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गुरुवार, 29 जनवरी 2009

उस रोज़
चंद लोग आए
मेरे गाँव में
सब की आंखों में
एक आशा थी
मग़र
वो आए और
चले गए
कुछ नही दिया
बस कहा
हम हिंदू है
वो मुसलमान
गाँव के लोग
कुछ नही समझे
मै और
मेरे दोस्त
आजकल पहरा देते है
रोकने के लिये
हम जानते है
वो दुबारा आगे
और कहेंगे
हम अलग अलग है

शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2008

राजस्थान के दो पहलु

राजस्थान के गुण गाने वालों के कंठों में खरखराहट भी नही होती क्योंकि उन्हें सिर्फ़ राजा महाराजो का राजस्थान दिखाई देता है। उन्हें वो राज्य नहीं दिखता जो खुले आसमान के निचे रहता है और बच्चपन जानवरों की गंदगी में बिताता है , ना उन्हें माँ का प्यार मिलता है क्योंकि माँ का प्यार तो ठाकुर के खेतों में काम करते करते सूख गया है और ना हि बाप की सीख।
ज़िन्दगी चाहे गदागर हि बना दे ।
ऐ माँ तू मेरा नाम सिकंदर रख दे ॥

शनिवार, 13 सितंबर 2008

जवानी की दहलीज

चूर चूर हो गए
मिटटी के घर
मिटटी के खिलौने
मगर इस मिटटी का
अलग ही वजूद
छू कर देखो
खून की गर्माहट
आंसू सी शीतलता
बच्चो के पसीने की
प्यारी सी खुसबू
महक रही थी
मै छटपटा उठा
इस जवानी के
दलदल से निकलने के लिय

बुधवार, 27 अगस्त 2008

शब्दों का जाल

शब्द
या शब्दों का जाल
एक ही तो है
शरारत
खामोशी को तोड़ने की
कभी हंसा देते है
कभी रुला देते
और क्या बताऊ
कभी तो सिंहासन
हिल्ला देते है
बस जरूरत है
लय में पिरोने की

प्रतिबिम्ब

कितने गुजर गए
इस राह से
दादा बाप बेटा
यह निर्जीव
देखता रहा
उनके पैरो को
पैरो के निशानों को
उड़ती धुल को
सब एक जैसे ही
आते और निकल जाते
एक दिन
उसने सर उठाकर
चेहरे की तरफ देखा
चौंक गया
अपना ही प्रतिबिम्ब देखकर

एक नकाब

एक नकाब
दो चहरे
गली से महल
चौराहे से अदालत
हर जगह वहम
असली या नकली
तभी एक चेहरा
झुरिया भूख की
नाचती आंखे
डरावना
सूखे पैरो से चलता
लड़खडाता, संभलता
अचानक सामने आ गया

शाम - सुबह

शाम - सुबह
महीने - वर्षों
हांकता रहा
बस हांकता रहा
लाठी के सहारे
सदाचार के नाम
वे खामोश
चलते रहे
बस चलते रहे
रसोई, झाडू -बिस्तर
इतना ही सफर
मगर आज तोड़कर
सदाचार का चश्मा
भय का पिंजरा
उड़ रहे है
बस उड़ रहे है
नई सुबह की ओर