Ads for Indians

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

पद की गरिमा

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में निर्णय दिया है कि राज्यपालों को बदलने के लिये पुख्ता वजह का होना जरूरी है, इस निर्णय ने फिर से राज्यपाल के पद को लेकर नई बहस को जन्म दिया है। भारतीय राजनीति में राज्यपाल का पद सबसे विवादास्पद पद हो गया है, जब सरकारें बदलती है तब राज्यपालों का हटना भी शुरू हो जाता है। भारतीय लोकतंत्र मंे यह सवाल बार उठता है कि राज्यपाल के पद का क्या मतलब है? इस सवाल के पिछे बहुत से कारण में से एक कारण यह भी है कि आजादी के बाद इस पद की गरीमा को भूलकर इसे एक राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया है। विभिन्न राजनैतिक दलों के आपसी मतभेदों के कारण इस संवैधानिक पद की गरीमा को बार बार उछाला गया है। जब कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति को केन्द्र में मंत्री पद नहीं मिल पाता है या उसे सक्रिय राजनीति से हटाना हो तो उसे किसी राज्य का राज्यपाल नियुक्त कर दिया जाता है, इससे दो फायदे है- एक तो पार्टी का एक नेता संतुष्ट हो जाता है जिससे पार्टी में विद्रोह की आषंका नही रहती और दूसरा फायदा है कि अगर राज्य में विरोधी दल की सरकार है तो उसके खिंच तान करने के लिये भी इस पद का उपयोग कर लेते हैं और यह परम्परा सी पन गई कि राज्यपाल सताधारी दल का राजनेता ही होगा। कुल मिला कर यह पद केन्द्रीय राजनीति का राज्यों पर नियंत्रण रखने का एक साधन हो गया है। झारखण्ड और बिहार के राज्यपालों का हाल पिछले दिनों देख ही चुके है, जब भी किसी राज्य में कोई राजनीतिक संकट आता है तो राज्यपाल की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है, लेकिन दुर्भाग्यपुर्ण बात यह है कि जब भी ऐसी स्थिति आती है तो इस पद को विवादों के घेरे में पाते है।
संसदीय लोकतंत्र में केन्द्र और राज्य के बीच राज्यपाल एक सेतु का काम करता है, इस पद की उपयोगिता खासकर तब देखने को मिलती है जब मंत्रिमंडल भंग हो जाता है लेकिन ऐसी स्थिति में भी किसी पार्टी विषेष की वफादारी के कारण कई बार पक्षपात का आरोप लगाया जाता है। संवैधानिक पद होते हुए भी राज्यपाल को विषष संवैधानिक अधिकार प्राप्त नहीं है, केवल शाही खर्चे का प्रतीक बनकर रह जाता है। हाल के वर्षों में धारा 356 के गलत उपयोग के मामले भी सामने आ रहे है जो स्पष्ट करते है कि इस पद के महत्व व अधिकारों को लेकर पुनर्विवेचना हो। ऐसी स्थिति में सुप्रिम कोर्ट का निर्णय स्वागत योग्य है, लेकिन सवाल उठता है कि वो पुख्ता वजह क्या होगी? जब तक इस पद पर राजनीतिक लोगों को आरूढ़ किया जाता है तो निष्चित रूप से वो अपनी पार्टी के प्रति वफादारी दिखाने की कोषिष करेंगे, अगर राज्यपाल विरोधी पक्ष का है तो वो अपने अपने आप में एक वजह बन जायेगी। सुप्रिम कोर्ट ने इस फैसले में बताया है कि राष्ट्रीय नीति के साथ राज्यपाल के विचारों का मेल नहीं होने के कारण उसके कार्यकाल में कटौती करके हटाया जा सकता है और वो केन्द्र सरकार से असहमत भी नही हो सकते अर्थात केन्द्र में जिस पार्टी की सरकार हो उसे पूरी छूट है कि वो राज्यपाल को जब चाहे हटा सकते है। राज्यपाल का पद पूर्णरूप से राजनीतिक आकाओं के रहम पर निर्भर हो गया है जो कि एक स्वतंत्र संवैधानिक पद है।
6 दषक के संवैधानिक अनुभव के आधार पर साफ जाहिर है कि राज्यपाल के पद की पुर्नविवेचना जरूरी हो, इसे एक संवैधानिक पद के रूप में स्थापित किया जाये और राजनीतिक चालबाजीयों से अलग करके स्वतंत्र अभिनेता का स्थान दिया जाये जो संविधान के अनुसार राज्य और केन्द्र के मध्य अपनी भूमिका निभाये।

कोई टिप्पणी नहीं: