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सोमवार, 19 जुलाई 2010

शहर के हकदार


राष्ट्रमंडल खेलों के पीछे एक तर्क यह भी है कि सरकार इन खेलों की आड़ में बहुत से मुद्दो को भुनाना चाहती है, जैसे- पुनर्वास व पलायन जैसी समस्याओं को। इसी कड़ी में दिल्ली को झुग्गी - झोपड़ी मुक्त बनाने के नाम पर गरीब झुग्गीवासीयों को गुमराह करने की कोषिष की जा रही है। लोगों को उजाड़ने वाले इस तंत्र ने अपना काम शुरू कर दिया है, दिल्ली सरकार ने राजीव रत्न आवास योजना के अंतर्गत 7900 फ्लैटों के आवंटन की घोषणा की है जिसके तहत 44 झुग्गी कालोनियों को फ्लैट आवंटन का कार्य शुरू हो गया है। अब सवाल उठता है कि क्या वास्तव में सरकार झुग्गी कालोनियों की समस्या को दूर करना चाहती है?
अगर इन 44 झुग्गी कालोनियों को जनसंख्या व परिवारों की गणना के आधर पर फ्लैट आवंटन किया जाये तो दो झुग्गी कालोनियों को भी यह फ्लैट कम पड़ेंगे, पुनर्वास नीति के तहत यह प्रावधान है कि 18 साल के व्यस्क को भी सरकार अलग से फ्लैट मुहैया कराये, जैसा राजगीर व खांडवा में हुआ था। मगर सरकार ऐसा नहीं करती क्योंकि दरअसल सरकारे ये चाहती नहीं कि मजदूरों की स्थिति में कोई सुधार हो। हर शहर के विस्तार का एक चरित्र व एक रफ्तार होती है। जो जगह रहने लायक नहीं होती, वहां पर मजदूरों को बसाया जाता है और जब मजदूर अपने खून पसीने से उस जगह को रहने लायक व साफ सुथरा बना लेते है तब किसी तथाकथित बहाने के नाम पर सरकारें वहां से मजदूरों को बेदखल कर देती है। अगर दिल्ली के विस्तार की कहानी को भी गहराई से देखा जाये तो यही बात सामने आती है कि कभी एषियार्ड व कभी किसी अन्य प्रोजेक्ट के नाम पर मजदूरों की जमीन को लगातार हथियाया जा रहा है। जहां पर इन झुग्गी कालोनियों को बसाया जाता है, वहां की स्थिति को देखने से साफ जाहिर है कि यहां पर न तो कोई मूलभूत सुविधाएं है और न ही कोई मानवाधिकार। सरकार चाहती भी नहीं कि इन झुग्गी कालोनियों की स्थिति को सुधारा जाये, इनमें से बहुत सी झुग्गी कालोनियां ऐसी भी है चुनावों से पहले तो वैध हो जाती है और चुनाव के बाद वापस अवैध हो जाती है। वोट लेने के वक्त बहुत से लुभावन वादे किये जाते है मगर चुनाव होते ही सब इनसे आंख भौहें सिकोड़ने लग जाते है। सबसे आष्चर्यजनक बात है कि हर साल एक बड़ी तादात में मजदूर रोजगार की तलाष मे दिल्ली आते है लेकिन सरकार के पास दिल्ली की आवासीय स्थिति को लेकर कोई ठोस रणनीति नहीं है। न तो सरकारे गांव से शहर की ओर हो रहे इस अंधाधुंध पलायन के कारणों का निवार्ण कर रही है और न ही शहर में इन मजदूरों की बेहतर जींदगी का कोई प्रयास।
जब तक गांव में रोजगार के साधनों का निर्माण नहीं किया जाता है तब तक पलायन को रोकना मुष्किल है क्योकि देष के एक बहुत बड़े इलाके में लगाातार बाढ़ व सूखे का प्रकोप रहता और सरकार की उदासीनता के कारण इन प्रकोपों से प्रभावित लोगों को कोई राहत नहीं मिल पाती है। हालांकि कागजों में तो बहुत सी योजनाएं व पैकेज उपलब्ध कराये जाते है मगर जमीनी हकिकत पर कुछ नहीं मिलता है। ऐसी स्थिति में गांव से शहर की और पलायन के अलावा कोई दूसरा रास्ता ही नहीं बचता है। मसला यह भी है कि एक तरफ सता यह भी चाहती है कि ज्यादा से ज्यादा मजदूर गांव से शहर आये क्योंकि तभी तो उन्हें सस्ते मजदूर मिल पायेंगे, जिससे शहर को सजाया जा सके और कामनवेल्थ जैसे रौनकी कार्यक्रम किये जा सके और दूसरी तरफ यह भी चाहती है कि ये शहर में दिखाई देकर उनकी झूठी शान में खलल भी न डालें। असली शहर इन मजदूरों से ही चलता है और ये ही इसके हकदार है। महलों से लेकर सड़को तक सब कुछ बनाने के पीछे जो हाथ होते है उन्हे हेय दृष्टी से देखा जाता है।
इस देष में क्रिकेट और कामनवेल्थ की झूठी शान पर तो खर्च करने के लिये सरकारों के पास करोड़ों का बजट आ जाता है और इन झुग्गी कालोनियों वालों के जीवनस्तर को सुधारने व सामाजिक सुरक्षा के नाम पर सरकारी ख्जाना हाथ खड़े कर देता है। गांव शहर की तरफ आने का मतलब होना चाहिए कि एक बेहतर जींदगी की ओर प्रस्तान मगर आज इसके उलटा हो रहा है, शहर की तरफ मजबूरी आना पड़ता है क्योंकि आजादी से लेकर आज तक लगातार ऐसी ही परिस्थितियां बनाई जा रही है की चंद लोगों की खुषी के लिये गांवों को तबाह करके शहर के आसपास मजदूरों को बेहाल छोड़ दिया जाये, जो दिल्ली से लेकर भारत के सभी बड़े और मध्यम शहरों की स्थिती है।

दिल्ली को झुग्गी - झोपड़ी मुक्त बनाने के लिये फ्लैट देना इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। जब तक गांवों में पर्याप्त रोजगार के अवसर नहीं बढाये गये और शहरों में मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा व मूलभूत सुविधाएं नहीं दी जाती तब तक समस्या ऐसे ही बनी रहेगी।