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बुधवार, 2 जून 2010
आधी अँधेरी दुनियां
समाज में चेतना, जागरूकता और षिक्षा फैलाने वाले यंत्र कम होते जा रहे है, जबकि अंधविष्वास और पाखंड नई तकनीक के सहारे बढ़ते जा रहे है। कई सारे टी. वी. चैनलों का उदाहरण दिया जा सकता है जो बिना तर्क व तथ्यों के सुबह से लेकर शाम तक लोगों को मानसिक रूप से विकलांग बनाते रहते है। संचार के माध्यमों का समाज के विकास में बहुत बड़ा योगदान होता है मगर हमारे संचार तंत्र उपभोक्तावादी संस्कृति के षिकार होकर सामाजिक जिम्मेदारीयों से दूर होते जा रहे है। टी. वी. चैनलो पर टी. आर. पी. बढ़ाने के चक्कर में ऐसे प्रोग्राम पेष किये जाते है, जिनका नैतिकता और सामाजिक सरोकारों से कोई लेना देना नहीं होता है। संचार के माध्यमों का उदेष्य केवल मात्र मनोरंजन कराना ही नहीं होता है बल्कि समाज में व्याप्त बुराईयों के प्रति लोगों को जागरूक करना भी होता है। हालांकि कुछ कार्यक्रम सामाजिक विद्रुपताओं पर भी बनाये जाते है, मगर उनकी पैकेजिंग और सृजनात्मक प्रक्रिया बाकि के कार्यक्रमों से निम्न स्तर की होती है जिसके कारण उनमें लोगों की रूची नहीं बन पाती है। मसलन पहले टी. वी. को एक सामाजिक बदलाव के सषक्त माध्यम के रूप में देखा जाता था और वो था भी। लेकिन अब टी. वी. चैनलों पर बाजार का इतना ज्यादा दवाब आ गया है कि वो एक स्वायत निकाय की जगह बाजार का हिस्सा बन गये है। टी. वी. चैनलों को देष की सामाजिक स्थिति में अपनी भूमिका फिर से तय करनी चाहिये ताकि विकास में उनकी सकारात्मक मौजूदगी रहे।
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