‘अयोध्या’ हमेशा से इस देश के राजनीतिक गलियारों में फुटबाल की तरह उछाला जाता है। साम्प्रदायिक ताकतों ने जिस तरह से अयोध्या को लेकर अपने तुच्छ स्वार्थों की रोटी सेकी है, वो हमारे देश की धर्मनिरपेक्षता पर ही सवाल खड़ा कर देती है। अभी लिब्राहन आयोग की रिर्पोट ने फिर से इस आग को हवा देने का काम किया है। इसी वक्त संयोग से अयोध्या जाना हो गया। अयोध्या व फैजाबाद के कुछ साथी अमर शहीद अशफाक उल्ला खाँ व प. रामप्रसाद बिस्मिल की शहादत पर पिछले तीन सालों से हर साल एक फिल्म समारोह का आयोजन करते आ रहे है। इस फिल्म समारोह का उद्देश्य धार्मिक सौहादर्य व भाईचारे को बढावा देना है। जिस प्रकार से अमर शहीद अशफाक उल्ला व राम प्रसाद बिस्मिल ने धर्म से ऊपर उठकर अग्रेंजी हुकुमत से संघर्ष किया था, उसी सांझी विरासत को कायम करने के लिए आयोजित तीसरे अयोध्या फिल्म उत्सव में मुझे भी बुलाया गया।
फिल्म उत्सव के उदघाटनीय सत्र की समाप्ति के बाद मैंने दोस्तों से विवादित स्थल को देखने की इच्छा जताई। साथी गुफरान भाई ने अपनी मोटर साईकिल पर बैठाकर मुझे महतं युगलकिशोर शास्त्री जी के पास लाये और बोले मेरा जाना ठीक नहीं है, आप शास्त्री जी के किसी आदमी के साथ दर्शन कर आइये।’ शास्त्री जी ने एक आदमी को मेरे साथ कर दिया कि इन्हें दर्शन करा दीजिये। मैं, गुफरान भाई और शास्त्री जी के मित्र तीनों, शास्त्री जी के घर से कुछ ही कदम चले थे, कि पीछे से दो लोगों ने आकर रोक लिया गुफरान भाई ने अपना नाम बताया और कहा मैं फैजाबाद का रहने वाला हूँ। इतने मैं एक मेरी तरफ इशारा करके वाला ‘ तब तो यह जरुर कश्मीर के होंगे?’ मैंने पुछा,‘ आप कौन इस तरह हमारेे बारे में पुछने वाले?’ जवाबः ‘हम इंटेलिजेंस के आदमी है।’ दुसरे ने तुरन्त पुछा कि ,‘ तुम्हारा नाम क्या है?’ जब ‘संदीप’ नाम सुना तो उनका शक ओर गहरा हुआ। मेरी दाड़ी में उन्हें पता नही क्या-क्या दिखने लगा। कई उल्टे-पुल्टे सवाल पुछने लगे।
जब से दाड़ी आयी है तब से मुझे दाड़ी रखने का शौक रहा है मगर आज अहसास हुआ कि दाड़ी रखने से आम आदमी ही नहीं इंटेलिजेंस वाले भी शक की निगाहों से देखने लग जाते है। मेरे घर का पता, फोन नम्बर से
लेकर सब पुछताछ करने के बाद पहचान पत्र भी दिखाया मगर मेेरे पास ऐसा कोई लिखित दस्तावेज नहीं था कि जो उनके लिये प्रमाण बनता।
जिसमें लिखा हो कि मैं आंतकवादी नहीं हूँ। तुरन्त मेरी पहचान को लेकर जांच शुरु हो गई। अयोध्या आने से लेकर ठहरने तक के स्थानों की जाँच पडता शुरू। फिर मुझे विवादित जगह पर जाने के लिए तो बोल दिया मगर इंटेलिजेंस वाले 100 कदम की दूरी पर पिछे -पिछे चल रहे थे । हर पुलिस वाला मुझे नजर गड़ाकर देख रहा था। जब विवादित जगह पहंुचा तो सबकी थोड़ी- बहुत जांच कर रहे थे मगर दाड़ी को देखकर मेरी आधा घण्टे गेट पर ही पुरी जन्मपत्री खंखाली गई। जब गेट से आगे पहुंचा तो फिर पुलिस ने मुझे एक तरफ ले जाकर पुछताछ शुरू कर दी । मेरा पर्स निकाल कर तमाम कांटेक्ट नम्बरों को सर्च किया गया और मुझ से सवाल किया कि, ‘ये मीडिया के इतने नम्बर लेकर क्यूँ घूमते हो?’ इन सब का एक ही कारण था-दाड़ी। मेरे जेब से एक पुरानी रशीद निकली जो शर्ट के साथ धुलने के कारण उस पर कुछ लकीर सी देख रही थी। एक पुलिस वाला बोला,’ यह किसका नक्शा है।’ मैंने बताया कि कोई रसीद है जो शर्ट के साथ धुल गई। उस पुलिस वाले से मैंने सवाल किया कि ,‘आखिर आप मुझे इतना चैक क्यूं कर रहे है?’ उत्तर वही था कि तुम्हारी दाड़ी है और तुम आंतकवादी हो सकते है। जिन्दगी में पहली बार मुझे दाड़ी के महत्व का अहसास हो रहा था। आम आदमी कोई भी मुझे से दाड़ी को लेकर पुछताछ नहीं की मगर पुलिस ने तीन घण्टे तक एक ही सवाल में उलझाया रखा कि ‘ये दाड़ी क्यों है?’ अब मैं उन्हें कैसे समझाता कि भाई साहब! यह मेरा शौक है और आजाद भारत में कोई भी आदमी दाड़ी बढ़ा कर घूम सकता है।
जब विवादित ढांचे पर पंहुचा तो पण्डित भी प्रसाद देते हुए मुझे गौर से देख रहा था। मैं हाथ में प्रसाद लेकर बाहर निकल रहा था कि अचानक बन्दर ने मेरे हाथ से प्रसाद छीन लिया। मेरे दिल में आया कि भाई बन्दर ! ये दाड़ी भी दो -चार घण्टे के लिए तुम छीन कर ले जाओ तो इस मुसीबत से तो छुटकारा मिले। सुरक्षा के नाम पर सरकार 8 करोड़ रुपये हर महीने अयोध्या में खर्च करती है। मगर वहां के विकास का स्तर देख कर सब समझ में आ जाता है। खैर, सरकार जाने, उसकी सुरक्षा जाने पर मेरी दाड़ी पर तो कम से कम मेरा हक है कि मैं कटाऊँ या फिर बढ़ाऊँ। विवादित स्थल से बाहर निकले तो इंटेलिजेंस वाले तैयार खड़े थे, बोले,‘अब क्या प्लान है, सब जानकारी दो।’ मैने कहा,‘भाई! सीधा दिल्ली जाऊंगा।’
गुफरान भाई ने बताया कि स्थिति बहुत भयानक है, धर्म के ठेकेदारों के साथ-साथ पुलिस भी हिटलरशाही के रंग में रंगी हुई। शाम को जब ट्रेन से
वापस लौट रहा था तब विदा करते समय गुफरान भाई ने कहा था,‘ संदीप भाई! दाड़ी बनवा लेना यार .....................
जनसता 9 फरवरी 2010 को प्रकाषित
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सोमवार, 31 मई 2010
एक सच यह भी
राजस्थान के शहरों में घूमते हुए राजशाही के पुराने निशान देखने पर दिमाग में उस ज़माने कि तस्वीर कौंध जाती है जिस समय इनको बनाया गया था क्यूंकि महल, किले, झील और अन्य राजशाही निशां बनाने के पीछे विलासिता के अलावा एक तर्क ये भी था कि इनके माध्यम से राजघराने जनता में अपना प्रभुत्व व शानों शौकत बरक़रार रखना चाहते थे. क्यूंकि उनके पास इनके अलावा अन्य कोई कार्य नहीं था, युद्ध, वीरता और रणभूमि तो पुराने शब्दकोषों कि शोभा बढ़ा रहे थे जिन्हें इतिहास को याद रखने के लिए चारण और भाटों को पैसा दे कर गवाया जाता था. यूरोपीय राजघरानों कि तरह राजस्थान के राजघराने भी आपस में 'रोटी और बेटी' का सम्बन्ध रखते थे, इसके अलावा सबसे बड़ा सम्बन्ध एक दुसरे के हितों कि रक्षा करना भी था. अकलराहत कार्यों के नाम पर बनवाए गये यह महल अपने पीछे शोषण की एक दास्ताँ को भी छुपाये हुए है. बेगार और बंधुआ जैसे शब्दों की उत्पति के बीज भी इन हवेलियों की नीवों में दबे पड़े है. सालभर में आमदमी पर 40 - 45 प्रकार के कर लगाये जाते थे जिनकी वसूली की कई कड़ियाँ थी जो अपने अपने स्तर पर अमानवीय रूप से शोषण करती थी.
मुल्क की आजादी के वक्त अंग्रेजों के साथ साथ इनके राज्य का सूर्य भी अनंतकाल के लिए अस्त हो गया. जिस समय मुल्क में आजादी की खुशियाँ मनाई जा रही थी उस समय इनके महलों के नगाड़े ओंधे पड़े थे.अपने राज्य को भारतीय संघ में विलय करवाने हेतु विलय संधि पर हस्ताक्षर करने गए जोधपुर नरेश की पहनी हुई काली पगड़ी सभी रजवाड़ों की मनोस्तिथि बयां कर रही थी.
आजादी के साथ व्यवस्था तो बदल गयी लेकिन रजवाड़ों की मानसिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया जिसका उदहारण आपको राजस्थान के छोटे से गाँव से लेकर भूतपूर्व रियासतों में देख सकते है, एक गाँव के राजपूत के पास खाने के लाले पड़ते है मगर वो खुद को रावला कहलाना ही पसंद करता है और चाहता है की हर कोई आकर ड्योढ़ी पर माथा झुकाए, यही हाल भूतपूर्व रियासतों के है जिनकी बहुत सी सम्पति तो दारू और पता नहीं कहाँ कहाँ उड़ गयी और जो बची खुची चोरवाली लंगोट है उसके दमपर अब भी राजस्थान को राजपुताना बनाने के ख्वाब देखते है. परन्तु जो बड़ी रियासतें है जिनके पूर्वज नरेश अंग्रेजों के क़दमों में अपनी पगड़ी गिरवी रखकर अंग्रेजों की मेहरबानी पर राजकरने के भ्रम में अपनी मूछें मरोड़ते थे( दूसरों की तो मरोड़ नहीं सकते थे).
आज की तारीख में हम उन रियासतों के वारिसों को देखते है तो पता चलता है कि उन्हें अपने पूर्वजों से क्या सीख मिली है. भारतीय न्याय व्यवस्था पर बोझ बनकर पड़ी हुई इनकी फर्जी मुकदमें, फर्जी वसीयतें, फर्जी वारिस और गुजरे ज़माने कि शानो शौकत बनाये रखने कि फर्जी कोशिश को देखकर हमें पता चलता है कि 15 वि सदी में इतना प्रगतिशीलता कि जड़े कहाँ से फूटी कि अपनी बेटी को दुसरे धर्म में ब्याह दिया.
मुल्क की आजादी के वक्त अंग्रेजों के साथ साथ इनके राज्य का सूर्य भी अनंतकाल के लिए अस्त हो गया. जिस समय मुल्क में आजादी की खुशियाँ मनाई जा रही थी उस समय इनके महलों के नगाड़े ओंधे पड़े थे.अपने राज्य को भारतीय संघ में विलय करवाने हेतु विलय संधि पर हस्ताक्षर करने गए जोधपुर नरेश की पहनी हुई काली पगड़ी सभी रजवाड़ों की मनोस्तिथि बयां कर रही थी.
आजादी के साथ व्यवस्था तो बदल गयी लेकिन रजवाड़ों की मानसिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया जिसका उदहारण आपको राजस्थान के छोटे से गाँव से लेकर भूतपूर्व रियासतों में देख सकते है, एक गाँव के राजपूत के पास खाने के लाले पड़ते है मगर वो खुद को रावला कहलाना ही पसंद करता है और चाहता है की हर कोई आकर ड्योढ़ी पर माथा झुकाए, यही हाल भूतपूर्व रियासतों के है जिनकी बहुत सी सम्पति तो दारू और पता नहीं कहाँ कहाँ उड़ गयी और जो बची खुची चोरवाली लंगोट है उसके दमपर अब भी राजस्थान को राजपुताना बनाने के ख्वाब देखते है. परन्तु जो बड़ी रियासतें है जिनके पूर्वज नरेश अंग्रेजों के क़दमों में अपनी पगड़ी गिरवी रखकर अंग्रेजों की मेहरबानी पर राजकरने के भ्रम में अपनी मूछें मरोड़ते थे( दूसरों की तो मरोड़ नहीं सकते थे).
आज की तारीख में हम उन रियासतों के वारिसों को देखते है तो पता चलता है कि उन्हें अपने पूर्वजों से क्या सीख मिली है. भारतीय न्याय व्यवस्था पर बोझ बनकर पड़ी हुई इनकी फर्जी मुकदमें, फर्जी वसीयतें, फर्जी वारिस और गुजरे ज़माने कि शानो शौकत बनाये रखने कि फर्जी कोशिश को देखकर हमें पता चलता है कि 15 वि सदी में इतना प्रगतिशीलता कि जड़े कहाँ से फूटी कि अपनी बेटी को दुसरे धर्म में ब्याह दिया.
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