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गुरुवार, 12 अगस्त 2010

नवउदारीकरण के जाल में किसान

1991 के बाद भारत विष्वव्यापी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का अंग बनता जा रहा है। खुले व्यापार और निजी निवेष के माॅडल को अपनाने के बाद प्राथमिक क्षेत्र पर लगातार संकट के बादल मंडरा रहे है और उससे कृषि व कृषि से जुड़ा हुआ तबका बूरी तरह प्रभावित हुआ है। यूरोप के देषों में औधोगिककरण के बाद खेती पर निर्भरता घटती गई मगर भारत में 1971 की तुलना 2005 में कृषि कामगारों की संख्या दुगुनी हो गई है। एक तरफ जनसंख्या के बढ़ते दवाब और दूसरी तरफ कृषि में सार्वजनिक निवेष के घटने के कारण भारतीय कृषि हाषिये पर पहुंच गई है। विष्व बैंक ने भी 2008 की रिर्पोट में कृषि को विकास के ऐजेंडे में माना है क्योंकि विकासषील देषों की अधिकांष जनता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि से जुड़ी हुई है। वैष्विक परिदृष्य पर पूंजीवादी ताकतें विष्व बैंक व अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के माध्यम से विकासषील देषों की कृषी पर लगातार हमला कर रही है क्योंकि वे अपने टनों अनाज को बाजार में मंदी के डर से नहीं ला सकते, इसलिए समुंद्र में डुबाये जाने वाले अनाज के लिए बाजार तैयार करना चाहते है और वो तभी सम्देषों की कृषि को पूरी तरह तबाह कर दिया जाये।
भारत की जीडीपी में कृषि क्षेत्र की भागीदारी लगातार कम हो रही है और अब यह मात्र 15.7 फीसदी रह गई है क्योंकि कृषि क्षेत्र में 1991 के बाद लगातार सार्वजनिक निवेष को घटाया जा रहा है। 1991 में कृषि पर सार्वजनिक निवेष 16 फीसदी था जो पिछले वर्ष घटकर 6 फीसदी रह गया है। आर्थिक सुधारों के दौरान कृषि की अनदेखी हुई है जिसका मुख्य कारण है कि सरकार कृषि लागतों पर सब्सिडी और उपज पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की नीतियों को ही मुख्य ऐजेंडे में रखा लेकिन कृषि पर शोध, तकनीकी विकास, सिंचाई, ऊर्जा, भंडारण व अन्य परम्परागत ज्ञान के विकास पर कोई निवेष नहीं किया। नई आर्थिक नीतियों को अपनाने के बाद भारतीय किसान वैष्विक बाजार में विकसित देषों के किसानों से प्रतिस्पद्र्धा में टिक ही नहीं पाता है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था को विष्व बाजार में प्रतिस्पद्र्धा के लिये तो खोल दिया मगर अर्थव्यवस्था के प्रारम्भिक ढ़ांचे- कृषि और प्राथमिक क्षेत्र का आधारभूत विकास ही नहीं किया गया। पिछले साल यू. पी. ए. सरकार की 78 हजार करोड़ रूपये की ऋण माफी के बाद भी किसान आत्महत्याएं कर रहे है और इस वर्ष भी कृषि वृद्धि दर पिछले वर्ष की तुलना में 0.2 प्रतिषत ऋणात्मक रही है। जिस देष में 60 प्रतिषत लोग कृषि से जुड़े हुए हो, वहां पर कृषि वृद्धि दर ऋणात्मक रहना कृषि विरोधी नीतियों को दर्षाता है। सही मायनों में ऋण माफी किसानों को फायदा देने के लिये नहीं थी, वो बड़े बैंको की एमपीए कम करने की साजिष थी जो किसानों सिर पर मढ़ दी गई। मीडिया भी कृषि मृद्दो को लेकर संवेदनषील नहीं है, 78 हजार करोड़ रूपये की ऋण माफी को ऐसे उछाला जैसे इससे भारतीय कृषि का मूलभूत ढंाचा ही बदल जायेगा लेकिन उसी साल औधोगिक क्षेत्र को 3 लाख करोड़ रूपये का टेक्स रिबेेट दिया गया जिस पर कोई सवाल नहीं उठे। कार लोन शून्य प्रतिषत ब्याज पर दिया जा सकता है लेकिन किसानो को ऋण देने के लिए सरकार ने नाबार्ड से लेकर किसान तक इतनी ज्यादा औपचारिक कड़िया बना रखी है कि उसे समय व जरूरत के मुताबिक ऋण मिल पाना मुष्किल है। नई आर्थिक नीतियों के तहत अर्थव्यवस्था को पूर्णरूप से सेवा क्षेत्र पर निर्भर करने की कोषिष की गई और प्राथमिक क्षेत्र को नजर अंदाज किया गया। आज किसान और उपभोक्ता के बीच के दलालोे की संख्या इतनी बढ़ गई है कि दोनों का पैसा बिचैलियों द्वारा हड़प लिया जाता है। एक अध्ययन के मुताबिक कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य तथा थोक मूल्यों में 33 प्रतिषत का और थोक एंव खुदरा मूल्यों मंे लगभग 60 प्रतिषत का अन्तर होता है। अगर एक किसान अपनी उपज का 100 रूपये पाता है तो उपभोक्त द्वारा 200 चुकाये जाते है। बीच के 100 रूपये सप्लाई चैन सिस्टम की कमजोरी के कारण बिचैलियों के जेब में जाते है। आज भारतीय कृषि एक घाटे का व्यवसाय बन गई है जिसके मुख्य कारण प्राकृतिक प्रकोप और नई आर्थिक नीति के तहत कृषि विरोधी नीतियों का लागू होना है। कृषि के पिछड़ेपन और ग्रामीण रोजगार के अभाव में बहुत बड़ा तबका शहरों की ओर पलायन कर रहा है जिसके कारण शहरो की अर्थव्यस्थाओं का ढंाचा भी चरमरा रहा है। कृषि क्षेत्र को दिये जाने वाले कर्ज में पिछले कुछ सालों में काफी वृद्वि हुई है। 1996-97 से 2003-04 के बीच यह 14.27 प्रतिषत वार्षिक वृद्धि की दर से बढ़ा है लेकिन कृषि क्षेत्र में वास्तविक निवेष नहीं बढ़ा है। कृषि में सार्वजनिक निवेष और कृषि सब्सिड़ी में विपरीत संबंध दिखाई देता है।
1990 के दषक में विष्व पटल पर समाजवादी आंदोलन का नेतृत्वकर्ता सोवियत संघ के विघटन के कारण पूंजीवादी ताकतों को खुला मैदान हो गया और विष्व एकधुव्रीय व्यवस्था में तबदील होने के कारण बहुत से विकासषील देषों ने मजबूरी में नवउदारवादी नीतियों को अपनाना पड़ा, भारत भी उसी लपेटे में आ गया था। भारतीय कृषि को अमेरिकी सांचे में ढ़ालने के लिये नीति निर्धारकों से लेकर कृषि की शोध संस्थाएं उदारीकरण के पक्ष में तर्क देने में जुट गई, इसीलिए भारतीय कृषि वैज्ञानिक बंजर भूमी को उपजाऊ बनाने की तकनीक खोजने के बजाय बीटी बीजों की वकालत करने लगे। आज देष में 50 से अधिक कृषि विष्वविधालय हैं मगर उनकी उपलब्धियां क्या हैं ? कृषि अनुसंधान और षिक्षा भी भारतीय कृषि के संकट के लिये जिम्मेदार है, क्योंकि वो भारतीय कृषि की समस्याएं और परिस्थितियों पर शोध करने के बजाय इस बात पर शोध कर रहा है कि भारतीय कृषि को अमेरिकन मोडल में कैसे ढ़ाला जाये और इसी कारण मूलभूत समस्यायों को गौण कर दिया गया। आजादी के बाद लगातार एक तरफ बिहार में बाढ़ ने लोगों को तबाह करके रखा और दूसरी तरफ राजस्थान में हर साल अकाल पड़ता है मगर हमारी सरकारों ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया कि बाढ़ का पानी सूखे की तरफ मोड़ कर दोनों तबाहीयों को बचाया जा सकता है। क्योंकि अगर ऐसा हो गया तो अकाल राहत और बाढ़ राहत के नाम पर जो करोड़ों के फंड दिये जाते है उनमें धांधली कैसे होगी? दरअसल में नवउदारवादी नीतियों का चरित्र ही ऐसा है कि वो चंद लोगों के लिये लूट का हथियार है। विकास के नाम पर किसानों को सहायता देने के बजाय उन्हें जमीन से बेदखल करने के पट्टे भी बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों को दे दिया है। सच्चाई तो यह है कि भारतीय किसान कभी प्रकृति से नहीं हारा है क्योंकि प्रकृति हमेषा संतुलन बनाये रखती है मगर नई आर्थिक नीतियों ने तो किसान से लेने की ही नीति अपनाई है उसे बदले में कर्ज के सिवाय मिलता कुछ नहीं।
देष में लगातार किसान आत्महत्याएं कर रहें हैं, पिछले 12 सालों में 2 लाख किसानों द्वारा आत्महत्या करना नवउदारवादी नीतियों का ही परिणाम है और सरकार कर्ज माफी का एक पैकेज देकर इति श्री कर ली लेकिन सवाल उन नीतियों को बदलने का है जिनके कारण आज भारतीय किसान हाषिये पर पहुंच गये है, चाहे सब्सिडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाने की बात हो या फिर नई तकनीक और संसाधन उपलब्ध कराने की हो, किसानों को हर जगह लूटा जाता है। राजनैतिक रूप से किसानों का ऐसा कोई वोट बैंक नहीं है जिसके कारण राजनीतिक दल उन्हें महत्व दें क्योंकि वोट को तो पहले से ही जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर विभाजित कर दिया गया है। कुछ तथाकथित किसान नेता जरूर हैं जिन्हे न तो किसानों की वास्तविक समस्याओं का पता है और न किसान की हालत का। असल में वो जमीन के मालिक जरूर है मगर जमीन पर खुद कभी खेती नहीं की, वो जमींदार है जिनके यहां भूमिहीन मजदूर काम करते है लेकिन वो सरकार की परिभाषा के हिसाब से किसान है क्योंकि सरकार उसी को किसान मानती है जिसके नाम पर जमीन हो। उनके किसान नेता बनने के पीछे तर्क यह है कि किसी अन्य राजनीतिक दल में जगह नहीं मिलने के कारण खुद को राजनीतिक धरातल पर स्थापित करने के लिये किसान राजनीति के नाम पर जहां मौका मिले भाषणबाजी करते रहते हैं।
सप्रंग सरकार के दूसरे कार्यकाल के एक वर्ष पूरे हो जाने पर रिर्पोट कार्ड जारी करके करकार अपनी पीठ थपथपा रही है जबकि इसी सरकार की किसान विरोधी नीतियों के कारण महंगाई में किसान बदहाल है, एक तरफ तो वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं और वही दूसरी तरफ किसान को फसल का उचित मूल्य भी नहीं मिल पा रहा है। मनमोहन सिंह का अर्थषास्त्र किसानों के लिये न होकर, ठेकेदारों और बिचोलियों के हित में है मगर सप्रंग सरकार जबरदस्ती उसे अपनी उपलब्धीयों मनाने पर अड़ी हुई है। एक तरफ भारत में किसानों को दिया जाने वाला अनुदान घटाया जा रहा है और दूसरी तरफ दुनियां के विकसित देष कृषि अनुदान को बढ़ा रहे है, ऐसी स्थिति में भारतीय किसान कैसे वैष्विक बाजार में टिक पायेगा जिसके दरवाजे बिना तैयारी के ही खोल दिये गये है। नवउदारवादी नीतियों का मुख्य ऐजेंडा है कि भारतीय कृषि किसानों से छीनकर बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों के हाथ में चली जाये। कृषि संकट से उभरने के लिये दुसरी हरित क्रांति का शंखनाद करने की तैयारी करने वाले भूल रहे है कि किसान बढ़ती लागत और उपज के घटते मूल्य की दोहरी चक्की में पिस रहा है न की तकनीक और उन्नत किस्म के बीजों के अभाव में। किसान व कृषि को वैष्विकरण के दानव से बचाने के लिये ऋण माफी व अन्य रियायतों की बजाय क्षि नीतियों को बदलने की जरूरत है जो किसान को आज ‘मुक्त बाजार’ के ऐसे बनिये के जाल में फंसा दिया है जिसके बही खातो से लेकर हिसाब किताब की भाषा ही भारतीय किसान विरोधी है।

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