जब देश का संविधान बनाया जा रहा था तो डाॅ. भीमराव अम्बेडकर से संविधान सभा के एक सदस्य ने अनुरोध किया था कि प्रस्तावित अनुच्छेद 45 में 14 साल की उम्र तक के बच्चों को मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा के वादे को घटाकर उम्र 11 साल कर देनी चाहिए क्योंकि भारत एक गरीब देश है और आधारभूत सुविधाओं का अभाव है लेकिन अम्बेडकर ने इस तर्क को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि हमें उम्र घटाने के बजाय गरीबी को मिटाना चाहिये। मगर दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि आज आजादी के 62 सालों बाद भी भारतीय समाज में शिक्षा और गरीबी के स्तर में कोई खास बदलाव नहीं आया। भारतीय समाज में शिक्षा के निम्न स्तर के दो कारण है। एक तो भारतीय शिक्षा पद्धति पर जबरन वैश्वीकरण का लिबास डाला गया और दूसरा शासक वर्गों ने शिक्षा पद्धति को जिस तरह से अंतर्राष्ट्रीय स्तर देने के कोशिश की उसके लिये भारतीय समाजीक ढ़ांचा आधारभूत तैयार नहीं था।
जब 2002 में 86 वें संविधान संशोधन द्वारा शिक्षा के अधिकार को अनुच्छेद 21 क में जोड़ा गया तो बहुत से सवाल थे जो इस अधिनियम को कठघरे में खड़ा करते है। अगर कुछ समय के लिये मान लिया जाये कि सरकार ने बहुत अच्छा कानून बनाया है जिसमें 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिये मुफ्त शिक्षा की बात कही गयी है तो उस उन्नीकृष्णन फैसले का क्या होगाा ? जिसमें कहा गया है कि 6 वर्ष तक की उम्र के हर बच्चे को संतुलित पोषाहार, स्वास्थ्य पोषणहार, स्वास्थ्य देखभाल और प्राथमिक शिक्षा का अधिकार था। सवाल सिर्फ मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा तक ही सीमित नहीं है, मुख्य सवाल है शिक्षा में गुणात्मक परिवर्तन का, क्योंकि आज बेरोजगारी की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया मगर रोजगार के अवसरों के सृजन की तरफ सरकार का कोई ध्यान नहीं है। गावों में कृषि की बिगड़ती हालत और सता की उदासीनतों के कारण लोगों को मजबूरी में शहरों की ओर पलायन करना पड़ रहा है लेकिन सरकार के पास न गावों की स्थिति को बेहतर बनाने की ठोस योजना है और न ही शहर में उचित सुविधा व रोजगार के अवसर। ऐसी स्थिति में गावों में बच्चे माता-पिता के साथ खेत के काम में हाथ बंटाते है और शहर में बाल मजदूरी के जाल में घर का खर्चा चलाने में हाथ बंटाते है। जब तक उनके माता-पिता के रोजगार व सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित नहीं किया जाता तब तक उनके पढ़ने का सवाल ही नहीं उठता। ऐसी शिक्षा से देश के विकास में कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं हो सकता है क्योंकि बच्चा जब मानसिक रूप से स्वतंत्र नहीं हो, तब तक पढ़ने में मन कैसे लग सकता है ?
अब सरकार यह दिखाने की कोशिश कर रही है कि वह शिक्षा को लेकर बहुत ही चिंतित है लेकिन अगर शिक्षा पर किये गये खर्चे को देखा जाये तो सच्चाई साफ हो जाती है। शिक्षा के खर्च का मुल्यांकन करें तो 1992 के नवउदारवादी नीतियां अपनाने के कारण शिक्षा पर खर्च लगातार घटाया जा रहा है। 2001 में जी. डी. पी. का 3.19 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया गया और 2007 में यही खर्च घटकर 2.47 प्रतिशत रह गया है। दुनियां में शिक्षा पर खर्च करने वाले देशों में भारत का स्थान 115 वां है। एक तरफ दुनियां के विकसित देश खर्चा बढ़ा रहे है, वहीं भारत शिक्षा के खर्च को घटा रहा है। तथ्य यह है कि किसी भी देश के लिये शिक्षा से अच्छा अन्य कोई निवेश का रस्ता नहीं होता है। इस विरोधोभास की स्थिति में कपिल सिब्बल साहब गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रहे हैं कि शिक्षा का अधिकार विधेयक देश की शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परीवर्तन कर देगा मगर सच्चाई यह है कि सरकार जनता को गुमराह कर रही है। क्योंकि अभी तो देश की शिक्षा व्यवस्था का आधारभूत ढ़ांचा ही सही ढ़ग से विकसित नहीं कर पाये है। आंख खोलकर देखा जाये तो ग्रामीण भारत के बहुत सक ऐसे गांव मिल जायेंगे, जहां पर सरकारी कागजों में तो स्कूल है और अघ्यापक भी तनख्वाह उठातें है मगर इमारत के नाम पर बच्चे पेड़ के निचे बैठकर पढ़ते है। कहीं पर अध्यापक नही ं है तो कही पर 100 बच्चों पर एक अध्यापक है। ऐसी स्थिति में जनता का सरकारी स्कूलों से विश्वास ही उठ गया है। एक तरफ सरकारी स्कूलों की हालत दिन प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है और वही दूसरी तरफ सरकार शिक्षा के क्षेत्र में नीजिकरण को बढ़ावा देती जा रही है। नीजिकरण की इस अंधाध्ुंाध दौड़ में गली-गली में प्राइवेट स्कूल खुल गये है, जिनकी आसमान छूती फीस गरीब आदमी नही सहन कर पाता और सरकारी स्कूलों की बिगड़ती हालत के कारण मजबूरी में बच्चों को प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना पड़ता है, जहां पर पढ़ाई कम कागजी कार्यवाही ज्यादा होती है। जिस देश में 70 प्रतिशत लोग 20 रूपये प्रतिदिन की आय पर गुजारा करते है, वहां पर प्राइवेट स्कूल में कोई कैसे अपने बच्चों को पढ़ा पायेगा।
शिक्षा का मतलब सिर्फ अक्षर ज्ञान नही होता, शिक्षा का मतलब होता है मनुष्य का शारीरिक, मानसिक और सर्वांगिण विकास मगर हमारे हुक्मरानों को यह बात समझ में नही आती शायद। अब अगर उच्च शिक्षा की बात करें तो ऐसी ही स्थिति है, न पर्याप्त शोध के साधन है और न ही अवसर। पिछले दिनों 144 फर्जी विश्वविधालयों के मामले ने फिर से सरकार को चुनौती दी है कि शिक्षा के नाम पर इस देश में बहुत बड़ी दलाली चल रही है जो न केवल उच्च शिक्षा में बल्कि प्राथमिक शिक्षा के स्तर स्थिति ओर भी भयानक है। सरकार विदेशी विश्वविधालयों को भी भारत में लाने की फिराक में है मगर जब देश के विश्वविधालयों की विश्वनीयता पर सवाल खड़ा होता है तब विदेशी विश्वविधालयों पर कैसे विश्वास किया जायेगा, आखिर भारत में केम्ब्रीज व आॅक्सफोर्ड तो अपनी शाखाएं खालने नही जा रहे है।
वैसे भी समान व स्तरीय शिक्षा उपलब्ध कराने का दायीत्व सरकार का है लेकिन भारतीय लोकतंत्र में यह अधिकार भी 63 साल बाद दिया गया और उसमें भी शिक्षा की गुणवता के बारे में कोई ख्याल नहीं किया गया है। खैर, जनता को दे दिया- एक ओर लोलीपोप।
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