Ads for Indians

सोमवार, 31 मई 2010

दाड़ी का दर्द

‘अयोध्या’ हमेशा से इस देश के राजनीतिक गलियारों में फुटबाल की तरह उछाला जाता है। साम्प्रदायिक ताकतों ने जिस तरह से अयोध्या को लेकर अपने तुच्छ स्वार्थों की रोटी सेकी है, वो हमारे देश की धर्मनिरपेक्षता पर ही सवाल खड़ा कर देती है। अभी लिब्राहन आयोग की रिर्पोट ने फिर से इस आग को हवा देने का काम किया है। इसी वक्त संयोग से अयोध्या जाना हो गया। अयोध्या व फैजाबाद के कुछ साथी अमर शहीद अशफाक उल्ला खाँ व प. रामप्रसाद बिस्मिल की शहादत पर पिछले तीन सालों से हर साल एक फिल्म समारोह का आयोजन करते आ रहे है। इस फिल्म समारोह का उद्देश्य धार्मिक सौहादर्य व भाईचारे को बढावा देना है। जिस प्रकार से अमर शहीद अशफाक उल्ला व राम प्रसाद बिस्मिल ने धर्म से ऊपर उठकर अग्रेंजी हुकुमत से संघर्ष किया था, उसी सांझी विरासत को कायम करने के लिए आयोजित तीसरे अयोध्या फिल्म उत्सव में मुझे भी बुलाया गया।
फिल्म उत्सव के उदघाटनीय सत्र की समाप्ति के बाद मैंने दोस्तों से विवादित स्थल को देखने की इच्छा जताई। साथी गुफरान भाई ने अपनी मोटर साईकिल पर बैठाकर मुझे महतं युगलकिशोर शास्त्री जी के पास लाये और बोले मेरा जाना ठीक नहीं है, आप शास्त्री जी के किसी आदमी के साथ दर्शन कर आइये।’ शास्त्री जी ने एक आदमी को मेरे साथ कर दिया कि इन्हें दर्शन करा दीजिये। मैं, गुफरान भाई और शास्त्री जी के मित्र तीनों, शास्त्री जी के घर से कुछ ही कदम चले थे, कि पीछे से दो लोगों ने आकर रोक लिया गुफरान भाई ने अपना नाम बताया और कहा मैं फैजाबाद का रहने वाला हूँ। इतने मैं एक मेरी तरफ इशारा करके वाला ‘ तब तो यह जरुर कश्मीर के होंगे?’ मैंने पुछा,‘ आप कौन इस तरह हमारेे बारे में पुछने वाले?’ जवाबः ‘हम इंटेलिजेंस के आदमी है।’ दुसरे ने तुरन्त पुछा कि ,‘ तुम्हारा नाम क्या है?’ जब ‘संदीप’ नाम सुना तो उनका शक ओर गहरा हुआ। मेरी दाड़ी में उन्हें पता नही क्या-क्या दिखने लगा। कई उल्टे-पुल्टे सवाल पुछने लगे।
जब से दाड़ी आयी है तब से मुझे दाड़ी रखने का शौक रहा है मगर आज अहसास हुआ कि दाड़ी रखने से आम आदमी ही नहीं इंटेलिजेंस वाले भी शक की निगाहों से देखने लग जाते है। मेरे घर का पता, फोन नम्बर से
लेकर सब पुछताछ करने के बाद पहचान पत्र भी दिखाया मगर मेेरे पास ऐसा कोई लिखित दस्तावेज नहीं था कि जो उनके लिये प्रमाण बनता।
जिसमें लिखा हो कि मैं आंतकवादी नहीं हूँ। तुरन्त मेरी पहचान को लेकर जांच शुरु हो गई। अयोध्या आने से लेकर ठहरने तक के स्थानों की जाँच पडता शुरू। फिर मुझे विवादित जगह पर जाने के लिए तो बोल दिया मगर इंटेलिजेंस वाले 100 कदम की दूरी पर पिछे -पिछे चल रहे थे । हर पुलिस वाला मुझे नजर गड़ाकर देख रहा था। जब विवादित जगह पहंुचा तो सबकी थोड़ी- बहुत जांच कर रहे थे मगर दाड़ी को देखकर मेरी आधा घण्टे गेट पर ही पुरी जन्मपत्री खंखाली गई। जब गेट से आगे पहुंचा तो फिर पुलिस ने मुझे एक तरफ ले जाकर पुछताछ शुरू कर दी । मेरा पर्स निकाल कर तमाम कांटेक्ट नम्बरों को सर्च किया गया और मुझ से सवाल किया कि, ‘ये मीडिया के इतने नम्बर लेकर क्यूँ घूमते हो?’ इन सब का एक ही कारण था-दाड़ी। मेरे जेब से एक पुरानी रशीद निकली जो शर्ट के साथ धुलने के कारण उस पर कुछ लकीर सी देख रही थी। एक पुलिस वाला बोला,’ यह किसका नक्शा है।’ मैंने बताया कि कोई रसीद है जो शर्ट के साथ धुल गई। उस पुलिस वाले से मैंने सवाल किया कि ,‘आखिर आप मुझे इतना चैक क्यूं कर रहे है?’ उत्तर वही था कि तुम्हारी दाड़ी है और तुम आंतकवादी हो सकते है। जिन्दगी में पहली बार मुझे दाड़ी के महत्व का अहसास हो रहा था। आम आदमी कोई भी मुझे से दाड़ी को लेकर पुछताछ नहीं की मगर पुलिस ने तीन घण्टे तक एक ही सवाल में उलझाया रखा कि ‘ये दाड़ी क्यों है?’ अब मैं उन्हें कैसे समझाता कि भाई साहब! यह मेरा शौक है और आजाद भारत में कोई भी आदमी दाड़ी बढ़ा कर घूम सकता है।
जब विवादित ढांचे पर पंहुचा तो पण्डित भी प्रसाद देते हुए मुझे गौर से देख रहा था। मैं हाथ में प्रसाद लेकर बाहर निकल रहा था कि अचानक बन्दर ने मेरे हाथ से प्रसाद छीन लिया। मेरे दिल में आया कि भाई बन्दर ! ये दाड़ी भी दो -चार घण्टे के लिए तुम छीन कर ले जाओ तो इस मुसीबत से तो छुटकारा मिले। सुरक्षा के नाम पर सरकार 8 करोड़ रुपये हर महीने अयोध्या में खर्च करती है। मगर वहां के विकास का स्तर देख कर सब समझ में आ जाता है। खैर, सरकार जाने, उसकी सुरक्षा जाने पर मेरी दाड़ी पर तो कम से कम मेरा हक है कि मैं कटाऊँ या फिर बढ़ाऊँ। विवादित स्थल से बाहर निकले तो इंटेलिजेंस वाले तैयार खड़े थे, बोले,‘अब क्या प्लान है, सब जानकारी दो।’ मैने कहा,‘भाई! सीधा दिल्ली जाऊंगा।’
गुफरान भाई ने बताया कि स्थिति बहुत भयानक है, धर्म के ठेकेदारों के साथ-साथ पुलिस भी हिटलरशाही के रंग में रंगी हुई। शाम को जब ट्रेन से
वापस लौट रहा था तब विदा करते समय गुफरान भाई ने कहा था,‘ संदीप भाई! दाड़ी बनवा लेना यार .....................
जनसता 9 फरवरी 2010 को प्रकाषित

एक सच यह भी

राजस्थान के शहरों में घूमते हुए राजशाही के पुराने निशान देखने पर दिमाग में उस ज़माने कि तस्वीर कौंध जाती है जिस समय इनको बनाया गया था क्यूंकि महल, किले, झील और अन्य राजशाही निशां बनाने के पीछे विलासिता के अलावा एक तर्क ये भी था कि इनके माध्यम से राजघराने जनता में अपना प्रभुत्व व शानों शौकत बरक़रार रखना चाहते थे. क्यूंकि उनके पास इनके अलावा अन्य कोई कार्य नहीं था, युद्ध, वीरता और रणभूमि तो पुराने शब्दकोषों कि शोभा बढ़ा रहे थे जिन्हें इतिहास को याद रखने के लिए चारण और भाटों को पैसा दे कर गवाया जाता था. यूरोपीय राजघरानों कि तरह राजस्थान के राजघराने भी आपस में 'रोटी और बेटी' का सम्बन्ध रखते थे, इसके अलावा सबसे बड़ा सम्बन्ध एक दुसरे के हितों कि रक्षा करना भी था. अकलराहत कार्यों के नाम पर बनवाए गये यह महल अपने पीछे शोषण की एक दास्ताँ को भी छुपाये हुए है. बेगार और बंधुआ जैसे शब्दों की उत्पति के बीज भी इन हवेलियों की नीवों में दबे पड़े है. सालभर में आमदमी पर 40 - 45 प्रकार के कर लगाये जाते थे जिनकी वसूली की कई कड़ियाँ थी जो अपने अपने स्तर पर अमानवीय रूप से शोषण करती थी.
मुल्क की आजादी के वक्त अंग्रेजों के साथ साथ इनके राज्य का सूर्य भी अनंतकाल के लिए अस्त हो गया. जिस समय मुल्क में आजादी की खुशियाँ मनाई जा रही थी उस समय इनके महलों के नगाड़े ओंधे पड़े थे.अपने राज्य को भारतीय संघ में विलय करवाने हेतु विलय संधि पर हस्ताक्षर करने गए जोधपुर नरेश की पहनी हुई काली पगड़ी सभी रजवाड़ों की मनोस्तिथि बयां कर रही थी.
आजादी के साथ व्यवस्था तो बदल गयी लेकिन रजवाड़ों की मानसिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया जिसका उदहारण आपको राजस्थान के छोटे से गाँव से लेकर भूतपूर्व रियासतों में देख सकते है, एक गाँव के राजपूत के पास खाने के लाले पड़ते है मगर वो खुद को रावला कहलाना ही पसंद करता है और चाहता है की हर कोई आकर ड्योढ़ी पर माथा झुकाए, यही हाल भूतपूर्व रियासतों के है जिनकी बहुत सी सम्पति तो दारू और पता नहीं कहाँ कहाँ उड़ गयी और जो बची खुची चोरवाली लंगोट है उसके दमपर अब भी राजस्थान को राजपुताना बनाने के ख्वाब देखते है. परन्तु जो बड़ी रियासतें है जिनके पूर्वज नरेश अंग्रेजों के क़दमों में अपनी पगड़ी गिरवी रखकर अंग्रेजों की मेहरबानी पर राजकरने के भ्रम में अपनी मूछें मरोड़ते थे( दूसरों की तो मरोड़ नहीं सकते थे).
आज की तारीख में हम उन रियासतों के वारिसों को देखते है तो पता चलता है कि उन्हें अपने पूर्वजों से क्या सीख मिली है. भारतीय न्याय व्यवस्था पर बोझ बनकर पड़ी हुई इनकी फर्जी मुकदमें, फर्जी वसीयतें, फर्जी वारिस और गुजरे ज़माने कि शानो शौकत बनाये रखने कि फर्जी कोशिश को देखकर हमें पता चलता है कि 15 वि सदी में इतना प्रगतिशीलता कि जड़े कहाँ से फूटी कि अपनी बेटी को दुसरे धर्म में ब्याह दिया.

बुधवार, 26 मई 2010

इंटरनेट पर छाई राजस्थानी

राजस्थानी भाषा विश्वविख्यात है। इसका एक कारण इंटरनेट है, जहां राजस्थानी को हर किसी ने चाहा तथा सम्मान दिया है। सरकारी वेबसाइटों पर भी अब राजस्थानी देखने को मिल रही हैं। श्रीगंगानगर जिला इस पहल को शुरुआत करने वाला पहला जिला है। इस जिले की सरकारी वेबसाईट पर राजस्थानी को सबसे पहले शामिल किया गया है। इंटरनेट पर राजस्थानी को अपनी पहचान दिलाने के लिए ब्लॉग एक सशक्त माध्यम बनकर उभरा है, इनकी संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है।
राजस्थानी के ब्लॉग जो अभी तक सामने आएं हैं, उनमें राजस्थान की भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के साथ-साथ दूसरे विषयों की जानकारी भी देखने में आती हैं। इंटरनेट पर राजस्थानी की जो वेब-पत्रिकाएं सामने आई हैं, वे इस प्रकार हैं- सत्यनारायण सोनी और विनोद स्वामी संपादित 'आपणी भाषा-आपणी बात', राव गुमानसिंह राठौड़ का 'राजस्थानी ओळखांण', पतासी काकी का 'ठेठ देशी', नीरज दईया की मासिक वेब पत्रिका 'नेगचार', मायामृग का 'बोधि वृक्ष' आदि।
राजस्थानी के रचनाकारों के ब्लॉग में- ओम पुरोहित 'कागद', रामस्वरूप किसान का राजस्थानी कहानियों का ब्लॉग, दुलाराम सहारण का राजस्थानी की प्रकाशित पुस्तकों की सूची, संदीप मील का 'राजस्थानी हाईकू', राव गुमानसिंह राठौड़ के 'राजिया रा दूहा', 'सुणतर संदेश', डॉ. सत्यनारायण सोनी की राजस्थानी कहानियां, शिवराज भारतीय का 'ओळूं', संग्राम सिंह राठौड़ का 'स्व. चंद्रसिंह बिरकाळी री रचनावां', डॉ. मदनगोपाल लढ़ा का 'मनवार', पूर्ण शर्मा 'पूरण' का 'मायड़ भाषा', डॉ. मंगत बादल, जितेन्द्र कुमार सोनी 'प्रयास' का 'मुळकती माटी', राजूराम बिजारणियां, कवि अमृतवाणी का 'राजस्थानी कविता कोश', नीरज दईया के 'सांवर दईया', 'राजस्थानी ब्लॉगर', डॉ. दुष्यंत का 'रेतराग', रवि पुरोहित का 'राजस्थली', दीनदयाल शर्मा का 'टाबर टोळी', 'गट्टा रोळी', राजेन्द्र स्वर्णकार का 'शस्वरं', अंकिता पुरोहित का 'कागदांश', किरण राजपुरोहित 'नितिला', संतोष पारीक का 'सांडवा', अजय कुमार सोनी का 'भटनेर' आदि।
इंटरनेट पर राजस्थानी की मूल रचनाएं तथा अनूदित रचनाएं बहुत सी पत्रिकाओं में निरंतर छपती रहती हैं। जिनमें- 'हिन्दी कविता कोश', नरेश व्यास का 'आखर कलश', प्रेमचंद गांधी का 'प्रेम का दरिया', रविशंकर श्रीवास्तव का 'रचनाकार'।
राजस्थानी भाषा की मान्यता से जुड़े मुद्दों पर चर्चा के ब्लॉग भी हैं। जिनमें- कुंवर हनवंतसिंह राजपुरोहित के 'मरुवाणी', 'म्हारो मरूधर देश', विनोद सारस्वत का 'मायड़ रो हेलो', सागरचंद नाहर का 'राजस्थली', अजय कुमार सोनी के 'मायड़ रा लाल', 'राजस्थानी रांधण', राजस्थानी का 'राजस्थानी वातां' ब्लॉग, राजस्थानी गीत गायक प्रकाश गांधी और जितेन्द्र कुमार सोनी के भी राजस्थानी ब्लॉग हैं।
इंटरनेट पर कई गांवों के भी ब्लॉग हैं जो राजस्थानी में हैं- 'आपणो गांव परळीको'। 'मेरा गांव भगतपुरा' की माध्यम भाषा तो हिन्दी है, परन्तु राजस्थानी चित्र, ऑडिया-वीडियो भी हैं। अब तो अत्यंत खुशी की बात है कि जल्द ही ऑनलाईन राजस्थानी टेलिविजन और रेडियो खुलने वाले हैं। जिन पर राजस्थानी में ही प्रसारण किया जाएगा। जिसकी पंहुच प्रवासी राजस्थानियों तक भी होगी। ऑनलाईन राजस्थानी टेलिविजन बतौर प्रयोग शुरू कर दिया गया है, जिसमें अभी रोजाना राजस्थानी गीत लगाए जाते हैं। इसका नाम अभी 'मरुवाणी' रखा गया है और इसके सूत्रधार कुंवर हनवंतसिंह राजपुरोहित हैं जो लंदन में अपना कारोबार करते हैं।
केन्द्र सरकार की उदासीनता के चलते राजस्थानी की मान्यता का सवाल अधरझूल में पड़ा है। इन उपलब्धियों को देखते हुए केन्द्र सरकार को चाहिए कि वह राजस्थानी भाषा को तत्काल संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करे।
मोबाईल नंबर- 96729-90948
अजय कुमार सोनी 'मोट्यार', परलीका

सोमवार, 24 मई 2010

कुछ तो बचा लें

आज भारतीय जनतंत्र पर जो खतरा पैदा हुआ है, उसका मुख्य कारण पूंजीवादी ताकतों के दवाब में आकर भारतीय परिस्थियों को समझे बगैर नवउदारवादी नीतियों व भूमंडलीकरण को अपनाना है. हालाँकि भारत में प्रचलित जनतंत्र सिर्फ नाम भर का जनतंत्र रह गया है जिसमे जनता वोट को रस्म के तौर पर निभाती है, उसे यह तो पता है कि ड़ो बुराइयों में से एक बुराई का चुनना है मगर अभी तक ड़ो बुराइयों के अलावा तीसरे विकल्प का रास्ता नहीं तलाश पाई. जनतंत्र कि रीड जनतांत्रिक संस्थाए होती है मगर आज उन संस्थाओं को जनतंत्र विरोधी ताकतों द्वारा भीतर व बाहर से हमलों का सामना करना पड़ रहा है, जिससे सबसे पहले स्वच्छ बहस कि परम्परा को नस्त किया जा रहा है. अगर जनतंत्र के ऊपरी पायदान से बात शुरू करके पंचायत तक देखा जाये तो सामान स्थिति है. आप इसे अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता का हनन भी कह सकते है. हर जगह व्याप्त शोषण के खिलाफ जहाँ भी आवाज़ उठाई जाती है तो सता द्वारा आतंक के नाम पर दबा दिया जाता है. खुली बहस कि परम्परा का अंत करने के लिए सताधारियों द्वारा छात्र राजनीति से लेकर मीडिया तक को कब्जे में करने का जाल बिछा लिया है. छात्र राजनीति को सबसे पहले तो राजनीतिक स्वार्थों के चलते गुंडई रंग में रंग दिया गया और उसके बाद भी पूंजीवादी ताकतों को लगा कि अभी भी इससे सत्ता को से इसलिए भी खतरा है कि ये कभी भी आन्दोलन का रूप ले सकते है. इसलिए राजनीति का रूप प्राथमिक रूप को ही धन बल के जाल में फसाकर विद्रोह के तमाम रस्ते बंद कर के दिए गए. यही हालत प्राथमिक पंचायत संस्थाओं के है, जिन्हें देकर एक बार तो गांधी जी भी शर्म के मारे पचायत व्यवथा के सिद्धांत को रो रहे होंगे. खैर, जो भी हो आज फिर से देश कि जनतांत्रिक परम्पराओं को बचाने के लिए कम से कम स्वतंत्र बहस कि चौपालों को बचाना होगा वरना ये लाइने इतिहास बन जाएँगी *
आज भारतीय जनतंत्र पर जो खतरा पैदा हुआ है, उसका मुख्य कारण पूंजीवादी ताकतों के दवाब में आकर भारतीय परिस्थियों को समझे बगैर नवउदारवादी नीतियों व भूमंडलीकरण को अपनाना है. हालाँकि भारत में प्रचलित जनतंत्र सिर्फ नाम भर का जनतंत्र रह गया है जिसमे जनता वोट को रस्म के तौर पर निभाती है, उसे यह तो पता है कि ड़ो बुराइयों में से एक बुराई का चुनना है मगर अभी तक ड़ो बुराइयों के अलावा तीसरे विकल्प का रास्ता नहीं तलाश पाई. जनतंत्र कि रीड जनतांत्रिक संस्थाए होती है मगर आज उन संस्थाओं को जनतंत्र विरोधी ताकतों द्वारा भीतर व बाहर से हमलों का सामना करना पड़ रहा है, जिससे सबसे पहले स्वच्छ बहस कि परम्परा को नस्त किया जा रहा है. अगर जनतंत्र के ऊपरी पायदान से बात शुरू करके पंचायत तक देखा जाये तो सामान स्थिति है. आप इसे अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता का हनन भी कह सकते है. हर जगह व्याप्त शोषण के खिलाफ जहाँ भी आवाज़ उठाई जाती है तो सता द्वारा आतंक के नाम पर दबा दिया जाता है. खुली बहस कि परम्परा का अंत करने के लिए सताधारियों द्वारा छात्र राजनीति से लेकर मीडिया तक को कब्जे में करने का जाल बिछा लिया है. छात्र राजनीति को सबसे पहले तो राजनीतिक स्वार्थों के चलते गुंडई रंग में रंग दिया गया और उसके बाद भी पूंजीवादी ताकतों को लगा कि अभी भी इससे सत्ता को से इसलिए भी खतरा है कि ये कभी भी आन्दोलन का रूप ले सकते है. इसलिए राजनीति का रूप प्राथमिक रूप को ही धन बल के जाल में फसाकर विद्रोह के तमाम रस्ते बंद कर के दिए गए. यही हालत प्राथमिक पंचायत संस्थाओं के है, जिन्हें देकर एक बार तो गांधी जी भी शर्म के मारे पचायत व्यवथा के सिद्धांत को रो रहे होंगे. खैर, जो भी हो आज फिर से देश कि जनतांत्रिक परम्पराओं को बचाने के लिए कम से कम स्वतंत्र बहस कि चौपालों को बचाना होगा वरना ये लाइने इतिहास बन जाएँगी *
बोल कि लब आजाद है तेरे

रविवार, 23 मई 2010

पद कि विवेचना

सुप्रीम कोर्ट ने हालही में निर्णय दिया है कि राज्यपालों को बदलने के लिए कोई पुख्ता वजह का होना ज़रूरी है, इस निर्णय ने फिर से राज्यपाल के पद को नई बहस को जन्म दे दिया है. भारतीय राजनीति में राज्यपाल का पद सबसे विवादित पद हो गया है, जब सरकारें बदलती है तब राज्यपालों का हटना भी शुरू हो जता है. भारतीय लोकतंत्र में यह सवाल बार बार उठता है कि राज्यपाल के पद कि का क्या महत्व है? इस सवाल के पीछे बहुत से कारणों में से एक कारण यह भी हो सकता है कि आज़ादी के बाद इस पद कि गरीमा को भूलकर इसे एक राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया. विभिन्न राजनितिक दलों के आपसी मतभेद के कारण इस संवेधानिक पद की गरिमा को बार बार उछाला गया है. जब किसी राजनितिक महत्वपूर्ण व्यक्ति को केंद्र में मंत्री पद नहीं मिल पता है या उसे सक्रिय राजनीति से हटाना हो तो तो उसे किसी राज्य का राज्यपाल नियक्त कर दिया जाता है, इससे दो फायदे होते है- एक तो पार्टी का एक नेता संतुष्ट हो जता हो और दूसरा फायदा यह है की अगर राज्य में विरोधी दल की सरकार है तो उसकी खिंच तान करणे के लिए इस पद का उपयाग कर लेतें है और ये परम्परा सी बन गयी है की राज्यपाल सताधारी दल का राजनेता ही होगा. कुल मिलाकर ये पद केन्द्रीय राजनीति का राज्यों पर नियंत्रण रखने का एक साधन हो गया है. झारखण्ड और बिहार के राज्यपालों का हाल पिछले दिनों देख ही चुके है, जब किसी भी राज्य ने कोई राजनीतिक संकट आता है तो राज्यपाल कि भूमिका महत्वपुएँ हो जाता है मगर दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि जब भी ऐसी स्थिति आती है तो ये पद विवादों के घेरे में आ जाता है
संसदीय लोकतंत्र में केंद्र और राज्य के बीच राज्यपाल एक सेतु का काम करता है, इस पद कि उपियोगिता खासकर तब देखने को मिलाती है जब मंत्रीमंडल भंग हो जता है मगर ऐसी स्थिति में भी किसी पार्टी विशेष कि वफ़ादारी के कारण कई बार पक्षपात का आरोप लगाया जाता है. संवैधानिक पद होते हुए भी राज्यपाल को विशेष संवैधनिक अधिकार प्राप्त नहीं है, केवल शाही खर्चे का प्रतीक बनकर रह गया है. हाल के वर्षों में धरा 356 के गलत उपयोग के मामले भी सामने आ रहे है जो स्पष्ट करते है कि इस ओद के महत्व व अधिकारों को लेकर फिर से विवेचना हो. ऐसी स्थिति में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय स्वागत योग्य है, लेकिन सवाल उठता है कि वो पुख्ता वजह क्या होगी? जब तक इस पद पर राजनीतिक लोगों को आरूढ़ किया जायेगा तो निश्चित रूपसे वो अपनों पार्टी के प्रति वफादारी दिखने कि कोशिश करेंगे, अगर राज्यपाल विरोधी पक्ष का है तो वो अपने आप में एक वजह बन जाएगी. सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में बताया है कि राष्ट्रिय निति के साथ राज्यपाल के विचारों का मेल नहीं होने के कारण उसके कार्यकाल में कटौती करके हटाया जा सकता है और वो केंद्र सरकार से असहमत भी नहीं हो अथार्त केंद्र में जिस पार्टी कि सरकार हो उसे पूरी छुट है कि वो राज्यपाल को जब चाहे हटा सकती है.राज्यपाल का पद पूर्णरूप से राजनीतिक आकाओं के रहम पर निर्भर हो गया है जो कि एक स्वतंत्र संवैधानिक पद है.
6 दशक के संवैधानिक अनुभव के आधार पर साफ़ जाहिर है कि राज्यपाल के पद कि विवेचना जरूरी है, इसे एक संवैधानिक पद के रूप में स्थापित किया जाये और राजनीतिक चालबाजियों से अलग करके सवतन्त्र अभिनेता का स्थान दिया जाये जो संविधान के अनुसार राज्य और केंद्र के मध्य भूमिका निभाए.