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शनिवार, 3 जुलाई 2010
ठेंगा दिखाती बड़ी सिंचाई परियोजनाएं
बंाध और विस्थापन दोनों त्रासदी व पर्यावरणीय कारणों के चलते चर्चा में रहें हैं। एक तरफ बांध बनाने के नाम पर गांव के गांव विस्थापित किये गये तो दूसरी तरफ देष में बांधों से होने वाले विकास का विषेष प्रभाव नजर नहीं आता है। देष मे बड़ी-बड़ी सिंचाई परियोजना के नाम पर करोड़ों रूपयों का बजट पानी की तरह बहाया जाता है जिनका उदे्ष्य कृषि को उन्नत बनाना है लेकिन इन परियोजनाओं की सिंचाई का लाभ देष की कृषि को नहीं मिल पाया है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देष मंे नहरों से सिंचित क्षेत्रफल घटता जा रहा है जो 1991-92 में 178 लाख हेक्टेयर भूमि था वो ही 2003-04 में 146 लाख हेक्टेयर भूमि रह गया है यानी 14 वर्षोंे के दौरान नहरों से होने वाले सिंचाई के क्षेत्रफल मे 32 लाख हेक्टेयर की कमी आयी है। विष्व बैंक ने 2005 में अपनी रिर्पोट में कहा है कि भारत में सिचाई परियोजनाओं (जो दुनियां की सबसे बड़ी है) के ढ़ाचागत विकास के रखरखाव के लिये 17 हजार करोड़ सालाना की जरूरत है मगर बजट 10 प्रतिषत से भी कम उपलब्ध होने के कारण यह परियोजनाएं कृषि के विकास में सहायक नहीं बन पाती है।
2007 तक बड़ी व मध्यम सिंचाई परियोजनाओं पर 130,000 करोड़ रूपये खर्च किये गये। बड़े बांधों से सिंचित क्षेत्रफल नहीं बढ़ा जबकि इस अवधी के दौरान कुल सिंचित क्षेत्र में वृद्धि हुई है जिसके कारण कुएं, तालाब व सिंचाई के छोटे साधन है। बढ़ती हुई आबादी व सीमित संसाधनों के कारण न केवल सिंचाई के लिये अपितु पीने के लिये भी पानी एक गम्भीर समस्या बना हुआ है, ऐसी स्थिति में कृषि उत्पादन बढ़ाने और पीने के पानी की समस्या का समाधान करने के लिये दोनों में संतुलन बनाना जरूरी है।
11 वीं पंचवर्षीय योजना सहित तमाम पंचवर्षीय योजनाओं में जल संसाधन विकास के पूरे बजट का लगभग दो तिहाई बड़ी व मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के लिये उपयोग किया गया है। देष की बड़ी नदीयों की सफाई के लिये तो सैंकड़ों करोड़ों रूपयों की परियोजनाएं मंजूर हो जाती है और पानी के कुषल उपयोग के लिये अब तक कोई विषेष परियोजना और नीति सामने नहीं आयी है।
बड़ी सिंचाई परियोजनाओं की असफलता के पीछे कुछ कारण जरूर है, जैसे जलाषयों व नहरों में गाद जमा होना, सिचाई अधोसरंचना के रख-रखाव का के साधनों का अभाव, नहरों के शुरूआती इलाकों में ज्यादा खपत वाली फसलें लेना, पानी को गैर सिंचाई के कार्यों के लिये मोड़ना और भू-जल दोहन का बढ़ना। लेकिन मुख्य कारण है कि भौगालिक स्थिति और उपलब्ध संसाधनों को देखते हुए इन योजनाओं का ढ़ाचा तैयार नहीं किया जाता है।
कई योजनाओं में बांध तो बन गये है मगर नहरें बनाने के लिये सरकार के पास बजट नहीं है, इस कारण बहुत सी परियोजनाएं ढ़प पड़ी है और उसका नुकसान किसानों को उठाना पड़ रहा है। योजना आयोग के आंकड़े बताते हैं कि बड़ी और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के प्रति हेक्टर लागत छोटी परियोजनाओं की तुलना में 10 गुना ज्यादा है। उदाहरण के लिये राजस्थान में इंदिरा गांधी नहर से सिंचित क्षेत्रफल को लगातार बढ़ाया गया मगर पर्याप्त पानी नहीं मिलने के कारण फसलें चैपट हो गई और किसान आंदोलन करने पर उतर आये। ऐसी अनेक बड़ी सिंचाई परियोजनाएं हैं जो राज्यों के आपसी विवादों के कारण बंद पड़ी है और किसानों को पानी नहीं मिल रहा है। नहर में जो गाद जमा हो जाती है अथवा माइनर के उपर टीला बन जाता है तो किसान को अपने साधन व श्रम लगाकर साफ करना पड़ता है, नहर विभाग भ्रष्टाचारियों का अड्डा बन चुका है, रिष्वत लेकर अमीर किसानों को नहर पर बुस्टर लगाने की इजाजत दे दी जाती है इस कारण नहर के अंतिम छोर पर स्थित जमीन एक प्रकार से असिंचित भूमि की श्रेणी में ही आ जाती है। नहरों के कारण पहले तो किसानों की जमीनों को छिना जाता है और फिर उस पानी को सिंचाई के बदले कारखानों की तरफ झोंक दिया जाता है जबकि सिंचाई के छोटे छोटे साधनों से सिंचाई करने से एक तो लागत कम आती है और दूसरा समय पर सिंचाई भी हो जाती है।
ऐसा लगता है कि भारतीय राजनेता, प्रषासनिक अधिकारी, इंजिनीयर और ठेकेदारों का एक बड़ा समूह है जो विपरीत अनुभवों और प्रमाणों के बावजूदभी बड़े बांधों और बड़ी सिंचाई परियोजनाओं के लिये अरबों रूपयों का बजट स्वीकृत करवाने में कामयाब रहता है क्योंकि इनसे करोड़ों रूपयों की दलाली करने का मौका मिलता है।
यहां पर दो बातें स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आती है कि देष में हर साल बड़ी सिंचाई परियोजनाओं पर होने वाले हजारों करोड़ रूपयों से शुद्ध सिंचित क्षेत्र में कोई वृद्धि नहीं हो रही है और दूसरी बात है कि शुद्ध सिंचित क्षेत्र में वास्तविक वृद्धि भू-जल से हो रही है और भू-जल ही सिंचित खेती की संजीवनी है। अगर गलत प्राथमिकताओं से निकलकर बड़ी व मध्यम सिंचाई परियोजनाओं पर पैसा र्खच करने की बजाय मौजूदा अधोसंरचनाओं की मरम्मत व विकास, जलाषयों में गाद कम करने के उपाय, वर्षा जल के संरक्षण व संचयन को प्रोत्साहन देना बेहतर है जिससे पीने के पानी और सिंचाई के पानी दोनों में समंवय बनाकर देष को पानी के भीषण संकट से उभारा जा सकता है।
(दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण के 3 जुलाई 2010 के अंक में प्रकाशित.)
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1 टिप्पणी:
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