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गुरुवार, 17 जून 2010
अनकहा सच
हमारे समय का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि जो सच है वो कह नहीं पातें है और जो कहते है वो सच नहीं है. नहीं कह पाने और जो कहते है उसके बिच में इतना बड़ा फासला है कि उसको समझने के लिए उन तत्वों को समझना जरूरी है जो सच पर पर्दा डाल देते है. असल में हमारे समाज में बहुत बड़ा विरोधाभाष है कि हमें नेता तो चाहिए टाई बांधने वाला और बड़ी बड़ी गाड़ियों में चलने वाला मगर हम उससे यह भी आशा करते है कि वो गरीबो और समाज के पिछड़े लोगों के बीच में आकर उनकी समस्याओं को सुने और समाधान निकाले. यह कैसे संभव है? क्यूंकि न ही तो जनता उससे खुद को जोड़ पायेगी और न ही वो नेता उनकी समस्याओं को समझ पायेगा. लोकतंत्र में इसका तीसरा विकल्प भी तलाशा गया और उस तीसरे विकल्प में है कि एक ऐसा वर्ग तैयार किया गया है जो भाषा तो नेता और जनता दोनों कि समझाता है मगर उसका चेहरा दोनों से ही मेल नहीं खता है. बिना जनता कि बहुमत के वो सता के तमाम सुख भी भोगता है और बिना एक कांटा निकाले जनता का सेवक भी बन जाता है. आप इसे दलाल भी कह सकते है . सडकों से लेकर संसद तक तमाम ठेके इसके नाम पर ही अलोट होते है और आप यह भी जानते होंगे कि देश के तमाम काम आजकल ठेकों पर चल रहे है. यह ठेकेदार विभिन्न रूप में हमारे समाज में मौजूद है , अमेरिका से लेकर नारनोल तक इसके चेले छपते लोग बैठे हुए है . हम सब इन दलालों को जानते है और चुप भी है. घर बैठ कर आराम से तमाम राजनैतिक (जिनकी कोई नैतिकता नहीं है) पार्टियों को गली भी देते रहते है और चुनाव के समय आँख बंद कर ठपा( आजकल बटन) भी लगा देतें है. कैसा समय है और कैसे कैसे लोग है कि चारों और शोर है फिर भी एक छुपी सी लगती है.
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