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सोमवार, 24 मई 2010

कुछ तो बचा लें

आज भारतीय जनतंत्र पर जो खतरा पैदा हुआ है, उसका मुख्य कारण पूंजीवादी ताकतों के दवाब में आकर भारतीय परिस्थियों को समझे बगैर नवउदारवादी नीतियों व भूमंडलीकरण को अपनाना है. हालाँकि भारत में प्रचलित जनतंत्र सिर्फ नाम भर का जनतंत्र रह गया है जिसमे जनता वोट को रस्म के तौर पर निभाती है, उसे यह तो पता है कि ड़ो बुराइयों में से एक बुराई का चुनना है मगर अभी तक ड़ो बुराइयों के अलावा तीसरे विकल्प का रास्ता नहीं तलाश पाई. जनतंत्र कि रीड जनतांत्रिक संस्थाए होती है मगर आज उन संस्थाओं को जनतंत्र विरोधी ताकतों द्वारा भीतर व बाहर से हमलों का सामना करना पड़ रहा है, जिससे सबसे पहले स्वच्छ बहस कि परम्परा को नस्त किया जा रहा है. अगर जनतंत्र के ऊपरी पायदान से बात शुरू करके पंचायत तक देखा जाये तो सामान स्थिति है. आप इसे अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता का हनन भी कह सकते है. हर जगह व्याप्त शोषण के खिलाफ जहाँ भी आवाज़ उठाई जाती है तो सता द्वारा आतंक के नाम पर दबा दिया जाता है. खुली बहस कि परम्परा का अंत करने के लिए सताधारियों द्वारा छात्र राजनीति से लेकर मीडिया तक को कब्जे में करने का जाल बिछा लिया है. छात्र राजनीति को सबसे पहले तो राजनीतिक स्वार्थों के चलते गुंडई रंग में रंग दिया गया और उसके बाद भी पूंजीवादी ताकतों को लगा कि अभी भी इससे सत्ता को से इसलिए भी खतरा है कि ये कभी भी आन्दोलन का रूप ले सकते है. इसलिए राजनीति का रूप प्राथमिक रूप को ही धन बल के जाल में फसाकर विद्रोह के तमाम रस्ते बंद कर के दिए गए. यही हालत प्राथमिक पंचायत संस्थाओं के है, जिन्हें देकर एक बार तो गांधी जी भी शर्म के मारे पचायत व्यवथा के सिद्धांत को रो रहे होंगे. खैर, जो भी हो आज फिर से देश कि जनतांत्रिक परम्पराओं को बचाने के लिए कम से कम स्वतंत्र बहस कि चौपालों को बचाना होगा वरना ये लाइने इतिहास बन जाएँगी *
आज भारतीय जनतंत्र पर जो खतरा पैदा हुआ है, उसका मुख्य कारण पूंजीवादी ताकतों के दवाब में आकर भारतीय परिस्थियों को समझे बगैर नवउदारवादी नीतियों व भूमंडलीकरण को अपनाना है. हालाँकि भारत में प्रचलित जनतंत्र सिर्फ नाम भर का जनतंत्र रह गया है जिसमे जनता वोट को रस्म के तौर पर निभाती है, उसे यह तो पता है कि ड़ो बुराइयों में से एक बुराई का चुनना है मगर अभी तक ड़ो बुराइयों के अलावा तीसरे विकल्प का रास्ता नहीं तलाश पाई. जनतंत्र कि रीड जनतांत्रिक संस्थाए होती है मगर आज उन संस्थाओं को जनतंत्र विरोधी ताकतों द्वारा भीतर व बाहर से हमलों का सामना करना पड़ रहा है, जिससे सबसे पहले स्वच्छ बहस कि परम्परा को नस्त किया जा रहा है. अगर जनतंत्र के ऊपरी पायदान से बात शुरू करके पंचायत तक देखा जाये तो सामान स्थिति है. आप इसे अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता का हनन भी कह सकते है. हर जगह व्याप्त शोषण के खिलाफ जहाँ भी आवाज़ उठाई जाती है तो सता द्वारा आतंक के नाम पर दबा दिया जाता है. खुली बहस कि परम्परा का अंत करने के लिए सताधारियों द्वारा छात्र राजनीति से लेकर मीडिया तक को कब्जे में करने का जाल बिछा लिया है. छात्र राजनीति को सबसे पहले तो राजनीतिक स्वार्थों के चलते गुंडई रंग में रंग दिया गया और उसके बाद भी पूंजीवादी ताकतों को लगा कि अभी भी इससे सत्ता को से इसलिए भी खतरा है कि ये कभी भी आन्दोलन का रूप ले सकते है. इसलिए राजनीति का रूप प्राथमिक रूप को ही धन बल के जाल में फसाकर विद्रोह के तमाम रस्ते बंद कर के दिए गए. यही हालत प्राथमिक पंचायत संस्थाओं के है, जिन्हें देकर एक बार तो गांधी जी भी शर्म के मारे पचायत व्यवथा के सिद्धांत को रो रहे होंगे. खैर, जो भी हो आज फिर से देश कि जनतांत्रिक परम्पराओं को बचाने के लिए कम से कम स्वतंत्र बहस कि चौपालों को बचाना होगा वरना ये लाइने इतिहास बन जाएँगी *
बोल कि लब आजाद है तेरे