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बुधवार, 27 अगस्त 2008

शब्दों का जाल

शब्द
या शब्दों का जाल
एक ही तो है
शरारत
खामोशी को तोड़ने की
कभी हंसा देते है
कभी रुला देते
और क्या बताऊ
कभी तो सिंहासन
हिल्ला देते है
बस जरूरत है
लय में पिरोने की

प्रतिबिम्ब

कितने गुजर गए
इस राह से
दादा बाप बेटा
यह निर्जीव
देखता रहा
उनके पैरो को
पैरो के निशानों को
उड़ती धुल को
सब एक जैसे ही
आते और निकल जाते
एक दिन
उसने सर उठाकर
चेहरे की तरफ देखा
चौंक गया
अपना ही प्रतिबिम्ब देखकर

एक नकाब

एक नकाब
दो चहरे
गली से महल
चौराहे से अदालत
हर जगह वहम
असली या नकली
तभी एक चेहरा
झुरिया भूख की
नाचती आंखे
डरावना
सूखे पैरो से चलता
लड़खडाता, संभलता
अचानक सामने आ गया

शाम - सुबह

शाम - सुबह
महीने - वर्षों
हांकता रहा
बस हांकता रहा
लाठी के सहारे
सदाचार के नाम
वे खामोश
चलते रहे
बस चलते रहे
रसोई, झाडू -बिस्तर
इतना ही सफर
मगर आज तोड़कर
सदाचार का चश्मा
भय का पिंजरा
उड़ रहे है
बस उड़ रहे है
नई सुबह की ओर