला मैदान हो गया और विष्व एकधुव्रीय व्यवस्था में तबदील होने के कारण बहुत से विकासषील देषों ने मजबूरी में नवउदारवादी नीतियों को अपनाना पड़ा, भारत भी उसी लपेटे में आ गया था। भारतीय कृषि को अमेरिकी सांचे में ढ़ालने के लिये नीति निर्धारकों से लेकर कृषि की शोध संस्थाएं उदारीकरण के पक्ष में तर्क देने में जुट गई, इसीलिए भारतीय कृषि वैज्ञानिक बंजर भूमी को उपजाऊ बनाने की तकनीक खोजने के बजाय बीटी बीजों की वकालत करने लगे। आज देष में 50 से अधिक कृषि विष्वविधालय हैं मगर उनकी उपलब्धियां क्या हैं ? कृषि अनुसंधान और षिक्षा भी भारतीय कृषि के संकट के लिये जिम्मेदार है, क्योंकि वो भारतीय कृषि की समस्याएं और परिस्थितियों पर शोध करने के बजाय इस बात पर शोध कर रहा है कि भारतीय कृषि को अमेरिकन मोडल में कैसे ढ़ाला जाये और इसी कारण मूलभूत समस्यायों को गौण कर दिया गया। आजादी के बाद लगातार एक तरफ बिहार में बाढ़ ने लोगों को तबाह करके रखा और दूसरी तरफ राजस्थान में हर साल अकाल पड़ता है मगर हमारी सरकारों ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया कि बाढ़ का पानी सूखे की तरफ मोड़ कर दोनों तबाहीयों को बचाया जा सकता है। क्योंकि अगर ऐसा हो गया तो अकाल राहत और बाढ़ राहत के नाम पर जो करोड़ों के फंड दिये जाते है उनमें धांधली कैसे होगी? दरअसल में नवउदारवादी नीतियों का चरित्र ही ऐसा है कि वो चंद लोगों के लिये लूट का हथियार है। विकास के नाम पर किसानों को सहायता देने के बजाय उन्हें जमीन से बेदखल करने के पट्टे भी बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों को दे दिया है। सच्चाई तो यह है कि भारतीय किसान कभी प्रकृति से नहीं हारा है क्योंकि प्रकृति हमेषा संतुलन बनाये रखती है मगर नई आर्थिक नीतियों ने तो किसान से लेने की ही नीति अपनाई है उसे बदले में कर्ज के सिवाय मिलता कुछ नहीं।
देष में लगातार किसान आत्महत्याएं कर रहें हैं, पिछले 12 सालों में 2 लाख किसानों द्वारा आत्महत्या करना नवउदारवादी नीतियों का ही परिणाम है और सरकार कर्ज माफी का एक पैकेज देकर इति श्री कर ली लेकिन सवाल उन नीतियों को बदलने का है जिनके कारण आज भारतीय किसान हाषिये पर पहुंच गये है, चाहे सब्सिडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाने की बात हो या फिर नई तकनीक और संसाधन उपलब्ध कराने की हो, किसानों को हर जगह लूटा जाता है। राजनैतिक रूप से किसानों का ऐसा कोई वोट बैंक नहीं है जिसके कारण राजनीतिक दल उन्हें महत्व दें क्योंकि वोट को तो पहले से ही जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर विभाजित कर दिया गया है। कुछ तथाकथित किसान नेता जरूर हैं जिन्हे न तो किसानों की वास्तविक समस्याओं का पता है और न किसान की हालत का। असल में वो जमीन के मालिक जरूर है मगर जमीन पर खुद कभी खेती नहीं की, वो जमींदार है जिनके यहां भूमिहीन मजदूर काम करते है लेकिन वो सरकार की परिभाषा के हिसाब से किसान है क्योंकि सरकार उसी को किसान मानती है जिसके नाम पर जमीन हो। उनके किसान नेता बनने के पीछे तर्क यह है कि किसी अन्य राजनीतिक दल में जगह नहीं मिलने के कारण खुद को राजनीतिक धरातल पर स्थापित करने के लिये किसान राजनीति के नाम पर जहां मौका मिले भाषणबाजी करते रहते हैं।
सप्रंग सरकार के दूसरे कार्यकाल के एक वर्ष पूरे हो जाने पर रिर्पोट कार्ड जारी करके करकार अपनी पीठ थपथपा रही है जबकि इसी सरकार की किसान विरोधी नीतियों के कारण महंगाई में किसान बदहाल है, एक तरफ तो वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं और वही दूसरी तरफ किसान को फसल का उचित मूल्य भी नहीं मिल पा रहा है। मनमोहन सिंह का अर्थषास्त्र किसानों के लिये न होकर, ठेकेदारों और बिचोलियों के हित में है मगर सप्रंग सरकार जबरदस्ती उसे अपनी उपलब्धीयों मनाने पर अड़ी हुई है। एक तरफ भारत में किसानों को दिया जाने वाला अनुदान घटाया जा रहा है और दूसरी तरफ दुनियां के विकसित देष कृषि अनुदान को बढ़ा रहे है, ऐसी स्थिति में भारतीय किसान कैसे वैष्विक बाजार में टिक पायेगा जिसके दरवाजे बिना तैयारी के ही खोल दिये गये है। नवउदारवादी नीतियों का मुख्य ऐजेंडा है कि भारतीय कृषि किसानों से छीनकर बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों के हाथ में चली जाये। कृषि संकट से उभरने के लिये दुसरी हरित क्रांति का शंखनाद करने की तैयारी करने वाले भूल रहे है कि किसान बढ़ती लागत और उपज के घटते मूल्य की दोहरी चक्की में पिस रहा है न की तकनीक और उन्नत किस्म के बीजों के अभाव में। किसान व कृषि को वैष्विकरण के दानव से बचाने के लिये ऋण माफी व अन्य रियायतों की बजाय क्षि नीतियों को बदलने की जरूरत है जो किसान को आज ‘मुक्त बाजार’ के ऐसे बनिये के जाल में फंसा दिया है जिसके बही खातो से लेकर हिसाब किताब की भाषा ही भारतीय किसान विरोधी है।

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

दूसरी हरित क्रांति वैकल्पिक कृषि के रास्ते

कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिये भारत सरकार ने कार्यसमूह गठित किया है और उस कार्य समूह के अध्यक्ष का मानना है कि दूसरी हरित क्रांति जरूरी है। एक तरफ देष में तिव्रगती से बढ़ती हुई जनसंख्या और दूसरी तरफ कृषि का लगातार पिछड़ापन एक भयानक खाद्यान्न संकट का संकेत देते हंै। ऐसी स्थिति में वैकल्पिक कृषि भारत का पेट भर सकती है, इसमें क्रांतिकारी सम्भावनाएं है। वैकल्पिक कृषि में श्रम की उपादेयता बढ़ जाती है, इसलिए यह रोजगार सृजन और बेरोजगारी का भी कुछ हद तक निवार्ण करने में सहायक है। कृषि क्षेत्र में ज्ञान के नियमित प्रयोग और स्थानीय संसाधनों के बढ़ते प्रभाव के कारण कृषि में विकेंद्रीकृत विकास की अपार संभावनाएं नजर आती है। इन सबके बावजूद एक अहम सवाल खड़ा होता है कि क्या वैकल्पिक कृषि खाद्यान्न संकट से निजात दिला सकती है ? दुनियांभर में जैविक कृषि पर हुए अध्ययनों से स्पष्ट है कि यह लघु और सिमान्त किसानों के लिये उपयोगी है क्योंकि एक तो इसमें उत्पादन में वृद्धि दर्ज की गई है और दूसरा कारण है कि छोटी जोतों पर नए नए प्रयोग आसानी से किये जा सकते है। लेकिन वैकल्पिक कृषि अपनाने वालों के प्रषिक्षण पर भी इसकी उत्पादकता और गुणवता निर्भर करती है और भारत में दूसरी हरित क्रांति के लिये जरूरी है कि उचित प्रषिक्षण, तकनीकी और उन्नत किस्म के बीज व रासायनिक उर्वरक उपलब्ध कराये जायें। जहां तक किमतों का सवाल है तो यूरोप के देषों का अनुभव बताता है कि सामान्य बाजार भावों में भी वैकल्पिक कृषि मुनाफा कमा सकती है क्योंकि इसकी प्रति हैक्टेयर उत्पादन लागत कम होती है और उत्पादन की मात्रा भी तुलनात्मक रूप से ज्यादा होती है।
अब अगर वैकल्पिक कृषि के नकारात्मक पहलूओं की चर्चा करें तो इससे स्थानीय बीजों, पशुधन एवं परम्परागत ज्ञान नष्ट होता है और इसी कारण विष्व बाजार में विकासषील देषों के उत्पाद विकसित देषों की तुलना में पिछड़ जाते है। वैकल्पिक कृषि में प्रयोग में ली जाने वाली प्रक्रियाएं स्थान और फसल विषेष के लिये होती हैं उन्हें हर जगह ज्यूं का त्यूं इस्तेमाल में नहीं लाया जा सकता है और भारतीय संदर्भ में देखा जाये तो इतनी ज्यादा भौगोलिक और प्राकृतिक विभिन्नताएं है कि वैकल्पिक कृषि पद्धति पर ही प्रष्नचिंह खड़ा हो जाता है। भारत में छोटे छोटे किसानों के पास इतना पैसा नहीं होता है कि वो उन्नत तकनीक और रासायनिक बीजों का प्रयोग कर सकें और न ही उन्हें वक्त व जरूरत के अनुसार बैकों से ऋण मिल पाता है। 2007 की राष्ट्रीय किसान नीति में भी जैविक कृषि को कुछ चुनिंदा क्षेत्रों के लिये ही उपर्युक्त माना है क्योंकि अभी तक भारत में इस संदर्भ में शोध व प्रयोग ही बहुत कम हुआ है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार हमारी भूमि का दो तिहाई हिस्सा लगभग विकृत हो चुका है और लगातार कृषि योग्य भूमि में कमी आ रही है क्योंकि परम्परागत कृषि पद्धतियों से इतनी बड़ी जनसंख्या के लिये खाद्य सामग्री उपलब्ध कराना मुष्किल है। ऐसी स्थिति में अगर वैकल्पिक कृषि को नहीं अपनाया गया तो आने वाले समय में भूख भारत की सबसे बढ़ी समस्या होगी। कुछ लोगों का तर्क होता है कि वैकल्पिक कृषि कितनी भी अच्छी हो लेकिन मषीनीकरण और आधुनिककरण के कारण कृषि में श्रमशक्ति घट जायेगी और बेरोजगार बढ़ जायेगी परन्तु उत्पादन और तकनीक के विकास के साथ गांवों में नये नये रोजगारों का सृजन होगा जिससे बेरोजगारी भी कम होगी और गांव से शहर की तरफ होने वाले पलायन में भी गिरावट आयेगी। क्योंकि जब गांव में ही रोजगार मिल जायेगा तो मजबूरी में होने वाले पलायन पर तो रोक लग ही जायेगी।
भारत में वैकल्पिक कृषि के विकास के लिये जरूरी है कि सराकर उचित संसाधन और तकनीक उपलब्ध कराये, साथ ही साथ भौगोलिक विभिन्नताओं को देखते हुए अलग अलग क्षेत्र के लिये विषेष शोध कराकर उसे किसानों तक पहुंचाये ताकि समय पर उससे किसान लाभांवित हो सके। दूसरी हरित क्रांति का रास्ता वैकल्पिक कृषि से होकर ही जायेगा, इसके लिये सरकार और किसान दोनों को तैयार रहना चाहिए क्योंकि शरूआती दौर में बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। मूलतः समाज और सरकार को वैकल्पिक कृषि को नजर अंदाज नहीं करना चाहिए क्योंकि आने वाले समय में भारत और दुनियों को खाद्यान्न संकट से यही उभार सकती है। जरूरा नहीं है कि सभी फसलों में वैकल्पिक कृषि को अपनाया जाये क्योंकि जिन फसलों में परम्परागत ज्ञान से कम खर्चे पर अच्छी उपज प्राप्त हो रही है उन्हें उसी प्रकार से चलने दिया जाये। इस प्रकार एक स्तर पर परम्परागत कृषि और वैकल्पिक कृषि में सामंजस्य भी जरूरी है। चाहे किसानों की आत्महत्यों का सवाल हो या कृषि क्षेत्र में बढ़ती अन्य समस्याएं, वैकल्पिक कृषि इन सब का एक हल प्रस्तुत करती है। देष में कुछ जगहों पर इसके प्रयोग चल रहे है जो बहुत हद तक सफल भी है मगर अब इसे बड़े फलक पर उतारकर दूसरी हरित क्रांति का शंखनाद करना समय की मांग है।
वैकल्पिक कृषि को अपनाने के लिये किसानों और सरकार को एक दूसरे का सहयोगी होना पड़ेगा।

सोमवार, 19 जुलाई 2010

शहर के हकदार


राष्ट्रमंडल खेलों के पीछे एक तर्क यह भी है कि सरकार इन खेलों की आड़ में बहुत से मुद्दो को भुनाना चाहती है, जैसे- पुनर्वास व पलायन जैसी समस्याओं को। इसी कड़ी में दिल्ली को झुग्गी - झोपड़ी मुक्त बनाने के नाम पर गरीब झुग्गीवासीयों को गुमराह करने की कोषिष की जा रही है। लोगों को उजाड़ने वाले इस तंत्र ने अपना काम शुरू कर दिया है, दिल्ली सरकार ने राजीव रत्न आवास योजना के अंतर्गत 7900 फ्लैटों के आवंटन की घोषणा की है जिसके तहत 44 झुग्गी कालोनियों को फ्लैट आवंटन का कार्य शुरू हो गया है। अब सवाल उठता है कि क्या वास्तव में सरकार झुग्गी कालोनियों की समस्या को दूर करना चाहती है?
अगर इन 44 झुग्गी कालोनियों को जनसंख्या व परिवारों की गणना के आधर पर फ्लैट आवंटन किया जाये तो दो झुग्गी कालोनियों को भी यह फ्लैट कम पड़ेंगे, पुनर्वास नीति के तहत यह प्रावधान है कि 18 साल के व्यस्क को भी सरकार अलग से फ्लैट मुहैया कराये, जैसा राजगीर व खांडवा में हुआ था। मगर सरकार ऐसा नहीं करती क्योंकि दरअसल सरकारे ये चाहती नहीं कि मजदूरों की स्थिति में कोई सुधार हो। हर शहर के विस्तार का एक चरित्र व एक रफ्तार होती है। जो जगह रहने लायक नहीं होती, वहां पर मजदूरों को बसाया जाता है और जब मजदूर अपने खून पसीने से उस जगह को रहने लायक व साफ सुथरा बना लेते है तब किसी तथाकथित बहाने के नाम पर सरकारें वहां से मजदूरों को बेदखल कर देती है। अगर दिल्ली के विस्तार की कहानी को भी गहराई से देखा जाये तो यही बात सामने आती है कि कभी एषियार्ड व कभी किसी अन्य प्रोजेक्ट के नाम पर मजदूरों की जमीन को लगातार हथियाया जा रहा है। जहां पर इन झुग्गी कालोनियों को बसाया जाता है, वहां की स्थिति को देखने से साफ जाहिर है कि यहां पर न तो कोई मूलभूत सुविधाएं है और न ही कोई मानवाधिकार। सरकार चाहती भी नहीं कि इन झुग्गी कालोनियों की स्थिति को सुधारा जाये, इनमें से बहुत सी झुग्गी कालोनियां ऐसी भी है चुनावों से पहले तो वैध हो जाती है और चुनाव के बाद वापस अवैध हो जाती है। वोट लेने के वक्त बहुत से लुभावन वादे किये जाते है मगर चुनाव होते ही सब इनसे आंख भौहें सिकोड़ने लग जाते है। सबसे आष्चर्यजनक बात है कि हर साल एक बड़ी तादात में मजदूर रोजगार की तलाष मे दिल्ली आते है लेकिन सरकार के पास दिल्ली की आवासीय स्थिति को लेकर कोई ठोस रणनीति नहीं है। न तो सरकारे गांव से शहर की ओर हो रहे इस अंधाधुंध पलायन के कारणों का निवार्ण कर रही है और न ही शहर में इन मजदूरों की बेहतर जींदगी का कोई प्रयास।
जब तक गांव में रोजगार के साधनों का निर्माण नहीं किया जाता है तब तक पलायन को रोकना मुष्किल है क्योकि देष के एक बहुत बड़े इलाके में लगाातार बाढ़ व सूखे का प्रकोप रहता और सरकार की उदासीनता के कारण इन प्रकोपों से प्रभावित लोगों को कोई राहत नहीं मिल पाती है। हालांकि कागजों में तो बहुत सी योजनाएं व पैकेज उपलब्ध कराये जाते है मगर जमीनी हकिकत पर कुछ नहीं मिलता है। ऐसी स्थिति में गांव से शहर की और पलायन के अलावा कोई दूसरा रास्ता ही नहीं बचता है। मसला यह भी है कि एक तरफ सता यह भी चाहती है कि ज्यादा से ज्यादा मजदूर गांव से शहर आये क्योंकि तभी तो उन्हें सस्ते मजदूर मिल पायेंगे, जिससे शहर को सजाया जा सके और कामनवेल्थ जैसे रौनकी कार्यक्रम किये जा सके और दूसरी तरफ यह भी चाहती है कि ये शहर में दिखाई देकर उनकी झूठी शान में खलल भी न डालें। असली शहर इन मजदूरों से ही चलता है और ये ही इसके हकदार है। महलों से लेकर सड़को तक सब कुछ बनाने के पीछे जो हाथ होते है उन्हे हेय दृष्टी से देखा जाता है।
इस देष में क्रिकेट और कामनवेल्थ की झूठी शान पर तो खर्च करने के लिये सरकारों के पास करोड़ों का बजट आ जाता है और इन झुग्गी कालोनियों वालों के जीवनस्तर को सुधारने व सामाजिक सुरक्षा के नाम पर सरकारी ख्जाना हाथ खड़े कर देता है। गांव शहर की तरफ आने का मतलब होना चाहिए कि एक बेहतर जींदगी की ओर प्रस्तान मगर आज इसके उलटा हो रहा है, शहर की तरफ मजबूरी आना पड़ता है क्योंकि आजादी से लेकर आज तक लगातार ऐसी ही परिस्थितियां बनाई जा रही है की चंद लोगों की खुषी के लिये गांवों को तबाह करके शहर के आसपास मजदूरों को बेहाल छोड़ दिया जाये, जो दिल्ली से लेकर भारत के सभी बड़े और मध्यम शहरों की स्थिती है।

दिल्ली को झुग्गी - झोपड़ी मुक्त बनाने के लिये फ्लैट देना इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। जब तक गांवों में पर्याप्त रोजगार के अवसर नहीं बढाये गये और शहरों में मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा व मूलभूत सुविधाएं नहीं दी जाती तब तक समस्या ऐसे ही बनी रहेगी।

रविवार, 18 जुलाई 2010

कामनवेल्थ: कौन कामन, किसका वेल्थ?


जैसे-जैसे अक्टूबर का महीना नजदीक आता जा रहा है वैसे ही सरकार की बैचनी बढ़ती जा रही है। दिल्ली को ‘वल्ड़ क्लास’ शहर दिखाने के लिए सौन्दर्यकरण के नाम पर करोड़ों रूपये पानी की तरह बहाये जा रहा है। जब देष में विष्व के 40 प्रतिषत भूखे लोग रहते है, 46 प्रतिषत बच्चे और 55 प्रतिषत महिलाएं कुपोषण के षिकार है। ऐसी स्थिति में सरकार हजारों करोड़ रूपये 12 दिन के खेल आयोजन पर खर्च कर रही है जिसका फायदा कम नुकसान ज्यादा नजर आ रहा है। इस खेल की आड़ में दिल्ली सरकार बहुत से मुददे भुनाना चाहती है, जंैसे- दिल्ली में हजारों बेेघरों के लिए सामाजिक सुरक्षा का कोंई इंतजाम नहीं है, रोजगार के अभाव में गांव से पलायन करके षहर आये हुए असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के जीवन की मूलभूत सुविधाओं और झुग्गी बस्तीयों में रहने वाले लाखों लोगांे के बेहतर जीवन के लिए तो सरकारी खजाना खाली हो जाता है मगर 12 दिन के खेल के लिए 30,000 करोड़ रूपये खर्च किये जा रहे है। अगर इतिहास को देखे तो एषियार्ड खेलों के लिए सरकार ने देष भर से जो मजदूर बुलाए थे उनकी मेहनत से खेलों का आयोजन तो सफल हो गया मगर उनके रोजगार व सामाजिक विकास की स्थिति बदतर हो गई है। क्योंकि सरकार का मानना है कि शहर के सौदन्र्यकरण के नाम पर मजदूर ऊंची ऊंची बिल्डिंग ंतो खड़ी करें मगर वो इसकी सुन्दरता मे खलल न बनें। सरकार को एक तरफ सस्ते मजदूर भी चाहिये और दूसरी तरफ उनके प्रति कोई सामाजिक व नैतिक जिम्मेदारी लेने के लिये भी तैयार नहीं है और इसी दोहरी नीति के चलते शहर को सुन्दर बनाने और सजाने वाला मजदूर शहर से अलग कच्ची काॅलोनीयांे और झुग्गी बस्तीयांे में रहने को मजबूर है, जहां पर स्वस्थ पानी, बिजली, स्वास्थ्य और षिक्षा जैसी मूलभूत जरूरतों का अभाव पाया जाता है। काॅमन वेल्थ की झुठी शान में सड़कों को चैड़ा करने के बहाने रेहड़ी-पटरी रिक्षा-ठेला और सड़कों के किनारे रोजी रोटी चलाने वाले लोगों को हटा रही है ओर उनके लिये कोई अन्य व्यवस्था भी नहीं की जा रही है। खेल के इसी लपेटे में राजीव रत्न आवास योजना के तहत 44 झुग्गी बस्तीयों को हटाने का भी फरमान है लेकिन मजेदार बात यह है कि इन 44 बस्तीयों को 7900 फ्लेटों में षिफ्ट किया जायेगा। इस फ्लैट आवंटन के नाम पर लाखों लोगों को उजाड़ा जायेगा।
काॅमन वेल्थ खेल का खर्चा 10000 से बढ़कर 30000 करोड़ तो हो गया है लेकिन यह कहना मुष्किल है कि इस पैसे काम चल जायेगा। अब सवाल उठता है कि कौन काॅमन है और किसका वेल्थ है जिसके लिये पूरे दिल्ली शहर को दुल्हन की तरह सजाया जा रहा है। चंद लांगों के इस खेल के आयोजन में, जो अंग्रेजों की गुलामी की याद को ताजा करता हो उसका सबसे ज्यादा सामाजिक आर्थिक प्रभाव दिल्ली के गरीब औरतों, बच्चों, बेघरों, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों और रिक्षा-ठेला वालों पर पडे़गा। सड़कों को साफ व सुंदर करने के लिये सड़क के किनारे से सभी ठेले और छोटी दुकानों को हटाया जायेगा क्योंकि विदेषीयों को भारत की असली तस्वीर दिखाने की बजाय एक बनी बनाई छवि दिखाई जाये ताकि उन लोगों को लगे कि भारत ने अभूतपर्व प्रगति की है।
काॅमन वेल्थ के लिये दिल्ली में सैंकड़ों करोड़ रूपये लगाकर ‘खेल गांव’ का निर्माण किया जा रहा है, वहां से गरीब लोगों की बस्तीयों को उजाड़ दिया है मगर खेल के बाद यह फ्लैट अमीरों का अड्डा बनने वाले है। झारखण्ड व छतीसगढ़ जैसे प्रदेष जहां पर खेलों के लिये पर्याप्त सुविधाओं की जरूरत है वहां पर प्राथमिक सुविधाएं भी नहीं है। अभी जो स्टेडियम बन रहे हैं क्या सरकार उनका रखरखाव ठीक तरिके से कर पायेगी? चीन में ओलंपिक के आयोजन के लिये जो स्टेडियम बनाये थे उनका रखरखाव करना आर्थिक रूप से भारी बड़ रहा है जबकि चीन की खेल संस्कृति विकास का एक स्तर प्राप्त कर चुकी है। अगर इन खेल स्टेडियमों का उचित संरक्षण व उपयोग नहीं कर पाये तो करोड़ों रूपये के निवेष का कोई सार्थक उपयोग नहीं हो पायेगा और यह सीख हमें 1982 के एषियार्ड खेलों से ले लेनी चाहिये जिसमें लगाई गई मानवीय श्रम व पंूजी की ठीक से उपयोग होता तो आज काॅमन वेल्थ का बजट 30000 करोड़ तक नहीं पहुंचता।
ऐसे आयोजनों से न तो खेल का भला होने वाला और न ही आम नागरीको का बल्कि दिल्ली में रहने वाला हर आम आदमी इन 12 दिनों के खेलीय महोत्सव से प्रभावित होगा। दिल्ली विष्वविधालय और जामिया के छात्रों को अभी से छात्रावास खाली करने पड़ रहे है और इनका जो खर्चा कामन वेल्थ के नाम पर होगा उनकी कही भी कोई गिनती नहीं हो रही है। दिल्ली का हर आम नागरिक कामन जरूर है मगर वेल्थ में उसका कोई हिस्सा नहीं है।

शनिवार, 3 जुलाई 2010

ठेंगा दिखाती बड़ी सिंचाई परियोजनाएं



बंाध और विस्थापन दोनों त्रासदी व पर्यावरणीय कारणों के चलते चर्चा में रहें हैं। एक तरफ बांध बनाने के नाम पर गांव के गांव विस्थापित किये गये तो दूसरी तरफ देष में बांधों से होने वाले विकास का विषेष प्रभाव नजर नहीं आता है। देष मे बड़ी-बड़ी सिंचाई परियोजना के नाम पर करोड़ों रूपयों का बजट पानी की तरह बहाया जाता है जिनका उदे्ष्य कृषि को उन्नत बनाना है लेकिन इन परियोजनाओं की सिंचाई का लाभ देष की कृषि को नहीं मिल पाया है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देष मंे नहरों से सिंचित क्षेत्रफल घटता जा रहा है जो 1991-92 में 178 लाख हेक्टेयर भूमि था वो ही 2003-04 में 146 लाख हेक्टेयर भूमि रह गया है यानी 14 वर्षोंे के दौरान नहरों से होने वाले सिंचाई के क्षेत्रफल मे 32 लाख हेक्टेयर की कमी आयी है। विष्व बैंक ने 2005 में अपनी रिर्पोट में कहा है कि भारत में सिचाई परियोजनाओं (जो दुनियां की सबसे बड़ी है) के ढ़ाचागत विकास के रखरखाव के लिये 17 हजार करोड़ सालाना की जरूरत है मगर बजट 10 प्रतिषत से भी कम उपलब्ध होने के कारण यह परियोजनाएं कृषि के विकास में सहायक नहीं बन पाती है।
2007 तक बड़ी व मध्यम सिंचाई परियोजनाओं पर 130,000 करोड़ रूपये खर्च किये गये। बड़े बांधों से सिंचित क्षेत्रफल नहीं बढ़ा जबकि इस अवधी के दौरान कुल सिंचित क्षेत्र में वृद्धि हुई है जिसके कारण कुएं, तालाब व सिंचाई के छोटे साधन है। बढ़ती हुई आबादी व सीमित संसाधनों के कारण न केवल सिंचाई के लिये अपितु पीने के लिये भी पानी एक गम्भीर समस्या बना हुआ है, ऐसी स्थिति में कृषि उत्पादन बढ़ाने और पीने के पानी की समस्या का समाधान करने के लिये दोनों में संतुलन बनाना जरूरी है।
11 वीं पंचवर्षीय योजना सहित तमाम पंचवर्षीय योजनाओं में जल संसाधन विकास के पूरे बजट का लगभग दो तिहाई बड़ी व मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के लिये उपयोग किया गया है। देष की बड़ी नदीयों की सफाई के लिये तो सैंकड़ों करोड़ों रूपयों की परियोजनाएं मंजूर हो जाती है और पानी के कुषल उपयोग के लिये अब तक कोई विषेष परियोजना और नीति सामने नहीं आयी है।
बड़ी सिंचाई परियोजनाओं की असफलता के पीछे कुछ कारण जरूर है, जैसे जलाषयों व नहरों में गाद जमा होना, सिचाई अधोसरंचना के रख-रखाव का के साधनों का अभाव, नहरों के शुरूआती इलाकों में ज्यादा खपत वाली फसलें लेना, पानी को गैर सिंचाई के कार्यों के लिये मोड़ना और भू-जल दोहन का बढ़ना। लेकिन मुख्य कारण है कि भौगालिक स्थिति और उपलब्ध संसाधनों को देखते हुए इन योजनाओं का ढ़ाचा तैयार नहीं किया जाता है।
कई योजनाओं में बांध तो बन गये है मगर नहरें बनाने के लिये सरकार के पास बजट नहीं है, इस कारण बहुत सी परियोजनाएं ढ़प पड़ी है और उसका नुकसान किसानों को उठाना पड़ रहा है। योजना आयोग के आंकड़े बताते हैं कि बड़ी और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के प्रति हेक्टर लागत छोटी परियोजनाओं की तुलना में 10 गुना ज्यादा है। उदाहरण के लिये राजस्थान में इंदिरा गांधी नहर से सिंचित क्षेत्रफल को लगातार बढ़ाया गया मगर पर्याप्त पानी नहीं मिलने के कारण फसलें चैपट हो गई और किसान आंदोलन करने पर उतर आये। ऐसी अनेक बड़ी सिंचाई परियोजनाएं हैं जो राज्यों के आपसी विवादों के कारण बंद पड़ी है और किसानों को पानी नहीं मिल रहा है। नहर में जो गाद जमा हो जाती है अथवा माइनर के उपर टीला बन जाता है तो किसान को अपने साधन व श्रम लगाकर साफ करना पड़ता है, नहर विभाग भ्रष्टाचारियों का अड्डा बन चुका है, रिष्वत लेकर अमीर किसानों को नहर पर बुस्टर लगाने की इजाजत दे दी जाती है इस कारण नहर के अंतिम छोर पर स्थित जमीन एक प्रकार से असिंचित भूमि की श्रेणी में ही आ जाती है। नहरों के कारण पहले तो किसानों की जमीनों को छिना जाता है और फिर उस पानी को सिंचाई के बदले कारखानों की तरफ झोंक दिया जाता है जबकि सिंचाई के छोटे छोटे साधनों से सिंचाई करने से एक तो लागत कम आती है और दूसरा समय पर सिंचाई भी हो जाती है।
ऐसा लगता है कि भारतीय राजनेता, प्रषासनिक अधिकारी, इंजिनीयर और ठेकेदारों का एक बड़ा समूह है जो विपरीत अनुभवों और प्रमाणों के बावजूदभी बड़े बांधों और बड़ी सिंचाई परियोजनाओं के लिये अरबों रूपयों का बजट स्वीकृत करवाने में कामयाब रहता है क्योंकि इनसे करोड़ों रूपयों की दलाली करने का मौका मिलता है।
यहां पर दो बातें स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आती है कि देष में हर साल बड़ी सिंचाई परियोजनाओं पर होने वाले हजारों करोड़ रूपयों से शुद्ध सिंचित क्षेत्र में कोई वृद्धि नहीं हो रही है और दूसरी बात है कि शुद्ध सिंचित क्षेत्र में वास्तविक वृद्धि भू-जल से हो रही है और भू-जल ही सिंचित खेती की संजीवनी है। अगर गलत प्राथमिकताओं से निकलकर बड़ी व मध्यम सिंचाई परियोजनाओं पर पैसा र्खच करने की बजाय मौजूदा अधोसंरचनाओं की मरम्मत व विकास, जलाषयों में गाद कम करने के उपाय, वर्षा जल के संरक्षण व संचयन को प्रोत्साहन देना बेहतर है जिससे पीने के पानी और सिंचाई के पानी दोनों में समंवय बनाकर देष को पानी के भीषण संकट से उभारा जा सकता है।

(दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण के 3 जुलाई 2010 के अंक में प्रकाशित.)

बुधवार, 30 जून 2010

क्रांति

हरिराम: क्रांति क्या है गुरुदेव ?
गुरु: क्रांति एक चिड़िया का नाम है हरिराम.
हरिराम: वह कहाँ रहती है गुरुदेव ?
गुरु: वह चतुर लोगों कि जुबान पर और सरल लोगों के दिल में.
हरिराम: चतुर लोग उसका क्या करते है ?
गुरु: चतुर लोग उसकी प्रशंसा करते है, उसके गीत गातें है और समय आ जाने पर उसे चबा जातें है.
हरिराम: और सरल लोग उसका क्या करतें है ?
गुरु: वह उनके हाथ कभी नहीं आती.
असगर वजाहत
(उद्भावना के अगस्त 2004 के अंक में प्रकाशित )

मंगलवार, 29 जून 2010

ON KHAP PANCHAYAT AND IT’S HONOR -- Moggallan Bharati

“The love of the intellectuals Indians for the village community is of course infinite if not pathetic…What is the village but a sink of localism, a den of ignorance, narrow mindedness and communalism?”
Dr. B. R. Ambedkar, during Constitutional Assembly Debates, 1948.
That what Ambedkar said in the year 1948, and that’s what still is the state of affairs in India’s villages where "institutions" such as Khap/Caste Panchayat not only exist and flourish but are also being nurtured by the political class of our country. Dr. B. R. Ambedkar was of the firm view that the village in India forms the social unit of society which thereby requires going through a profound social change. However, the Indian society in general and its countryside in particular, as it today, never witnessed the unfolding of the process of enlightenment. The project of enlightenment in this country was a nonstarter from the day one. Hence, as the consequences we still see continuance of these caste panchayats to follow a certain "code" which is an unwritten law for them, through which they save and defend their "honour" and in the process going to the extent of murdering people for the sake of this "honour", of course with the sanction of their whole community.


What is this "honour" which these Caste Panchayats try to "save" and what is so very important in this honour that they shamelessly claim pride for? And what on earth gets them into such acts of frenzy - killing people - even young men and women in order to defend this honor? Answers to these questions are not simple and unilinear but are quite complex. In other words, in order to answer these question one has to look at at how caste, class and gender operates in rural and indeed in many parts of urban India.


A Khap is a fairly old system of social administration in the villages of Northwestern India covering Rajasthan, Punjab, Madhya Pradesh, Haryana, NCR, and parts of Western Uttar Pradesh. A unit of khap takes care of the social affairs of almost 84 villages from the same caste. It has also been mentioned in some news reports that Khaps Panchayat plays an important role in regulating the society, for example in some instances Khaps have been able to prohibit consumption of liquor. They help in regulating the society in a ‘certain’ way which keeps the traditions intact and thus helps in strengthening the ‘bhaichara’ (brotherhood) among the community. Having said that, lets see what Khaps really are and why do they still exist, in these times of atleast formal democracy in India. Khap Panchayats are the self proclaimed arrangement of caste lords in a village and enjoy full legitimacy and authority among the sections of their caste - community. Among their briefs - the most primal of which is the custodianship of "honour", is to order brutal maiming, lynching or even killing couples who marry either in the same gotra (there can be numerous gotras within a caste) or who "indulge" in inter caste marriage. While in the former, that is marrying in same gotra, the "logic" purported is that the couple are in fact "brother and sisters" (of the same gotra) and therefore their marrying each other is an assault on their honour (in some cases of this kind, the wife was forced to tie Rakhi on her husband - a simple way to declare a married couple- brother and sister). In the latter kind of honour breach, the punishment is generally simply that of death. The breach of honour is of more serious kind here. The only thing which is left for the Khaps here is, is to discuss the ways to deliver this death to the transgressor.


It is this latter sphere - the absence of sanction to inter-caste marriage - which forms the bed rock of our village society and in its final analysis gives the material conditions for the ‘institution’ like caste/khap Panchayat to survive. It is here in this sphere of contentious /inter-caste marriages that we witnessed the various archaic social factors working behind these caste panchayats. In other words, the caste panchayats are the logical outcome of the caste relations in rural society which derives its authority from defending the honor of a caste group which in turn necessitates the cohesiveness of the same.


Before we further delve upon this issue let’s see what is this whole concept of "honour". Honour or for the Hindi speaking people, izzat is the central reason for the functioning of these caste panchayats. In the popular perception of rural society and as well as in the Hindu scriptures, women are the repositories of this izzat of a community. The greatest danger to this ideology of izzat comes from the woman. In the warped logic of the caste system that dictates terms of life in villages, a female "dishonours" her family/clan/ caste and community by her "shameful conduct". Why is their conduct termed "shameful"? To understand this we should see what Manu, the Law Giver of the codified Hindu caste system writes for women in Manusmriti: (translated)


• II. 213. It is the nature of women to seduce man in this (world). For that reason the wise are never unguarded in (the company of) females.
• IX. 14. Women do not care for beauty, nor is their attention fixed on age; (thinking), (It is enough that) he is a man, they give themselves to the handsome and to the ugly.
• IX. 16. Knowing their disposition, which the Lord of creatures laid in them at the creation to be such, (every) man, should most strenuously exert himself to guard them.
• IX. 17. (When creating them) Manu allotted to women (a love of their) seat and (of) ornament, impure desires, wrath, dishonesty, malice and bad conduct


It is clearly and further stressed in Manusmriti that women should not be made free under any circumstances:

• IX. 2. Day and night women must be kept in dependence by the males (of) their (families), and if they attach themselves to sensual enjoyments, they must be kept under one’s control.
• IX. 3. Her father protects (her) in childhood, her husband protects (her) in youth, and her sons protect (her) in old age; a woman is never for independence.
• IX. 5. Women must particularly be guarded against evil inclinations, however trifling (they may appear); if they are not guarded, they will bring sorrow on two families.


These above verses coupled with other Codes (which must not be seen in their textual isolation) to be observed for caste purity describes the way caste panchayats operates in rural society. It is these archaic laws ingrained in the minds and actions of rural folks which drive them to uphold their caste linkages and force them to have a closer surveillance on the happening marital alliances. Thus, it is the woman who holds the key to the honour of a caste group and it is by not letting the woman to marry beyond the fold of her own caste (in various instances in the same gotra) that these caste panchayats maintain strict endogamy and thus the honour of their caste group and the "purity" of caste itself.


Now, the crucial thing is to understand what hold this archaic set of laws together with set of modern and formal institutions like Panchayati Raj, Judiciary, Police and the larger State. In India the institution of Panchayati Raj or the third tier of the government was introduced with lots of hopes in order to further decentralise the governing process. The larger objective was to give the power to the last person and make him/ her participate in the governing process. In many states this institution is quite vibrant and the enthusiasm of the people from lower rungs has been visible and effective. This decentralization of the government at the grass root level, if not entirely, has certainly brought the partial democratization in village society. But despite this drive of democratization in Villages of India, there are certain questions which really perplex one such as, why is the case that the elected panchayats had a very limited or no role to play in the matters of governance that are otherwise usurped by Khap Panchayats? What is the role of State’s law- enforcing agency in such matters that the Khap Panchayats usurp for themselves and indulge in kangaroo courts dispensing (in)justice? Why is there no movement or even noise by the political parties (with an obvious exception of the Left, particularly the CPI(M) taking up this issue) on the brutal violence perpetrated by the dictates of Khaps? Answer to such questions needs closer study of caste society and its relation with the day-to-day politics in the modern Indian state.


It can be stated that Khaps are the classic example of patron - clientele nature of Indian politics, where these panchayats have been given political patronage and thus have become immune to constitutional framework of law and order. In Haryana, for example, khaps are the crucial channels to galvanise caste based political mobilisation which becomes so very central to the functioning of every political party, that instead of questioning the very existence of khaps, the Khaps controls the lever of political stability. However, there is some resistance to khaps as well, though in minimalist sense but the resistance is growing. The role of increasing democratisation and opening of new economic opportunities has brought a gradual shift in the power dynamics (an example of this can be seen in rural Haryana) between different caste groups. The rising assertiveness of Dalits – owing to their socio-political movement as well as sections of them coming up as confident, modern individuals – is inevitably leading up to various cases of inter caste marriages and ultimately stiff and violent resistance on the parts of caste panchayats. This section of young people are consistently challenging the idea of such archaic laws and eventually questioning the whole edifice of caste panchayats by defying and discarding the dubious notions of "honour".


To sum it up, two broader propositions can be made for as to why these Khaps still been able to call shots in rural north-western India: Firstly, Caste panchayats are the logical outcome of caste and gender relations in Indian society which in turn is the result of unfinished enlightenment project (primarily movements against Caste and atrocities against women) whereby these panchayats enjoys not merely political support but also drives the local politics. And secondly, the patronization of khaps by the political parties is in turn the result of the hegemonisation of caste relations over the polity, where by the political actors themselves firmly believes and support institution like Khaps and its action too. Thus, it’s a vicious circle of caste relations, polity, and the absence of anti caste movements in the first place which gives life to khap panchayats and proves to us that without the actualization of broader social change monsters like Khaps will not only smile on the face of ‘emerging’ India but will thrive and be defended by the gatekeepers of Indian Polity.

( Writer is research scholar in J.N.U.

रविवार, 27 जून 2010

भूमाफियाओं का जाल

तीव्र गति में बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण जमीन को लेकर पूरे देष में मारा मारी चल रही हैै। रोजगार के अवसरों की कमी, खेती की पैदावार में गिरावट और प्राकृतिक प्रकोपों की वजह से लगातार गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ रहा है। इन पलायन करने वालों में मजदूर से लेकर छोटे व्यापारी और षिक्षित युवा वर्ग भी शामिल है। शहरों में सीमित संसाधनों की वजह से रहने के लिये जमीन का अभाव हो रहा है, ऐसी स्थिति में छोटे से लेकर बडे शहरों तक भूमाफियाओं के जाल बिछे हुए है जो अवैध रूप से रोज करोड़ों की जमीन पर कब्जा करते हैं। जमीन पर कब्जा करने वाले इन भूमाफियाओं के बड़े-बड़े गिरोह है, जिनमें वो बेरोजगार युवक भी शामिल है जिनकी आमदनी का अन्य कोई साधन नहीं होता है। ये दिन भर इसी चक्कर में धुमते रहते है कि कौन सी जमीन का मालिक कहां रहता है और उसकी स्थिति कैसी है यानी उसके स्टेटस का पूरा बायोडाटा इनकी खोज का विषय होता है। इसी के तहत ये माफिया ईज्जत और शोहरत पाते है जिसे देखकर छोटे शहरों के युवा उसी रास्ते पर चलने की ठान लेते हैं। यह तो इनका प्राथमिक व्यवसाय है उसके बाद सड़क के ठेकों से लेकर राजनीति तक के ठेके इनकी बायीं जेब में पड़े रहते है। अगर इनके कब्जे करने के तरिकों को देखा जायंे तो साफ समझ में आता है कि प्रषासन का भी उसमें हाथ हैं। नकली रजीस्ट्री और किसी भी जमीन पर रात भर में मकान खड़ा कर देता बिना प्रषासनिक मिली भगत के सम्भव ही नहीं हो सकता। कानून से बचने के भी इन्होने अनोखे तरिके निकाल रखे है, बहली बात तो ये किसी को मारते नहीं केवल आम जनता में भय फैलाये रखते है और अगर कोई गलती से मर भी जाता है तो उस अपराध को किसी दूसरे के सर पर डाल देते, जो लोग वो पहले से ही तैयार रखते है। बड़े-बडे़ भूमाफियाओं के तार राजनीतिक रूप से भी मजबूत होते है क्योंकि ये नेताओ की कमाई के साधन भी है और जनता में भंयकर रूप से भय बनाये रखते है जिनका राजनीतिक फायदा भी उठाया जाता है, इस तमाम उठापटकों में नुकसान जनता को ही मिलता है। राजनीति में पकड़ होने की वजह से सरकारी जमीन पर भी बड़े पैमाने पर कब्जा हो रहा है, धर्म के नाम पर भी सैंकडों एकड़ जमीन पर तथाकथित बाबों द्वारा कब्जा करना जारी है, इस खेल में सरकारी अधिकारीयों से लेकर राजनेताओं तक की सांझेदारी होती है। पुलिस भूमाफिया गठजोड़ तो इतना मजबूत है कि जिले में आने वाला हर अधिकारी इनसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध रखता है, जब इस गठजोड़ के बीच आपस में खिंचातानी हो जाती है तब जाकर कहीं मामला सामने आता है। हर जिले से लेकर पूरे देष में भूमाफियाओं का जाल इतना फैला हुआ है कि रोज ऐसी घटनाए सामने आ रही है मगर सरकारें फिर भी चुप है, इनके खिलाफ कानून बनाकर सजा देने के बजाय शह दीये जा रही है, अवैध धंधों से आने वाले काले धन का कोई हिसाब न तो आयकर विभाग के पास है और न ही पुलिस प्रषासन के पास। कानूनी प्रक्रिया के जटिल और खर्चीली होेने के कारण आम इंसान इस जुल्म को सहता रहता है। धन बल के आधार पर ये माफिया फिर राजनीति में आ जाते, जनता को डर दिखा कर वोट ले लेते है फिर तो पूरे पांच साल लूटने का लाइसेंस ही मिल जाता है। अगर इस बात की जांच हो कि देष के सता के गलियारों में बैठे हुये लोगों में से कितने माफिया है या माफियों से उनके तार जुड़े हुए है, तब गंभीर परिणाम देखने को मिलेंगे। आजकल इन भूमाफियाओं का निषाना जंगल और बंजर पड़ी हुई जमीन है, जंगलों पर लगातार हमले करके वहो रहने वाले आदवासीयों का जीना दुभर कर दिया है। इनके अलग अलग गुट होतें जिनका अलग अलग राजनीतिक दलों से तालुक होते है, इसी कारण कभी कभी इन गुटों के मध्य लड़ाई झगड़े भी सामने आते है जिससे एक विषेष प्रकार का भय व्याप्त माहौल बन जाता है और इन्हीं झगड़ों का बखान लम्बे समय तक करके अपनी गेंग बनाये रखते है। फिर खुद की छवी को राजनीति के सांचे में फिट करने के लिये ये समाज सेवा का ढ़ोंग रचते है क्योकि इससे एक तो आसानी से काले धन को सफदे मुद्रा में बदला जा सकता है और चुनाव जीतने में भी आसानी रहती है। ऐसे लोगों से जन सेवा की आषा नहींे करना चाहिए। अगर हमें देष के लोकतंत्र को बचाना है तो ऐसे लोगों को राजनीति में आने से रोकना होगा, चाहे वो किसी भी दल या विचाराधारा के क्यों न हो।

रविवार, 20 जून 2010

गुरु चेला संवाद-2

गुरु-- "चेला, हिन्दू-मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते।"
चेला-- "क्यों गुरुदेव?"
गुरु-- "दोनों में बड़ा अन्तर है।"
चेला-- "क्या अन्तर है?"
गुरु-- "उनकी भाषा अलग है...हमारी अलग है।"
चेला-- "क्या हिन्दी, कश्मीरी, सिन्धी, गुजराती, मराठी, मलयालम, तमिल, तेलुगु, उड़िया, बंगाली आदि भाषाएँ मुसलमान नहीं बोलते...वे सिर्फ़ उर्दू बोलते हैं?"
गुरु-- "नहीं...नहीं, भाषा का अन्तर नहीं है...धर्म का अन्तर है।"
चेला-- "मतलब दो अलग-अलग धर्मों के मानने वाले एक देश में नहीं रह सकते?"
गुरु-- "हाँ...भारतवर्ष केवल हिन्दुओं का देश है।"
चेला-- "तब तो सिखों, ईसाइयों, जैनियों, बौद्धों, पारसियों, यहूदियों को इस देश से निकाल देना चाहिए।"
गुरु-- "हाँ, निकाल देना चाहिए।"
चेला-- "तब इस देश में कौन बचेगा?"
गुरु-- "केवल हिन्दू बचेंगे...और प्रेम से रहेंगे।"
चेला-- "उसी तरह जैसे पाकिस्तान में सिर्फ़ मुसलमान बचे हैं और प्रेम से रहते हैं?"
असग़र वजाहत

गुरुवार, 17 जून 2010

अनकहा सच

हमारे समय का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि जो सच है वो कह नहीं पातें है और जो कहते है वो सच नहीं है. नहीं कह पाने और जो कहते है उसके बिच में इतना बड़ा फासला है कि उसको समझने के लिए उन तत्वों को समझना जरूरी है जो सच पर पर्दा डाल देते है. असल में हमारे समाज में बहुत बड़ा विरोधाभाष है कि हमें नेता तो चाहिए टाई बांधने वाला और बड़ी बड़ी गाड़ियों में चलने वाला मगर हम उससे यह भी आशा करते है कि वो गरीबो और समाज के पिछड़े लोगों के बीच में आकर उनकी समस्याओं को सुने और समाधान निकाले. यह कैसे संभव है? क्यूंकि न ही तो जनता उससे खुद को जोड़ पायेगी और न ही वो नेता उनकी समस्याओं को समझ पायेगा. लोकतंत्र में इसका तीसरा विकल्प भी तलाशा गया और उस तीसरे विकल्प में है कि एक ऐसा वर्ग तैयार किया गया है जो भाषा तो नेता और जनता दोनों कि समझाता है मगर उसका चेहरा दोनों से ही मेल नहीं खता है. बिना जनता कि बहुमत के वो सता के तमाम सुख भी भोगता है और बिना एक कांटा निकाले जनता का सेवक भी बन जाता है. आप इसे दलाल भी कह सकते है . सडकों से लेकर संसद तक तमाम ठेके इसके नाम पर ही अलोट होते है और आप यह भी जानते होंगे कि देश के तमाम काम आजकल ठेकों पर चल रहे है. यह ठेकेदार विभिन्न रूप में हमारे समाज में मौजूद है , अमेरिका से लेकर नारनोल तक इसके चेले छपते लोग बैठे हुए है . हम सब इन दलालों को जानते है और चुप भी है. घर बैठ कर आराम से तमाम राजनैतिक (जिनकी कोई नैतिकता नहीं है) पार्टियों को गली भी देते रहते है और चुनाव के समय आँख बंद कर ठपा( आजकल बटन) भी लगा देतें है. कैसा समय है और कैसे कैसे लोग है कि चारों और शोर है फिर भी एक छुपी सी लगती है.

शनिवार, 12 जून 2010

गहलोत बजट: पुराने ढर्रे पर

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने 2010-11 के बजट को पेश कर फिर से अपनी पुरानी छवि दर्शा दी। यह एक ऐसा मौका था जब भाजपा आंतरिक कलह से जूझ रही थी और गहलोत लोक हितकारी बजट पेश करके बाजी मार सकते थे। मगर बजट को देखने से साफ जाहिर होता है कि इस बजट में आम आदमी को किसी प्रकार की राहत देने के बजाय बिजली पर दस पैसे प्रति यूनिट का सरचार्ज लगा दिया है। एक ओर तो किसानों को आठ घंटे भी बिजली नहीं मिलती है, ऊपर से 10 पैसे प्रति यूनिट सरचार्ज।
राज्य में लगभग 7372 गांवो पर अकाल का साया मंडरा रहा है और बजट में राहत के नाम पर किसानों को फूटी कोड़ी तक नहीं मिली है। साथ ही कृषि क्षेत्र में नए कनेक्शन के लिए करोड़ो रुपए सरकार ने पहले ही किसानों से जमा कर रखे हैं, मगर अभी तक कनेक्शन देने की कोई घोषणा नहीं की गई है। इस बजट में वैट की न्यूनतम दर भी 4 फीसदी से बढ़ाकर 5 फीसदी कर दी गई है जिसके कारण वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोतरी होगी। मंहगाई के इस दौर में वैट दर में 1 प्रतिशत की वृद्धि परोक्ष रूप से मंहगाई को बढ़ावा देने वाली है। आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार अगर यह दर लागू हो जाएगी तो 100 आम जरूरतों की वस्तुओं में वृद्धि होगी जिससे आम आदमी के जीवन पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ेगा। राज्य के 2010-11 के बजट में साफ जाहिर है कि मुख्यमंत्री ने किसानों व आम जनता के बजाय व्यापारिक वर्गों की सुध ली है उन्हे टैक्स के सरलीकरण की सुविधा के साथ-साथ टैक्स टर्नओवर 10 लाख रुपए से घटा कर पांच लाख रुपए करने जैसी छुटें प्रदान की हैं। हालांकि युवा वर्ग के लिए कुछ जिलों में स्वरोजगार प्रशिक्षण देने की घोषणा की गई है मगर लाखों युवा वसुंधरा सरकार की तरह एकमुश्त भरती का सपना देख रहे हैं, जिसका इस बजट में कोई नामोनिशान नहीं है।
एक प्रकार से देखा जाए तो यह बजट गहलोत के पिछले बजटों से मिलता जुलता ही है जब मंहगाई व बेरोजगारी का स्तर कम था। राजस्थान के एक पिछड़ा राज्य होने के नाते अगर इस बजट को देखा जाए तो एक अलग सी घोषणा दिखाई देती है, वो घोषणा है कि गुर्जरों समेत चार समुदायों के छात्रों के लिए इस बजट में 25 करोड़ रुपए का पैकेज दिया गया है। इस पैकेज के पीछे भी गुर्जर आंदोलन व राजनैतिक इच्छाओं के संकेत हैं। राज्य की अधिकांश जनता कृषि पर निर्भर है और बहुत बड़े हिस्से पर इस साल अकाल है, मगर अकाल के लिए कोई घोषण व पैकेज इस बजट में नहीं दिखाई देता है। पहले राजस्थान में एक आम धारणा बन गई थी कि जब राज्य सरकार एक पार्टी की होती है तो केन्द्र सरकार दूसरी पार्टी की होती है, अतरू राजस्थान केन्द्र से उचित फंड हासिल नहीं कर पाता है मगर 2010-11 के बजट ने इस धारणा को चकनाचूर करके रख दिया है क्योंकि राज्य व केन्द्र दोनो में ही कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकारें हैं, फिर भी बजट की स्थिति देखें तो इससे अच्छा बजट इस बार नितिश कुमार का रहा है।

बुधवार, 9 जून 2010

दक्षिण एषिया जल विवाद- सियासी चाल

एषिया महाद्वीप में दक्षिण एषिया की राजनीतिक स्थिरता एक महत्वपूर्ण अध्याय है क्योंकि यह क्षे़त्र प्राकृतिक व राजनैतिक रूप से सम्पूर्ण एषिया की धूरी है। ऐसी स्थिति में दक्षिण एषिया की हर राजीतिक हलचल का प्रभाव एषिया और विष्व राजनैतिक धरातल पर नजर आता है। इस क्षेत्र में पानी विवाद एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जो समय समय पर उभरकर सामने आया है। एक ओर बढ़ती जनसंख्या और घटते प्राकृतिक संसाधन है, तो दूसरी ओर उचित जल प्रबंध नीति का अभाव है। इस पूरे परिदृष्य में पानी विवाद अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तरों पर अलग अलग संघर्षों का रूप लेता दिखाई देता है।
फिलहाल दक्षिण एषिया के सात देषों में से तीन के साथ भारत का पानी का विवाद है जो कभी शांत हो जाता है तो कभी युद्ध जैसी स्थिति तक पहुंच जाता है। भारत की आजादी के बाद से ही पाकिस्तान व नेपाल के साथ पानी के बंटवारे को लेकर नोक झोक होती रहती है। जब बंग्लादेष का उद्भव हुआ उसके साथ ही गंगा और ब्रह्मपुत्र के पानी के बंटवारे को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया।
अगर भारत पाकिस्तान के पानी विवाद पर नजर डालें तो 1960 में दोनों देषों के सिंध ुजल समझौता हुआ था जिसके तहत रावी, सतलज और व्यास भारत के हिस्से में आयी थी और सिंघु, झेलम और चिनाब पाकिस्तान के हिस्से में आयी थी। इस बंटवारे के बाद भी विवाद का हल नहीं हुआ और सिंघु नदी पर बने आयोग ने अभी तक 118 दौरे और 103 मीटिंगें हो चुकी है, विष्व बैंक से भी मध्यस्थता करवा ली लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला क्योंकि न तो दोनों सरकारें चाहती की इसका कोई हल निकले, जब पाकिस्तान में कोर्ठ आंतरिक अषांति होती है तब पहले तो कष्मीर के मुद्दे पर जनता को गुमराह किया जाता था लेकिन कष्मीर के मुद्दे से पाकिस्तान की जनता तंग आ गई इसलिये अब पानी के सवाल पर जनता को भटकाने की पाकिस्तान सरकार का नया ऐजेंडा है, यही हाल भारत का है। इन दोनों के बीच तीसरा अभिनेता अमेरिका जो कभी नहीं चाहता कि भारत पाक विवाद सुलझे क्योंकि दक्षिण एषिया में यह विवाद अमेरिका की विदेष नीति की कूटनीतिक सफलता के लिये अबूझ हथियार है। इसलिए वो विष्व बैंक के माध्यम से पानी विवाद को इधर उधर भटकाता रहता है। लेकिन अमेरिका प्राकृतिक संसाधनों को हड़पने की मुहिम में अब पानी पर भी नजर गड़ाए हुए है।
दक्षिण एषिया में पानी को लेकर विवाद इसलिए भी है कि यहां कि अधिकांष अर्थव्यवस्थायें कृषि पर निर्भरता रखती है। जिसके कारण नदीयों का पानी सिचाई का एक बहुत बड़ा साधन है। निजीकरण की इस दौड़ में प्राकृतिक संसाधनों का बेरहमी से दोहन हो रहा है और ऐसी स्थिति में राज्यों का आपस में लड़ना कोई नई बात नही है मगर भारत का पानी विवाद न केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर है बल्कि आंतरिक स्तर पर भी पानी विवाद एक बहुत बड़ी समस्या है, राजस्थान, हरियाणा, मध्यप्रदेष आदी राज्यों में भी पानी का विवाद एक बड़ा विवाद है जिसके बारे में सरकारीया आयोग ने भी सिफारिष की थी कि राज्यों के पानी विवाद को निपटाने के लिये केन्द्र को न्यायधिकरण स्थापित करना चाहिए मगर राजनीतिक स्वार्थों के चलते केन्द्र द्वारा ईमानदारी से किसी विवाद को निपटाने की जगह उसको रफा दफा कर दिया जाता है।
पिछले दिनों खबर आयी थी कि चीन ब्रह्मपुत्र को मोड़ने की कोषिष कर रहा जो भारत के लिए खतरनाक होगी और चीन ऐसा कर भी सकता है जो पिछले अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है। भारत पाकिस्तान का विवाद पानी की कमी के कारण होता है जबकि भारत नेपाल पानी विवाद इसके उल्टा है क्योंकि हर साल भारत नेपाल पर यही आरोप लगाता आ रहा है कि नेपाल के पानी छोड़ने से बाढ़ आ गयी और बिहार का बहुत बड़ा हिस्सा तबाह हो जाता है। दरअसल इस बाढ़ का जिम्मेदार नेपाल नहीं भारत खुद है क्योंकि कोसी नदी पर बने बांध के रखरखाव की जिम्मेदारी भारत की है। मगर दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि आजादी के 63 साल बाद भी एक तरफ हर साल बाढ़ आती है और एक तरफ अकाल के कारण लोग मर रहे है, इन सब के पीछे एक बड़ा कारण यही है कि उचित जल प्रबंध नीति हम अभी तक विकसित नहीं कर पाये है। नेपाल की तरफ से यह बात बार बार उठाई जाती है कि 1950 की भारत नेपाल संधी पर पुनर्विचार किया जाये, अगर सही मायने में देखा जाये तो समय के साथ परिस्थितियां व जरूरतें बदल जाती है और ऐसी स्थिति में संधी पर पुनर्विचार में कोई हर्ज नहीं है। हाल ही में भिखनाठोरी में नेपाल द्वारा पानी रोकने के मामले ने भारत को सोचने पर मजबूर कर दिया है, भिखनाठोरी नेपाल सीमा पर एक गांव है जो पास से ही पानी का उपयोग करता था जो नेपाल की सीमा में आता है, बस नेपाल ने पानी बंद कर यिा।1990 के दषक में महाकाली नदी को लेकर विवाद गहराया था जो अंतर्राष्ट्रीय दवाब के बाद सुलझ पाया था। वर्तमान प्रासंगिकता को देखते हुए संधी पर बातचीत करके समस्या का हल निकाल लेना चाहिए।
भारत और बंग्लादेष के बीच पानी का विवाद गंगा नदी को लेकर ज्यादा है जिसके पीछे बंग्लादेष का तर्क होता है कि उसे उचित पानी नहीं मिल पाता है और जो मिलता है वो भी दुषित। फरक्का बैराज को लेकर पहले पाकिस्तान के साथ भारत का विवाद था और जब बंग्लादेष का उदय हुआ तब से भी उसी रूप में बना हुआ है। बंग्लादेष की अर्थव्यवस्था भी कृषि पर निर्भर और सूखे व अन्य कारणेंा से पानी में कटोती होती है तो बहुत हद तक बंग्लादेष की अर्थव्यवस्था गडा़बड़ा जाती है, इस मामले को लेकर बंग्लादेष संयुक्त राष्ट्र संघ व विष्व बैंक की भी मध्यस्थता करवाई है लेकिन जब तक दोनों पक्ष कोई एक राय नहीं बना सकते तब तक हल मुष्किल है।

इस समय दक्षिण एषिया दुनिया का सबसे अस्थिर क्षेत्र माना जाता है क्योंकि ये क्षेत्र भूराजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है इसलिय एक तरफ अमेरिका नजर गड़ाये हुए है और दूसरी तरफ चीन भी पाकिस्तान से नजदीकीयां बढ़ाकर खुद को दक्षिण एषिया की राजनीति में शामिल करना चाहता है। अब स्थिति यह कि पानी को लेकर पाकिस्तान बढ़ा विवाद खड़ा करने की फिराक में है क्योंकि एक तो कष्मीर का मामला अब दम नही पकड़ने वाला है और दूसरा अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के सामने खुद को साफ दिखाने के लिये इसका सहारा ले सकता है। अतः भारत को भी सचेत रहना चाहिए लेकिन 2002 में बनी जल नीति में पानी के मालिकाना हक नीजि कम्पनियों को दे दिया जो नवउदारवादी नीतियों के तहत जल, जमीन और जंगल छिनने के एजेंडे की बड़ी सफलता है। दक्षिण एषिया का भविष्य पानी पर टिका हुआ है जिससे लगातार खिलवाड़ किया जा रहा है ऐसी स्थ्तिि में सार्क जैसे संघठनों को इन विवादों को सुलझाने में पहल करनी चाहिये क्योंकि बाहर का कोई यहां शांती चाहता ही नहीं है, चाहे अमेरिका हो या चीन।

सोमवार, 7 जून 2010

शिक्षा का अधिकार: चंद सवाल

जब देश का संविधान बनाया जा रहा था तो डाॅ. भीमराव अम्बेडकर से संविधान सभा के एक सदस्य ने अनुरोध किया था कि प्रस्तावित अनुच्छेद 45 में 14 साल की उम्र तक के बच्चों को मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा के वादे को घटाकर उम्र 11 साल कर देनी चाहिए क्योंकि भारत एक गरीब देश है और आधारभूत सुविधाओं का अभाव है लेकिन अम्बेडकर ने इस तर्क को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि हमें उम्र घटाने के बजाय गरीबी को मिटाना चाहिये। मगर दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि आज आजादी के 62 सालों बाद भी भारतीय समाज में शिक्षा और गरीबी के स्तर में कोई खास बदलाव नहीं आया। भारतीय समाज में शिक्षा के निम्न स्तर के दो कारण है। एक तो भारतीय शिक्षा पद्धति पर जबरन वैश्वीकरण का लिबास डाला गया और दूसरा शासक वर्गों ने शिक्षा पद्धति को जिस तरह से अंतर्राष्ट्रीय स्तर देने के कोशिश की उसके लिये भारतीय समाजीक ढ़ांचा आधारभूत तैयार नहीं था।
जब 2002 में 86 वें संविधान संशोधन द्वारा शिक्षा के अधिकार को अनुच्छेद 21 क में जोड़ा गया तो बहुत से सवाल थे जो इस अधिनियम को कठघरे में खड़ा करते है। अगर कुछ समय के लिये मान लिया जाये कि सरकार ने बहुत अच्छा कानून बनाया है जिसमें 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिये मुफ्त शिक्षा की बात कही गयी है तो उस उन्नीकृष्णन फैसले का क्या होगाा ? जिसमें कहा गया है कि 6 वर्ष तक की उम्र के हर बच्चे को संतुलित पोषाहार, स्वास्थ्य पोषणहार, स्वास्थ्य देखभाल और प्राथमिक शिक्षा का अधिकार था। सवाल सिर्फ मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा तक ही सीमित नहीं है, मुख्य सवाल है शिक्षा में गुणात्मक परिवर्तन का, क्योंकि आज बेरोजगारी की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया मगर रोजगार के अवसरों के सृजन की तरफ सरकार का कोई ध्यान नहीं है। गावों में कृषि की बिगड़ती हालत और सता की उदासीनतों के कारण लोगों को मजबूरी में शहरों की ओर पलायन करना पड़ रहा है लेकिन सरकार के पास न गावों की स्थिति को बेहतर बनाने की ठोस योजना है और न ही शहर में उचित सुविधा व रोजगार के अवसर। ऐसी स्थिति में गावों में बच्चे माता-पिता के साथ खेत के काम में हाथ बंटाते है और शहर में बाल मजदूरी के जाल में घर का खर्चा चलाने में हाथ बंटाते है। जब तक उनके माता-पिता के रोजगार व सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित नहीं किया जाता तब तक उनके पढ़ने का सवाल ही नहीं उठता। ऐसी शिक्षा से देश के विकास में कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं हो सकता है क्योंकि बच्चा जब मानसिक रूप से स्वतंत्र नहीं हो, तब तक पढ़ने में मन कैसे लग सकता है ?
अब सरकार यह दिखाने की कोशिश कर रही है कि वह शिक्षा को लेकर बहुत ही चिंतित है लेकिन अगर शिक्षा पर किये गये खर्चे को देखा जाये तो सच्चाई साफ हो जाती है। शिक्षा के खर्च का मुल्यांकन करें तो 1992 के नवउदारवादी नीतियां अपनाने के कारण शिक्षा पर खर्च लगातार घटाया जा रहा है। 2001 में जी. डी. पी. का 3.19 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया गया और 2007 में यही खर्च घटकर 2.47 प्रतिशत रह गया है। दुनियां में शिक्षा पर खर्च करने वाले देशों में भारत का स्थान 115 वां है। एक तरफ दुनियां के विकसित देश खर्चा बढ़ा रहे है, वहीं भारत शिक्षा के खर्च को घटा रहा है। तथ्य यह है कि किसी भी देश के लिये शिक्षा से अच्छा अन्य कोई निवेश का रस्ता नहीं होता है। इस विरोधोभास की स्थिति में कपिल सिब्बल साहब गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रहे हैं कि शिक्षा का अधिकार विधेयक देश की शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परीवर्तन कर देगा मगर सच्चाई यह है कि सरकार जनता को गुमराह कर रही है। क्योंकि अभी तो देश की शिक्षा व्यवस्था का आधारभूत ढ़ांचा ही सही ढ़ग से विकसित नहीं कर पाये है। आंख खोलकर देखा जाये तो ग्रामीण भारत के बहुत सक ऐसे गांव मिल जायेंगे, जहां पर सरकारी कागजों में तो स्कूल है और अघ्यापक भी तनख्वाह उठातें है मगर इमारत के नाम पर बच्चे पेड़ के निचे बैठकर पढ़ते है। कहीं पर अध्यापक नही ं है तो कही पर 100 बच्चों पर एक अध्यापक है। ऐसी स्थिति में जनता का सरकारी स्कूलों से विश्वास ही उठ गया है। एक तरफ सरकारी स्कूलों की हालत दिन प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है और वही दूसरी तरफ सरकार शिक्षा के क्षेत्र में नीजिकरण को बढ़ावा देती जा रही है। नीजिकरण की इस अंधाध्ुंाध दौड़ में गली-गली में प्राइवेट स्कूल खुल गये है, जिनकी आसमान छूती फीस गरीब आदमी नही सहन कर पाता और सरकारी स्कूलों की बिगड़ती हालत के कारण मजबूरी में बच्चों को प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना पड़ता है, जहां पर पढ़ाई कम कागजी कार्यवाही ज्यादा होती है। जिस देश में 70 प्रतिशत लोग 20 रूपये प्रतिदिन की आय पर गुजारा करते है, वहां पर प्राइवेट स्कूल में कोई कैसे अपने बच्चों को पढ़ा पायेगा।
शिक्षा का मतलब सिर्फ अक्षर ज्ञान नही होता, शिक्षा का मतलब होता है मनुष्य का शारीरिक, मानसिक और सर्वांगिण विकास मगर हमारे हुक्मरानों को यह बात समझ में नही आती शायद। अब अगर उच्च शिक्षा की बात करें तो ऐसी ही स्थिति है, न पर्याप्त शोध के साधन है और न ही अवसर। पिछले दिनों 144 फर्जी विश्वविधालयों के मामले ने फिर से सरकार को चुनौती दी है कि शिक्षा के नाम पर इस देश में बहुत बड़ी दलाली चल रही है जो न केवल उच्च शिक्षा में बल्कि प्राथमिक शिक्षा के स्तर स्थिति ओर भी भयानक है। सरकार विदेशी विश्वविधालयों को भी भारत में लाने की फिराक में है मगर जब देश के विश्वविधालयों की विश्वनीयता पर सवाल खड़ा होता है तब विदेशी विश्वविधालयों पर कैसे विश्वास किया जायेगा, आखिर भारत में केम्ब्रीज व आॅक्सफोर्ड तो अपनी शाखाएं खालने नही जा रहे है।

वैसे भी समान व स्तरीय शिक्षा उपलब्ध कराने का दायीत्व सरकार का है लेकिन भारतीय लोकतंत्र में यह अधिकार भी 63 साल बाद दिया गया और उसमें भी शिक्षा की गुणवता के बारे में कोई ख्याल नहीं किया गया है। खैर, जनता को दे दिया- एक ओर लोलीपोप।

शनिवार, 5 जून 2010

मंटो को खत

सुबह उठते ही मुझे याद आया कि आज तो 11 मई है, उर्दू के महान कथाकार सहादत हसन मंटो का जन्मदिन है। मंटो का ख्याल आते ही ‘टोबा टेक सिंह’ से लेकर ‘ठंडा गोस्त’ तक यानी पूरा मंटो मेरे सामने खड़ा हो गया, बिल्कुल होषोहवास में। मुझे तो भरोसा ही नही हो रहा था कि मंटो जैसा बिंदास आदमी बिना पीये आज ख्याल में कैसे आ गया? इस सवाल का जवाब मैंने खुद ही तलाषा क्योंकि तब तक मंटो मेरे ख्याल से जा चुका था, शायद कड़वी शरबत पीने। उर्दू का सर्वाधिक विवादित और चर्चित लेखक मंटो कि पहचान थी कि उसके साहित्य में कुछ भी बनावटी नहीं था, जो समाज में देखा उसे बेझिझक और बिना डरे हुए सपाट तरिके से बयां किया। समाज का झुठा गिलाफ उधेड़ने के बदते में उसे वो सब भी सहन करना पड़ा जो शायद लीक से हटकर न लिखता तो नहींे सहना पड़ता और वो ही उसकी पहचान है। वो वक्त भी ऐसा वक्त था जब हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दो अलग अलग मुल्क बन रहे थे, बेहिसाब लोग मारे जा रहे थे ओर मंटो जैसी बैचेन रूंह अमन के रास्ते ढूंढ़ रही थी। न इधर कोई हुकूमत थी न उधर, अब आप ही बताये कि ऐसा आदमी जो सोचने का काम दिमाग से नहीं दिल से करता हो वो इन परिस्थितियों में होष में कैसे रह सकता है? लेकिन वो ही अकेला होष में था बाकि सब होष खो चुके थे, मर रहे थे और मार रहे थे- इधर से भी, उधर से भी। मंटो ने जिस भी विषय को उठाया, उसकी गहराई तक जाकर, बड़ी ही बारकी से हर पहलू को उकेरा। कभी कभी लगता है कि मंटो असल में एक ऐसा कहानीकार था जो कहानी के हर पात्र के दिल और दिमाग को पकड़ता था। उसके साहित्य में खुबसुरत शब्दों की कमी थी लेकिन मानवीय मनोविज्ञान से वो ऐसा परिदृष्य गढ़ देता है कि पाठक को मानसिक रूप से झकझोर देती है। मंटोे के साहत्यि की विषय, शैली, प्रवृति और विविधता उसे दक्षिण एषिया का प्रतिनिधि कथाकार बना दिया, ‘टोबा टेक ंिसंह’ तो विष्व कर कालजयी रचनाओं में शामिल है। अष्लीलता के आरोप में मंटो पर कई मुकदम भी चले मगर पाठक मंटो का कायल था और आज भी है। जब भी कुछ पढ़ने का मन न करे मंटो को उठा लीजिये, हर बार कुछ नया मिल ही जायेगा। जो लोग उस वक्त मंटो को अष्लील कहते थे, वो तो आज भी कह सकते है क्योंकि समाज में औरत और मर्द के के रिष्तों को लेकर तो अभी भी वो ही मान्यताएं है, चाहे हिन्दुस्तान हो या फिर पाकिस्तान। बस! आज का दिन मंटो की तरह जीना था, सोचा कोई कहानी लिखुं। बहुत सोचा लेकिन कोई विषय वस्तु ही नही नजर आ रही थी। वैसे तो कई विषय थे, जैसे- मेरे गांव की लड़की अपनी ही जात के लड़के से प्रेम कर लिया और उसे जात पंचायत ने मौत की सजा सुना दी, उर्मिला को इसलिये जहर दिया गया कि वो विधवा होकर किसी से संबंध रखती थी, ऐसे अनेक उदाहरण थे जिन पर कहानी लिख सकता था लेकिन मेरे परीवार को उस गांव में ही रहना था। मैं कितना डरपोक हूं और तुम कितने निडर थे। सो, मैंने इस विचार को त्याग दिया और सोचा शहर का ही कोई विषय चुन लेता हूं। एक विषय पर कहानी लिखना भी शुरू कर दिया, हर लाइन लिखकर तेरे से तुलना करता तो कहानी लिखने का इरादा हमेषा के लिये त्याग देता। गजब का आदमी था और लिखने का भी गजब का अंदाज था। कुछ लोग कहते है कि वो तरक्कीपसंद था, कुछ कहते है कि अष्लील था मगर हकिकत तो यह है कि उसे किसी भी सांचे में फिट नहीं किया जा सकता है उसका आकार ही निराला था, जो भी हो वो कलम का सच्चा सिपाही जरूर था। रात के वक्त गंदा पानी पीकर लिखने बैठ गया, कुछ तो लिखना ही था क्योंकि आज मेरे प्रिय कथाकार का जन्मदिन था। जो लिखा वो मंटो के नाम एक पत्र था और उसे बड़ी ईमानदारी से आपके हवाले करता हॅूं-
‘देखो मंटो! मैने आज का पूरा दिन तेरी तरह जीने की कोषिष की है और शायद कुछ हद तक जी भी लिया, तेरी नजर से दुनियां को समझने की कोषिष की और थोड़ा बहुत समझ भी लिया लेकिन जब तेरी तरह से लिखने कि कोषिष की तो तो काली सलवार मेरा पिछा ही नहीं छोड़ रही थी..............अब देख भई! तुने मेरे ख्यालात चुराये है और उनकी किमत तुझे चुकानी पड़ेगी। बतादे यार! कैसे लिखता था तू?’

बुधवार, 2 जून 2010

आधी अँधेरी दुनियां

समाज में चेतना, जागरूकता और षिक्षा फैलाने वाले यंत्र कम होते जा रहे है, जबकि अंधविष्वास और पाखंड नई तकनीक के सहारे बढ़ते जा रहे है। कई सारे टी. वी. चैनलों का उदाहरण दिया जा सकता है जो बिना तर्क व तथ्यों के सुबह से लेकर शाम तक लोगों को मानसिक रूप से विकलांग बनाते रहते है। संचार के माध्यमों का समाज के विकास में बहुत बड़ा योगदान होता है मगर हमारे संचार तंत्र उपभोक्तावादी संस्कृति के षिकार होकर सामाजिक जिम्मेदारीयों से दूर होते जा रहे है। टी. वी. चैनलो पर टी. आर. पी. बढ़ाने के चक्कर में ऐसे प्रोग्राम पेष किये जाते है, जिनका नैतिकता और सामाजिक सरोकारों से कोई लेना देना नहीं होता है। संचार के माध्यमों का उदेष्य केवल मात्र मनोरंजन कराना ही नहीं होता है बल्कि समाज में व्याप्त बुराईयों के प्रति लोगों को जागरूक करना भी होता है। हालांकि कुछ कार्यक्रम सामाजिक विद्रुपताओं पर भी बनाये जाते है, मगर उनकी पैकेजिंग और सृजनात्मक प्रक्रिया बाकि के कार्यक्रमों से निम्न स्तर की होती है जिसके कारण उनमें लोगों की रूची नहीं बन पाती है। मसलन पहले टी. वी. को एक सामाजिक बदलाव के सषक्त माध्यम के रूप में देखा जाता था और वो था भी। लेकिन अब टी. वी. चैनलों पर बाजार का इतना ज्यादा दवाब आ गया है कि वो एक स्वायत निकाय की जगह बाजार का हिस्सा बन गये है। टी. वी. चैनलों को देष की सामाजिक स्थिति में अपनी भूमिका फिर से तय करनी चाहिये ताकि विकास में उनकी सकारात्मक मौजूदगी रहे।

मंगलवार, 1 जून 2010

ये सूरत बदलनी चाहिये

दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि आजादी के 6 दषक बाद भी भारतीय लोकतंत्र में समानान्तर न्यायिक प्रक्रिया ‘खाप पंचायत’ के तहत चल रही है जिसके पिछे एक पूरा इतिहास है। ‘खाप पंचायत’ एक पुरानी सामाजिक प्रषासनिक व्यवस्था है जिसका वर्णन ऋग्वेद में मिलता है, जहां पर जाति या गौत्र का मुखिया चुना जाता था, जिसे ‘चैधरी’ कहा जाता था। पुरूषप्रधान समाज होने के कारण इस पंचायत में स्त्रियों को कोई अधिकार नहीं दिया गया है। मगर कालान्तर में इस व्यवस्था का ‘चैधरी’ का पद जन्मगत हो गया। द्वितिय विष्व युद्ध में इन चैधरीयों ने अंगे्रजों की खूब मदद की तो अंग्रेजों ने जागीरें दे दी। हर गांव में 5-7 गौत्रों के लोग रहते थे जिन्हें ‘भाईचारे का रूप देकर आपस में शादी नहीं करते थे और ये ही पंचायते अब ‘खाप पंचायत’ के तहत युवाओं की स्वतंत्रता पर नकेल कसी जा रही है। यह सब मामला ‘इज्जत’ बचाने के नाम पर किया जा रहा है, जब दुनियां चांद पर बसने के प्लान बना रही है तो भारत में पांच सौ साल पीछे जाने की बात हो रही है। इसके पीछे एक सबसे बढ़ा कारण है कि समाज में स्त्रियों को एक उपभोग की वस्तु के रूप में देखा जाता है। ‘खाप पंचायत’ के अंतर्गत पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मघ्यप्रदेष और पष्चिमी उतर प्रदेष आदी वही इलाका है, जहां पर भ्रूण हत्या एक फैषन बन गया था। इसके कोई लिखित नियम भी नही है, ‘चैधरी’ तय कर देता है वो सर्वमान्य है। स्त्रियों भागीदारी की बात करें तो पर्दाप्रथा के तहत उन्हें तो बोलने का भी अधिकार नहीं है, चाहे कितना ही जुल्म हो। शायद दुनियां कि एकमात्र बिना गवाह की अदालत होगी- खाप पंचायत। अब मामला यह है कि देष में हर व्यस्क नागरिक को फैसला लेने कर अधिकार है और अगर दो व्यस्क स्त्री पुरूष अपनी ज़िदगी के बारे में साथ रहने का फैसला करते है तो कानूनी रूप से वैध है। लेकिन जाति पंचायतों को यह मंजूर नहीं अगर अपने ही गौत्र में कोई शादी करता है तो उसके खिलाफ यह तर्क देते है कि इनके बीच तो भाई बहन का रिष्ता है और अंर्तजातिय विवाह करते है तो ‘इज्जत’ का सवाल खड़ा कर देते है। अब बताये कि किससे शादी करें? दरअसल इस देष में जरति व्यवस्था की जड़े इतनी गहरी है कि अभी भी राजनीति से लेकर सामाजिक ढ़ंाचा इसके चक्कर लगाता हुआ नजर आ रहा है। इसी के कारण आज खाप पंचायते न केवल अस्तित्व में हैं बल्कि धड़ले से रोज फैसले सुनकार बेगुनाहों की ज़िंदगीयों को तबाह भी कर रही हंै। पंचायती राज के तहत चुने हुए पदाधिकारी भी असमर्थ दिखाई देते है क्योंकि या तो वो भी ऐसी मान्यताओं को मानते है या फिर वोट बैंक के डर से कुछ करते नही। अभी तो खाप पंचायतें इसलिये चर्चा में है क्योंकि मीडिया ने इस को मुद्दा बना रखा है वरना ये पहले भी अस्तित्व में थी और इनसे अमानवीय फैसले देती थी। यही वोट बैंक की राजनीति सता के ऊंचे गलियारों की है, वो भी कुर्सी के डर से मूकदर्षक बना रहता है। अगर बात करें न्याय प्रणाली की तो पहली बात तो धन और बाहुबल के कारण बहुत से मामले अदालत के दरवाजे तक जाते ही नहीं, अगर कोई किसी तरह अदालत का दरवाजा खटखटाता है तो वहां भी इंसाफ की कम ही उम्मीद रहती है क्याकि अदालत सबूत और गवाह मागंती है लेकिन पूरी जाति व बिरादरी के सामने गवाही देने के लिये कोई भी तैयार नहीं होता और इस तरह मामला रफा दफा हो जाता है। इन खाप पंचायतों का प्रभाव इतना अधिक है कि एक पंचायत 84 गांवों को देखती है यानी अपने स्तर पर एक दूसरी शासन व्यवस्था जिसका समाज में वैधानिक आधार नहीं है। लेकिन मौत तक फैसले सुना देती और समाज को उन्हें मानना भी पड़ता है जबकि देष में सवैधानिक रूप से लोकतंत्र है। इसके पीछे मुख्य कारण है कि जातिव्यवस्था हमारे समाज की रगो में खून की तरह बह रह है, षिक्षा के अभाव में लोगों का दिमाग सामन्तवादी सोच और अंधविष्वास से बाहर निकलने की कोषिष भी नही करता। सामाजिक स्तर पर इतनी विद्रुपताएं आ गई है कि जो लोग प्रषासन और न्यायिक प्रक्रिया में है वो भी रूढ़ीवादी मानसिकता में घिरे हुए होने के कारण ऐसे लोगों को शह मिलती है। दूसरी और वोट बैंक के कारण राजनीतिक महत्व के लोग भी चुपि साधे हुये रहते है। अब सवाल उठता है कि समाज को ऐसी स्थिति से कैसे बाहर निकाला जाये, सबसे पहले तो षिक्षा के स्तर को लगातार बढ़ाना पड़ेगा और स्त्री सशक्तिकरण को बढ़ावा देकर लिंग के आधार पर समाज में बराबरी लानी होगी और उसके साथ ही जाति व्यवस्था को सिरे से समाप्त करना होगा।

सोमवार, 31 मई 2010

दाड़ी का दर्द

‘अयोध्या’ हमेशा से इस देश के राजनीतिक गलियारों में फुटबाल की तरह उछाला जाता है। साम्प्रदायिक ताकतों ने जिस तरह से अयोध्या को लेकर अपने तुच्छ स्वार्थों की रोटी सेकी है, वो हमारे देश की धर्मनिरपेक्षता पर ही सवाल खड़ा कर देती है। अभी लिब्राहन आयोग की रिर्पोट ने फिर से इस आग को हवा देने का काम किया है। इसी वक्त संयोग से अयोध्या जाना हो गया। अयोध्या व फैजाबाद के कुछ साथी अमर शहीद अशफाक उल्ला खाँ व प. रामप्रसाद बिस्मिल की शहादत पर पिछले तीन सालों से हर साल एक फिल्म समारोह का आयोजन करते आ रहे है। इस फिल्म समारोह का उद्देश्य धार्मिक सौहादर्य व भाईचारे को बढावा देना है। जिस प्रकार से अमर शहीद अशफाक उल्ला व राम प्रसाद बिस्मिल ने धर्म से ऊपर उठकर अग्रेंजी हुकुमत से संघर्ष किया था, उसी सांझी विरासत को कायम करने के लिए आयोजित तीसरे अयोध्या फिल्म उत्सव में मुझे भी बुलाया गया।
फिल्म उत्सव के उदघाटनीय सत्र की समाप्ति के बाद मैंने दोस्तों से विवादित स्थल को देखने की इच्छा जताई। साथी गुफरान भाई ने अपनी मोटर साईकिल पर बैठाकर मुझे महतं युगलकिशोर शास्त्री जी के पास लाये और बोले मेरा जाना ठीक नहीं है, आप शास्त्री जी के किसी आदमी के साथ दर्शन कर आइये।’ शास्त्री जी ने एक आदमी को मेरे साथ कर दिया कि इन्हें दर्शन करा दीजिये। मैं, गुफरान भाई और शास्त्री जी के मित्र तीनों, शास्त्री जी के घर से कुछ ही कदम चले थे, कि पीछे से दो लोगों ने आकर रोक लिया गुफरान भाई ने अपना नाम बताया और कहा मैं फैजाबाद का रहने वाला हूँ। इतने मैं एक मेरी तरफ इशारा करके वाला ‘ तब तो यह जरुर कश्मीर के होंगे?’ मैंने पुछा,‘ आप कौन इस तरह हमारेे बारे में पुछने वाले?’ जवाबः ‘हम इंटेलिजेंस के आदमी है।’ दुसरे ने तुरन्त पुछा कि ,‘ तुम्हारा नाम क्या है?’ जब ‘संदीप’ नाम सुना तो उनका शक ओर गहरा हुआ। मेरी दाड़ी में उन्हें पता नही क्या-क्या दिखने लगा। कई उल्टे-पुल्टे सवाल पुछने लगे।
जब से दाड़ी आयी है तब से मुझे दाड़ी रखने का शौक रहा है मगर आज अहसास हुआ कि दाड़ी रखने से आम आदमी ही नहीं इंटेलिजेंस वाले भी शक की निगाहों से देखने लग जाते है। मेरे घर का पता, फोन नम्बर से
लेकर सब पुछताछ करने के बाद पहचान पत्र भी दिखाया मगर मेेरे पास ऐसा कोई लिखित दस्तावेज नहीं था कि जो उनके लिये प्रमाण बनता।
जिसमें लिखा हो कि मैं आंतकवादी नहीं हूँ। तुरन्त मेरी पहचान को लेकर जांच शुरु हो गई। अयोध्या आने से लेकर ठहरने तक के स्थानों की जाँच पडता शुरू। फिर मुझे विवादित जगह पर जाने के लिए तो बोल दिया मगर इंटेलिजेंस वाले 100 कदम की दूरी पर पिछे -पिछे चल रहे थे । हर पुलिस वाला मुझे नजर गड़ाकर देख रहा था। जब विवादित जगह पहंुचा तो सबकी थोड़ी- बहुत जांच कर रहे थे मगर दाड़ी को देखकर मेरी आधा घण्टे गेट पर ही पुरी जन्मपत्री खंखाली गई। जब गेट से आगे पहुंचा तो फिर पुलिस ने मुझे एक तरफ ले जाकर पुछताछ शुरू कर दी । मेरा पर्स निकाल कर तमाम कांटेक्ट नम्बरों को सर्च किया गया और मुझ से सवाल किया कि, ‘ये मीडिया के इतने नम्बर लेकर क्यूँ घूमते हो?’ इन सब का एक ही कारण था-दाड़ी। मेरे जेब से एक पुरानी रशीद निकली जो शर्ट के साथ धुलने के कारण उस पर कुछ लकीर सी देख रही थी। एक पुलिस वाला बोला,’ यह किसका नक्शा है।’ मैंने बताया कि कोई रसीद है जो शर्ट के साथ धुल गई। उस पुलिस वाले से मैंने सवाल किया कि ,‘आखिर आप मुझे इतना चैक क्यूं कर रहे है?’ उत्तर वही था कि तुम्हारी दाड़ी है और तुम आंतकवादी हो सकते है। जिन्दगी में पहली बार मुझे दाड़ी के महत्व का अहसास हो रहा था। आम आदमी कोई भी मुझे से दाड़ी को लेकर पुछताछ नहीं की मगर पुलिस ने तीन घण्टे तक एक ही सवाल में उलझाया रखा कि ‘ये दाड़ी क्यों है?’ अब मैं उन्हें कैसे समझाता कि भाई साहब! यह मेरा शौक है और आजाद भारत में कोई भी आदमी दाड़ी बढ़ा कर घूम सकता है।
जब विवादित ढांचे पर पंहुचा तो पण्डित भी प्रसाद देते हुए मुझे गौर से देख रहा था। मैं हाथ में प्रसाद लेकर बाहर निकल रहा था कि अचानक बन्दर ने मेरे हाथ से प्रसाद छीन लिया। मेरे दिल में आया कि भाई बन्दर ! ये दाड़ी भी दो -चार घण्टे के लिए तुम छीन कर ले जाओ तो इस मुसीबत से तो छुटकारा मिले। सुरक्षा के नाम पर सरकार 8 करोड़ रुपये हर महीने अयोध्या में खर्च करती है। मगर वहां के विकास का स्तर देख कर सब समझ में आ जाता है। खैर, सरकार जाने, उसकी सुरक्षा जाने पर मेरी दाड़ी पर तो कम से कम मेरा हक है कि मैं कटाऊँ या फिर बढ़ाऊँ। विवादित स्थल से बाहर निकले तो इंटेलिजेंस वाले तैयार खड़े थे, बोले,‘अब क्या प्लान है, सब जानकारी दो।’ मैने कहा,‘भाई! सीधा दिल्ली जाऊंगा।’
गुफरान भाई ने बताया कि स्थिति बहुत भयानक है, धर्म के ठेकेदारों के साथ-साथ पुलिस भी हिटलरशाही के रंग में रंगी हुई। शाम को जब ट्रेन से
वापस लौट रहा था तब विदा करते समय गुफरान भाई ने कहा था,‘ संदीप भाई! दाड़ी बनवा लेना यार .....................
जनसता 9 फरवरी 2010 को प्रकाषित

एक सच यह भी

राजस्थान के शहरों में घूमते हुए राजशाही के पुराने निशान देखने पर दिमाग में उस ज़माने कि तस्वीर कौंध जाती है जिस समय इनको बनाया गया था क्यूंकि महल, किले, झील और अन्य राजशाही निशां बनाने के पीछे विलासिता के अलावा एक तर्क ये भी था कि इनके माध्यम से राजघराने जनता में अपना प्रभुत्व व शानों शौकत बरक़रार रखना चाहते थे. क्यूंकि उनके पास इनके अलावा अन्य कोई कार्य नहीं था, युद्ध, वीरता और रणभूमि तो पुराने शब्दकोषों कि शोभा बढ़ा रहे थे जिन्हें इतिहास को याद रखने के लिए चारण और भाटों को पैसा दे कर गवाया जाता था. यूरोपीय राजघरानों कि तरह राजस्थान के राजघराने भी आपस में 'रोटी और बेटी' का सम्बन्ध रखते थे, इसके अलावा सबसे बड़ा सम्बन्ध एक दुसरे के हितों कि रक्षा करना भी था. अकलराहत कार्यों के नाम पर बनवाए गये यह महल अपने पीछे शोषण की एक दास्ताँ को भी छुपाये हुए है. बेगार और बंधुआ जैसे शब्दों की उत्पति के बीज भी इन हवेलियों की नीवों में दबे पड़े है. सालभर में आमदमी पर 40 - 45 प्रकार के कर लगाये जाते थे जिनकी वसूली की कई कड़ियाँ थी जो अपने अपने स्तर पर अमानवीय रूप से शोषण करती थी.
मुल्क की आजादी के वक्त अंग्रेजों के साथ साथ इनके राज्य का सूर्य भी अनंतकाल के लिए अस्त हो गया. जिस समय मुल्क में आजादी की खुशियाँ मनाई जा रही थी उस समय इनके महलों के नगाड़े ओंधे पड़े थे.अपने राज्य को भारतीय संघ में विलय करवाने हेतु विलय संधि पर हस्ताक्षर करने गए जोधपुर नरेश की पहनी हुई काली पगड़ी सभी रजवाड़ों की मनोस्तिथि बयां कर रही थी.
आजादी के साथ व्यवस्था तो बदल गयी लेकिन रजवाड़ों की मानसिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया जिसका उदहारण आपको राजस्थान के छोटे से गाँव से लेकर भूतपूर्व रियासतों में देख सकते है, एक गाँव के राजपूत के पास खाने के लाले पड़ते है मगर वो खुद को रावला कहलाना ही पसंद करता है और चाहता है की हर कोई आकर ड्योढ़ी पर माथा झुकाए, यही हाल भूतपूर्व रियासतों के है जिनकी बहुत सी सम्पति तो दारू और पता नहीं कहाँ कहाँ उड़ गयी और जो बची खुची चोरवाली लंगोट है उसके दमपर अब भी राजस्थान को राजपुताना बनाने के ख्वाब देखते है. परन्तु जो बड़ी रियासतें है जिनके पूर्वज नरेश अंग्रेजों के क़दमों में अपनी पगड़ी गिरवी रखकर अंग्रेजों की मेहरबानी पर राजकरने के भ्रम में अपनी मूछें मरोड़ते थे( दूसरों की तो मरोड़ नहीं सकते थे).
आज की तारीख में हम उन रियासतों के वारिसों को देखते है तो पता चलता है कि उन्हें अपने पूर्वजों से क्या सीख मिली है. भारतीय न्याय व्यवस्था पर बोझ बनकर पड़ी हुई इनकी फर्जी मुकदमें, फर्जी वसीयतें, फर्जी वारिस और गुजरे ज़माने कि शानो शौकत बनाये रखने कि फर्जी कोशिश को देखकर हमें पता चलता है कि 15 वि सदी में इतना प्रगतिशीलता कि जड़े कहाँ से फूटी कि अपनी बेटी को दुसरे धर्म में ब्याह दिया.

बुधवार, 26 मई 2010

इंटरनेट पर छाई राजस्थानी

राजस्थानी भाषा विश्वविख्यात है। इसका एक कारण इंटरनेट है, जहां राजस्थानी को हर किसी ने चाहा तथा सम्मान दिया है। सरकारी वेबसाइटों पर भी अब राजस्थानी देखने को मिल रही हैं। श्रीगंगानगर जिला इस पहल को शुरुआत करने वाला पहला जिला है। इस जिले की सरकारी वेबसाईट पर राजस्थानी को सबसे पहले शामिल किया गया है। इंटरनेट पर राजस्थानी को अपनी पहचान दिलाने के लिए ब्लॉग एक सशक्त माध्यम बनकर उभरा है, इनकी संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है।
राजस्थानी के ब्लॉग जो अभी तक सामने आएं हैं, उनमें राजस्थान की भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के साथ-साथ दूसरे विषयों की जानकारी भी देखने में आती हैं। इंटरनेट पर राजस्थानी की जो वेब-पत्रिकाएं सामने आई हैं, वे इस प्रकार हैं- सत्यनारायण सोनी और विनोद स्वामी संपादित 'आपणी भाषा-आपणी बात', राव गुमानसिंह राठौड़ का 'राजस्थानी ओळखांण', पतासी काकी का 'ठेठ देशी', नीरज दईया की मासिक वेब पत्रिका 'नेगचार', मायामृग का 'बोधि वृक्ष' आदि।
राजस्थानी के रचनाकारों के ब्लॉग में- ओम पुरोहित 'कागद', रामस्वरूप किसान का राजस्थानी कहानियों का ब्लॉग, दुलाराम सहारण का राजस्थानी की प्रकाशित पुस्तकों की सूची, संदीप मील का 'राजस्थानी हाईकू', राव गुमानसिंह राठौड़ के 'राजिया रा दूहा', 'सुणतर संदेश', डॉ. सत्यनारायण सोनी की राजस्थानी कहानियां, शिवराज भारतीय का 'ओळूं', संग्राम सिंह राठौड़ का 'स्व. चंद्रसिंह बिरकाळी री रचनावां', डॉ. मदनगोपाल लढ़ा का 'मनवार', पूर्ण शर्मा 'पूरण' का 'मायड़ भाषा', डॉ. मंगत बादल, जितेन्द्र कुमार सोनी 'प्रयास' का 'मुळकती माटी', राजूराम बिजारणियां, कवि अमृतवाणी का 'राजस्थानी कविता कोश', नीरज दईया के 'सांवर दईया', 'राजस्थानी ब्लॉगर', डॉ. दुष्यंत का 'रेतराग', रवि पुरोहित का 'राजस्थली', दीनदयाल शर्मा का 'टाबर टोळी', 'गट्टा रोळी', राजेन्द्र स्वर्णकार का 'शस्वरं', अंकिता पुरोहित का 'कागदांश', किरण राजपुरोहित 'नितिला', संतोष पारीक का 'सांडवा', अजय कुमार सोनी का 'भटनेर' आदि।
इंटरनेट पर राजस्थानी की मूल रचनाएं तथा अनूदित रचनाएं बहुत सी पत्रिकाओं में निरंतर छपती रहती हैं। जिनमें- 'हिन्दी कविता कोश', नरेश व्यास का 'आखर कलश', प्रेमचंद गांधी का 'प्रेम का दरिया', रविशंकर श्रीवास्तव का 'रचनाकार'।
राजस्थानी भाषा की मान्यता से जुड़े मुद्दों पर चर्चा के ब्लॉग भी हैं। जिनमें- कुंवर हनवंतसिंह राजपुरोहित के 'मरुवाणी', 'म्हारो मरूधर देश', विनोद सारस्वत का 'मायड़ रो हेलो', सागरचंद नाहर का 'राजस्थली', अजय कुमार सोनी के 'मायड़ रा लाल', 'राजस्थानी रांधण', राजस्थानी का 'राजस्थानी वातां' ब्लॉग, राजस्थानी गीत गायक प्रकाश गांधी और जितेन्द्र कुमार सोनी के भी राजस्थानी ब्लॉग हैं।
इंटरनेट पर कई गांवों के भी ब्लॉग हैं जो राजस्थानी में हैं- 'आपणो गांव परळीको'। 'मेरा गांव भगतपुरा' की माध्यम भाषा तो हिन्दी है, परन्तु राजस्थानी चित्र, ऑडिया-वीडियो भी हैं। अब तो अत्यंत खुशी की बात है कि जल्द ही ऑनलाईन राजस्थानी टेलिविजन और रेडियो खुलने वाले हैं। जिन पर राजस्थानी में ही प्रसारण किया जाएगा। जिसकी पंहुच प्रवासी राजस्थानियों तक भी होगी। ऑनलाईन राजस्थानी टेलिविजन बतौर प्रयोग शुरू कर दिया गया है, जिसमें अभी रोजाना राजस्थानी गीत लगाए जाते हैं। इसका नाम अभी 'मरुवाणी' रखा गया है और इसके सूत्रधार कुंवर हनवंतसिंह राजपुरोहित हैं जो लंदन में अपना कारोबार करते हैं।
केन्द्र सरकार की उदासीनता के चलते राजस्थानी की मान्यता का सवाल अधरझूल में पड़ा है। इन उपलब्धियों को देखते हुए केन्द्र सरकार को चाहिए कि वह राजस्थानी भाषा को तत्काल संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करे।
मोबाईल नंबर- 96729-90948
अजय कुमार सोनी 'मोट्यार', परलीका

सोमवार, 24 मई 2010

कुछ तो बचा लें

आज भारतीय जनतंत्र पर जो खतरा पैदा हुआ है, उसका मुख्य कारण पूंजीवादी ताकतों के दवाब में आकर भारतीय परिस्थियों को समझे बगैर नवउदारवादी नीतियों व भूमंडलीकरण को अपनाना है. हालाँकि भारत में प्रचलित जनतंत्र सिर्फ नाम भर का जनतंत्र रह गया है जिसमे जनता वोट को रस्म के तौर पर निभाती है, उसे यह तो पता है कि ड़ो बुराइयों में से एक बुराई का चुनना है मगर अभी तक ड़ो बुराइयों के अलावा तीसरे विकल्प का रास्ता नहीं तलाश पाई. जनतंत्र कि रीड जनतांत्रिक संस्थाए होती है मगर आज उन संस्थाओं को जनतंत्र विरोधी ताकतों द्वारा भीतर व बाहर से हमलों का सामना करना पड़ रहा है, जिससे सबसे पहले स्वच्छ बहस कि परम्परा को नस्त किया जा रहा है. अगर जनतंत्र के ऊपरी पायदान से बात शुरू करके पंचायत तक देखा जाये तो सामान स्थिति है. आप इसे अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता का हनन भी कह सकते है. हर जगह व्याप्त शोषण के खिलाफ जहाँ भी आवाज़ उठाई जाती है तो सता द्वारा आतंक के नाम पर दबा दिया जाता है. खुली बहस कि परम्परा का अंत करने के लिए सताधारियों द्वारा छात्र राजनीति से लेकर मीडिया तक को कब्जे में करने का जाल बिछा लिया है. छात्र राजनीति को सबसे पहले तो राजनीतिक स्वार्थों के चलते गुंडई रंग में रंग दिया गया और उसके बाद भी पूंजीवादी ताकतों को लगा कि अभी भी इससे सत्ता को से इसलिए भी खतरा है कि ये कभी भी आन्दोलन का रूप ले सकते है. इसलिए राजनीति का रूप प्राथमिक रूप को ही धन बल के जाल में फसाकर विद्रोह के तमाम रस्ते बंद कर के दिए गए. यही हालत प्राथमिक पंचायत संस्थाओं के है, जिन्हें देकर एक बार तो गांधी जी भी शर्म के मारे पचायत व्यवथा के सिद्धांत को रो रहे होंगे. खैर, जो भी हो आज फिर से देश कि जनतांत्रिक परम्पराओं को बचाने के लिए कम से कम स्वतंत्र बहस कि चौपालों को बचाना होगा वरना ये लाइने इतिहास बन जाएँगी *
आज भारतीय जनतंत्र पर जो खतरा पैदा हुआ है, उसका मुख्य कारण पूंजीवादी ताकतों के दवाब में आकर भारतीय परिस्थियों को समझे बगैर नवउदारवादी नीतियों व भूमंडलीकरण को अपनाना है. हालाँकि भारत में प्रचलित जनतंत्र सिर्फ नाम भर का जनतंत्र रह गया है जिसमे जनता वोट को रस्म के तौर पर निभाती है, उसे यह तो पता है कि ड़ो बुराइयों में से एक बुराई का चुनना है मगर अभी तक ड़ो बुराइयों के अलावा तीसरे विकल्प का रास्ता नहीं तलाश पाई. जनतंत्र कि रीड जनतांत्रिक संस्थाए होती है मगर आज उन संस्थाओं को जनतंत्र विरोधी ताकतों द्वारा भीतर व बाहर से हमलों का सामना करना पड़ रहा है, जिससे सबसे पहले स्वच्छ बहस कि परम्परा को नस्त किया जा रहा है. अगर जनतंत्र के ऊपरी पायदान से बात शुरू करके पंचायत तक देखा जाये तो सामान स्थिति है. आप इसे अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता का हनन भी कह सकते है. हर जगह व्याप्त शोषण के खिलाफ जहाँ भी आवाज़ उठाई जाती है तो सता द्वारा आतंक के नाम पर दबा दिया जाता है. खुली बहस कि परम्परा का अंत करने के लिए सताधारियों द्वारा छात्र राजनीति से लेकर मीडिया तक को कब्जे में करने का जाल बिछा लिया है. छात्र राजनीति को सबसे पहले तो राजनीतिक स्वार्थों के चलते गुंडई रंग में रंग दिया गया और उसके बाद भी पूंजीवादी ताकतों को लगा कि अभी भी इससे सत्ता को से इसलिए भी खतरा है कि ये कभी भी आन्दोलन का रूप ले सकते है. इसलिए राजनीति का रूप प्राथमिक रूप को ही धन बल के जाल में फसाकर विद्रोह के तमाम रस्ते बंद कर के दिए गए. यही हालत प्राथमिक पंचायत संस्थाओं के है, जिन्हें देकर एक बार तो गांधी जी भी शर्म के मारे पचायत व्यवथा के सिद्धांत को रो रहे होंगे. खैर, जो भी हो आज फिर से देश कि जनतांत्रिक परम्पराओं को बचाने के लिए कम से कम स्वतंत्र बहस कि चौपालों को बचाना होगा वरना ये लाइने इतिहास बन जाएँगी *
बोल कि लब आजाद है तेरे

रविवार, 23 मई 2010

पद कि विवेचना

सुप्रीम कोर्ट ने हालही में निर्णय दिया है कि राज्यपालों को बदलने के लिए कोई पुख्ता वजह का होना ज़रूरी है, इस निर्णय ने फिर से राज्यपाल के पद को नई बहस को जन्म दे दिया है. भारतीय राजनीति में राज्यपाल का पद सबसे विवादित पद हो गया है, जब सरकारें बदलती है तब राज्यपालों का हटना भी शुरू हो जता है. भारतीय लोकतंत्र में यह सवाल बार बार उठता है कि राज्यपाल के पद कि का क्या महत्व है? इस सवाल के पीछे बहुत से कारणों में से एक कारण यह भी हो सकता है कि आज़ादी के बाद इस पद कि गरीमा को भूलकर इसे एक राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया. विभिन्न राजनितिक दलों के आपसी मतभेद के कारण इस संवेधानिक पद की गरिमा को बार बार उछाला गया है. जब किसी राजनितिक महत्वपूर्ण व्यक्ति को केंद्र में मंत्री पद नहीं मिल पता है या उसे सक्रिय राजनीति से हटाना हो तो तो उसे किसी राज्य का राज्यपाल नियक्त कर दिया जाता है, इससे दो फायदे होते है- एक तो पार्टी का एक नेता संतुष्ट हो जता हो और दूसरा फायदा यह है की अगर राज्य में विरोधी दल की सरकार है तो उसकी खिंच तान करणे के लिए इस पद का उपयाग कर लेतें है और ये परम्परा सी बन गयी है की राज्यपाल सताधारी दल का राजनेता ही होगा. कुल मिलाकर ये पद केन्द्रीय राजनीति का राज्यों पर नियंत्रण रखने का एक साधन हो गया है. झारखण्ड और बिहार के राज्यपालों का हाल पिछले दिनों देख ही चुके है, जब किसी भी राज्य ने कोई राजनीतिक संकट आता है तो राज्यपाल कि भूमिका महत्वपुएँ हो जाता है मगर दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि जब भी ऐसी स्थिति आती है तो ये पद विवादों के घेरे में आ जाता है
संसदीय लोकतंत्र में केंद्र और राज्य के बीच राज्यपाल एक सेतु का काम करता है, इस पद कि उपियोगिता खासकर तब देखने को मिलाती है जब मंत्रीमंडल भंग हो जता है मगर ऐसी स्थिति में भी किसी पार्टी विशेष कि वफ़ादारी के कारण कई बार पक्षपात का आरोप लगाया जाता है. संवैधानिक पद होते हुए भी राज्यपाल को विशेष संवैधनिक अधिकार प्राप्त नहीं है, केवल शाही खर्चे का प्रतीक बनकर रह गया है. हाल के वर्षों में धरा 356 के गलत उपयोग के मामले भी सामने आ रहे है जो स्पष्ट करते है कि इस ओद के महत्व व अधिकारों को लेकर फिर से विवेचना हो. ऐसी स्थिति में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय स्वागत योग्य है, लेकिन सवाल उठता है कि वो पुख्ता वजह क्या होगी? जब तक इस पद पर राजनीतिक लोगों को आरूढ़ किया जायेगा तो निश्चित रूपसे वो अपनों पार्टी के प्रति वफादारी दिखने कि कोशिश करेंगे, अगर राज्यपाल विरोधी पक्ष का है तो वो अपने आप में एक वजह बन जाएगी. सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में बताया है कि राष्ट्रिय निति के साथ राज्यपाल के विचारों का मेल नहीं होने के कारण उसके कार्यकाल में कटौती करके हटाया जा सकता है और वो केंद्र सरकार से असहमत भी नहीं हो अथार्त केंद्र में जिस पार्टी कि सरकार हो उसे पूरी छुट है कि वो राज्यपाल को जब चाहे हटा सकती है.राज्यपाल का पद पूर्णरूप से राजनीतिक आकाओं के रहम पर निर्भर हो गया है जो कि एक स्वतंत्र संवैधानिक पद है.
6 दशक के संवैधानिक अनुभव के आधार पर साफ़ जाहिर है कि राज्यपाल के पद कि विवेचना जरूरी है, इसे एक संवैधानिक पद के रूप में स्थापित किया जाये और राजनीतिक चालबाजियों से अलग करके सवतन्त्र अभिनेता का स्थान दिया जाये जो संविधान के अनुसार राज्य और केंद्र के मध्य भूमिका निभाए.

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

दूरदर्शी

कई दिनों से मेरे कुछ दोस्त एक धंधा शुरू किया है . उन को लोग दूरदर्शी कहते है . उनकी द्रष्टी इतनी दूर तक देख सकती है कि वो आजकल जूतों का भंडारण कर रहे है . उनका तर्क है कि एक दिन सब लोग नेताओ को सामूहिक जूता मारेंगे और उस दिन जूतों कि कमी न पड़ जाये इसलिए यह काम कर रहे है जो एक समाजसेवा भी है. प्रधानमंत्री से लेकर पंच तक के लोक नेता को जूतों से नवाज़ने के लिए विभिन्न प्रकार के जूतों की कीमत का चार्ट बनाया है .
आँख के अंधे और चश्मे का रिश्ता बड़ा अजीब होतो है ! जब मेरे मास्टरजी को चश्मे के बिना चोर का मोर दिखाई देता है तब राजनीति में तो बिना चश्मे के लाकतंत्र को नोटतंत्र समझने वालों से तो मुझे कोई दिक्कत नहीं होती !

वीआइपी मूवमेंट

वीआइपी मूवमेंट
'मूवमेंट' शब्द का शाब्दिक अर्थ 'आन्दोलन' होता है मगर हर शब्द का अर्थ काल और परिस्थिति के अनुसार बदल जाता है. यहाँ पर मेरी समझदारी के अनुसार 'मूवमेंट' शब्द का अर्थ 'हलचल' हो सकता है. इसलिए 'वीआइपी मूवमेंट " का अर्थ है कि बहुत महत्वपूर्ण आदमी कि हलचल. ये बहुत ही महत्व के आदमी वो होतें हैं जिनका कद कुर्सी के अनुसार घटता-बढ़ता रहता है. वैसे ये सजीव प्राणी होते हुए भी पॉँच साल तक कोई हलचल नहीं करते ये भी दुनिया का आठवां आश्चर्य है . यह इनका अप्राकृतिक गुण है जो प्रकृति विज्ञानं के सारे सिद्धांतों को तोड़ कर इनके शरीर में प्रवेश कर कर चूका है लेकिन सजीव प्राणी होने के नाते कभी कभी हलचल करके यह सिद्ध करना पङता है कि ये अभी जिंदा है. यह हलचल इस प्राणीजगत में प्रति पॉँच वर्षों के बाद एक विशेष परिस्थिति में होती है जो प्राकृतिक मौसम नहीं होता फिर भी इस प्राणी जगत कि पूरी प्रकृति बदल देता है.
उस मौसम को लोकतान्त्रिक विज्ञानं में 'चुनाव' कहतें है . इस चुनावी मौसम कि सुगबुगाहट शुरू होती है जिसे आप पुरे देश में और विशेषकर दिल्ली की सड़कों पर देख सकतें है.