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बुधवार, 27 अगस्त 2008

शाम - सुबह

शाम - सुबह
महीने - वर्षों
हांकता रहा
बस हांकता रहा
लाठी के सहारे
सदाचार के नाम
वे खामोश
चलते रहे
बस चलते रहे
रसोई, झाडू -बिस्तर
इतना ही सफर
मगर आज तोड़कर
सदाचार का चश्मा
भय का पिंजरा
उड़ रहे है
बस उड़ रहे है
नई सुबह की ओर

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