नवउदारवादी दौर में लगातार भारतीय कृषि पर मंडरा रहे संकटों के कारण एक ओर जहां किसान आत्महत्याएं लगातार बढ़ रही हैं। किसान लगातार खेती छोड़कर आजीविका के अन्य साधनों की ओर रुख कर रहे हैं और खेती की जमीन उद्योगों के हवाले की जा रही। वहीं पर एक किसान आंदोलन ने सफलता का एक चरण पूरा कर लिया। संघर्षों के सफर में अक्सर उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। इसने आत्महत्याओं और निराशा के माहौल को तोड़कर आशा और उम्मीदों की सुबह की ओर कदम बढ़ाया है। राजस्थान के चुरू जिले के किसानों ने तैयालीस दिनों के आंदोलन के उपरांत 228 करोड़ रुपये का फसल बीमा प्राप्त करने में सफलता अर्जित की। शायद यह भारत के किसान आंदोलन का पहला उदाहरण है जहां पर किसानों ने लम्बे संघर्ष के बाद इतनी बड़ी राशी में फसल बीमा पाने में सफल रहे हैं। दरअसल चुरु जिले में पाले से चने व सरसों की फसल नष्ट हो गई थी। छोटी जोतों के किसानों की फसल पूर्ण रूप से पाला प्रभावित होने के कारण पूरे क्षेत्र में एक निराशा छा गई। किसानों एग्रीकल्चर इंशोरेंस कम्पनी के माध्यम से फसल बीमा करवा रखी थी। यह बीमा कापरेटिव सोसायटी व अन्य बैंकों के माध्यम से करवा रखी थी। बीमा करवाने से वाले अधिकांशतः छोटे किसान थे और कापरेटिव सोसायटी के माध्यम से जिन्होंने बीमा करवायी थी वे तो ज्यादातर दलित पृष्टभूमि के किसान थे। फसल नष्ट होने पर समय पर किसानों का बीमा राशी नहीं दी जा रही थी। तारानगर, राजगढ़, सरदारशहर के किसानों ने मिलकर किसान सभा के नेतृत्व में आंदोलन शुरु कर दिया। आंदोलन का पहला चरण 22 मई से शुरु और और फिर 13 जुलाई को तारानगर तहसील के किसानों ने बाजार बंद करवाया और 26 जुलाई को उन्होंने तहसील कार्यालय पर छब्बीस घंटे तक कब्जा रखा। इससे किसानों का उत्साह बड़ा और सैंकड़ों की तादात में अन्य किसान भी उनसे जुड़ गये। सिर्फ तहसील कार्यालय के अतिरिक्त भी क्षेत्र के गांवों में अनेक जगह पर धरने, प्रदर्शन और रैलियों की कड़ी शुरू हो गई।
यह अपने अधिकारों के प्रगति किसानों की जागृति का अनुपम उदाहरण साबित हुआ और आंदोलन की गति तेज होती गई। प्रथम चरण में किसानों को पूरी बीमा राशी नहीं दी गई। इसमें कुल 22 करोड़ की राशी दी गई और प्रशासन का कहना था कि जिनका एक जगह बीमा किया गया उन्हीं को मुआवजा दिया जायेगा। जन विरोधी नीतियों का विरोध करने वाले किसानों ने ठान ली कि वे अपना पूरा हक लेकर रहेंगे। इस दौरान लोग अपने जाति, धर्म और अन्य भेदभावों को त्यागकर लामबंध हुए और एक अहिंसक आंदोलन को आगे बढ़ाया। यहां सवाल सिर्फ फसल बीमा का ही नहीं था, किसान बिजली की दरों में वृद्धि, फसलों के उचित मूल्य न मिलना, कृषि के लिए दी जाने वाली सब्सीडी घटाने के नीतियों से त्रस्त किसानों के गुस्से का एक रूप था। लगातार ऐसी नीतियों के कारण कर्ज में डूबा किसान इस बार आत्महत्या का रास्ता अख्तियार करने की बजाय संघर्ष की राह चुनी। यही मूल वजह उनमें राजनीतिक चेतना के संचार की रही है क्योंकि वे यह समझ गये थे उनकी दुदर्शा का कारण नई आर्थिक नीतियां हैं और आत्महत्या उनका समाधान नहीं है।
दूसरे चरण के आंदोलन की शुरुआत हुई और इस बार प्रथम चरण से ज्यादा जोश व आक्रोश के साथ लोगों ने धरने-प्रदर्शन में भागीदारी दर्ज कराई। आंदोलन का एक पक्ष बहुत मजबूत था कि इसमें छात्र, महिलाओं सहित एक बड़े तबके ने एक साथ उपस्थिति दर्ज कराई। इस चरण के दौरान बची हुई बीमा राशी भी कम्पनी को देनी पड़ी और अकेले तारानगर तहसील के किसानों को 94 करोड़ रुपये का मुआवजा मिला। कुल 228 करोड़ के मुआवजे में 218 करोड़ तो केवल चने की फसल का मुआवजा था और उसमें से भी 33 करोड़ कापरेटिव सोसायटी को मिला। यह एक तरह से किसानों में सामूहिकता के प्रति विश्वास को बढ़ावा दिया है। इस फसल बीमा के दौरान किसानों ने पचास रुपये प्रति बिघा की दर से बीमा कराई और शेष राशी में से पच्चीस प्रतिशत राज्य सरकार व बाकि की केंद्र सरकार की ओर से जमा कराई जाती है। और किसानों को मिलने वाली बीमा राशी पंद्रह सौ रुपये प्रति बिघा यानी की एक हैक्टेयर के लिए छह हजार रुपये का अनुदान मिला। चुंकि इस राशी से फसल के मूल्य की भरपाई तो नहीं हो सकती लेकिन आत्महत्या की तरफ जाने वाले किसान को राहत भी मिल गई और रास्ता भी।
शायद भारत के कर्ज में डूबे किसानों के लिए यह आंदोलन एक संदेश का कार्य कर सकता है और उनमें ऊर्जा का संचार करके जिंदगी की राह पर संघर्ष का रास्ता दिया सकता है।