आज से लगभग पांच साल पहले फिक्की की तर्ज पर मिलिंद कांबले ने डिक्की (दलित इंडियन चैंबर आॅफ कॅामर्स) की स्थापना की, तब यह एक शुरूआती कदम था लेकिन अब डिक्की का सालाना टर्न आॅवर पांच हजार करोड़ रूपये तक पहुँच गया है। पिछले दिनों इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में दलित करोड़पतियों का इक्कठा होना भारतीय पूंजीवादी इतिहास में नया कदम है। पचास से पांच सौ करोड़ सालाना टर्न अॅावर वाले दलित उधोगपतियों ने नये साल के लक्ष्य तय किये कि वो 2011 में हेलिकाॅप्टर खरीदेंगे। अब सवाल उठता है कि पूंजीवाद के मूलभूत दुर्गुणों से क्या यह नया पूंजीपति वर्ग बच पायेगा ? हालांकि इन सब उधोगपतियों ने शून्य से व्यापार शुरू किया है और एक स्टेज पर जाकर भारतीय उधोग जगत में अपना स्थान बनाया है। लेकिन पूंजीवाद की गिरफ्त में आने के बाद वे अपने समाज के बारे में कितना सोच पाते हैं, क्योंकि पूंजीवाद का धरातल शोषण पर टिका हुआ है और जब आर्थिक शोषण की बात आती है तो जाति गौण हो जाती है। सामाजिक समानता की बात करते समय आर्थिक शोषण को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है, एक ही समाज द्वारा अपने सदस्यों का आर्थिक शोषण भारतीय समाज में कोई नई बात नहीं है। भारत में वर्ग संघर्ष और वर्ण संघर्ष दोनों समानांतर है।
इस नये पूंजीपति वर्ग के उभरने से जो सकारात्मक पक्ष उभरेगा वो होगा कि औधोगिक क्षेत्र में सवर्ण वर्चस्व को धक्का लगना। समाज के हर पिछडे़ वर्ग में एक आत्मविश्वास की किरण फैल सकती है कि भारतीय औधोगिक क्षेत्र में उनका भी हिस्सा है, लेकिन इस कपोल कल्पना से उनके जीवन में कोई परिवर्तन नहीं होता दिखाई दे रहा है। परिवर्तन तो तब माना जायेगा जब यह नया पूंजीपति वर्ग अपनी कम्पनीयों की नौकरीयों में आरक्षण की शुरूआत करे। लेकिन यह वर्ग भी ऐसा नहीं करेगा, क्योंकि जब मुनाफे की बात आती है तो पूंजीपति का रंग बदल जाता है चाहे उसका वास्ता समाज के किसी भी वर्ग से रहे। अगर यह वर्ग भी नीजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करने की पहल नहीं करता है तो फिर फिक्की और डिक्की में क्या फर्क है ? सिर्फ सत्ता के स्थानान्तरण से तो वंचित समुदाय की समस्याओं का हल होने वाला नहीं है। क्या इनके उधोगों में मजदूरों का शोषण नहीं होता है, क्योंकि शोषण के बिना पूंजीपति बना ही नहीं जा सकता है। इन उधोगपतियों का 2011 का लक्ष्य हेलिकाॅप्टर लेना है न कि दलित समाज का हित करना। कुछ लोगों के पूंजीपति बन जाने के कारण किसी भी समाज का भला होने वाला नहीं है। कुछ लोगों का तर्क है कि इनके उधोगपति बन जाने से दलित समाज के लोगों को औधोगिक क्षेत्र में आने का मनोबल बढ़ेगा लेकिन दलित समाज की समस्याएं सामाजिक और राजनैतिक है और उनका सामाधान भी सामाजिक राजनीतिक क्षेत्र में परिवर्तन से ही हो सकता है। सामाजिक न्याय की लड़ाई केवल वो ही वर्ग लड़ सकता है जो समस्याओं से जूझ रहा है। लेकिन अगर यह वर्ग सामाजिक न्याय के संघर्ष में आर्थिक रूप से मजबूत कर पाये तो संघर्ष आगे बढ़ पायेगा। और वर्ग संघर्ष व वर्ण संघर्ष के बीच सामंजस्य बैठा पाते है या नहीं। यह तो इनको तय करना है कि इस संघर्ष इनकी क्या भूमिका होगी, एक पूंजीपति की या फिर सामाजिक न्याय के संघर्ष के कार्यकर्ता की। पूंजीपति आख़िर पूंजीपति है चाहे वो किसी भी समाज का हो, उसके हित संघर्ष के लक्ष्यों से अलग होते है।