सुप्रीम कोर्ट ने हालही में निर्णय दिया है कि राज्यपालों को बदलने के लिए कोई पुख्ता वजह का होना ज़रूरी है, इस निर्णय ने फिर से राज्यपाल के पद को नई बहस को जन्म दे दिया है. भारतीय राजनीति में राज्यपाल का पद सबसे विवादित पद हो गया है, जब सरकारें बदलती है तब राज्यपालों का हटना भी शुरू हो जता है. भारतीय लोकतंत्र में यह सवाल बार बार उठता है कि राज्यपाल के पद कि का क्या महत्व है? इस सवाल के पीछे बहुत से कारणों में से एक कारण यह भी हो सकता है कि आज़ादी के बाद इस पद कि गरीमा को भूलकर इसे एक राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया. विभिन्न राजनितिक दलों के आपसी मतभेद के कारण इस संवेधानिक पद की गरिमा को बार बार उछाला गया है. जब किसी राजनितिक महत्वपूर्ण व्यक्ति को केंद्र में मंत्री पद नहीं मिल पता है या उसे सक्रिय राजनीति से हटाना हो तो तो उसे किसी राज्य का राज्यपाल नियक्त कर दिया जाता है, इससे दो फायदे होते है- एक तो पार्टी का एक नेता संतुष्ट हो जता हो और दूसरा फायदा यह है की अगर राज्य में विरोधी दल की सरकार है तो उसकी खिंच तान करणे के लिए इस पद का उपयाग कर लेतें है और ये परम्परा सी बन गयी है की राज्यपाल सताधारी दल का राजनेता ही होगा. कुल मिलाकर ये पद केन्द्रीय राजनीति का राज्यों पर नियंत्रण रखने का एक साधन हो गया है. झारखण्ड और बिहार के राज्यपालों का हाल पिछले दिनों देख ही चुके है, जब किसी भी राज्य ने कोई राजनीतिक संकट आता है तो राज्यपाल कि भूमिका महत्वपुएँ हो जाता है मगर दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि जब भी ऐसी स्थिति आती है तो ये पद विवादों के घेरे में आ जाता है
संसदीय लोकतंत्र में केंद्र और राज्य के बीच राज्यपाल एक सेतु का काम करता है, इस पद कि उपियोगिता खासकर तब देखने को मिलाती है जब मंत्रीमंडल भंग हो जता है मगर ऐसी स्थिति में भी किसी पार्टी विशेष कि वफ़ादारी के कारण कई बार पक्षपात का आरोप लगाया जाता है. संवैधानिक पद होते हुए भी राज्यपाल को विशेष संवैधनिक अधिकार प्राप्त नहीं है, केवल शाही खर्चे का प्रतीक बनकर रह गया है. हाल के वर्षों में धरा 356 के गलत उपयोग के मामले भी सामने आ रहे है जो स्पष्ट करते है कि इस ओद के महत्व व अधिकारों को लेकर फिर से विवेचना हो. ऐसी स्थिति में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय स्वागत योग्य है, लेकिन सवाल उठता है कि वो पुख्ता वजह क्या होगी? जब तक इस पद पर राजनीतिक लोगों को आरूढ़ किया जायेगा तो निश्चित रूपसे वो अपनों पार्टी के प्रति वफादारी दिखने कि कोशिश करेंगे, अगर राज्यपाल विरोधी पक्ष का है तो वो अपने आप में एक वजह बन जाएगी. सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में बताया है कि राष्ट्रिय निति के साथ राज्यपाल के विचारों का मेल नहीं होने के कारण उसके कार्यकाल में कटौती करके हटाया जा सकता है और वो केंद्र सरकार से असहमत भी नहीं हो अथार्त केंद्र में जिस पार्टी कि सरकार हो उसे पूरी छुट है कि वो राज्यपाल को जब चाहे हटा सकती है.राज्यपाल का पद पूर्णरूप से राजनीतिक आकाओं के रहम पर निर्भर हो गया है जो कि एक स्वतंत्र संवैधानिक पद है.
6 दशक के संवैधानिक अनुभव के आधार पर साफ़ जाहिर है कि राज्यपाल के पद कि विवेचना जरूरी है, इसे एक संवैधानिक पद के रूप में स्थापित किया जाये और राजनीतिक चालबाजियों से अलग करके सवतन्त्र अभिनेता का स्थान दिया जाये जो संविधान के अनुसार राज्य और केंद्र के मध्य भूमिका निभाए.
2 टिप्पणियां:
आज जनसत्ता में भी विक्रम राव का इसी विषय पर लेख पढ़ा.आपने वाजिब सवालों की तरफ ध्यान दिलाया है.
आप जैसे धुर.वामपंथी के यहाँ ज्योतिष का विज्ञापन!!
घोर पाप है महाराज!!!!!!!!
म्हारो तो साफ़ माननो है के राज्यपाल जिसों पद राजनेतावा रे बुढापो सोरो कटन रो पाधर पाड मार्ग {शोर्ट-कट } है. जठे नेता रूपी जीव आपरो बुढापो सुधारे. मन री सगळी रली पूरे. समूचे ठाट-बात सू जीवे. अर राजभवन में इज आपरा डाला नाखे. इण पद री कोई जरूत कोनी. पण नेतावा इण पद पर मोजा मार ने राजशाही ने भी लारे छोड़ दी. जनता री खून-पसीने री कमाई सू इण लोकतंत्र रा ऐ ठेकेदार मोजा मारे. जिण रो इणा ने कोई अधिकार कोनी. जदी इणा में थोड़ी-घणी सरम बाकी है तो इण पद ने हाथुहाथ ख़त्म कर देनो चाईजे.
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