सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में निर्णय दिया है कि राज्यपालों को बदलने के लिये पुख्ता वजह का होना जरूरी है, इस निर्णय ने फिर से राज्यपाल के पद को लेकर नई बहस को जन्म दिया है। भारतीय राजनीति में राज्यपाल का पद सबसे विवादास्पद पद हो गया है, जब सरकारें बदलती है तब राज्यपालों का हटना भी शुरू हो जाता है। भारतीय लोकतंत्र मंे यह सवाल बार उठता है कि राज्यपाल के पद का क्या मतलब है? इस सवाल के पिछे बहुत से कारण में से एक कारण यह भी है कि आजादी के बाद इस पद की गरीमा को भूलकर इसे एक राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया है। विभिन्न राजनैतिक दलों के आपसी मतभेदों के कारण इस संवैधानिक पद की गरीमा को बार बार उछाला गया है। जब कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति को केन्द्र में मंत्री पद नहीं मिल पाता है या उसे सक्रिय राजनीति से हटाना हो तो उसे किसी राज्य का राज्यपाल नियुक्त कर दिया जाता है, इससे दो फायदे है- एक तो पार्टी का एक नेता संतुष्ट हो जाता है जिससे पार्टी में विद्रोह की आषंका नही रहती और दूसरा फायदा है कि अगर राज्य में विरोधी दल की सरकार है तो उसके खिंच तान करने के लिये भी इस पद का उपयोग कर लेते हैं और यह परम्परा सी पन गई कि राज्यपाल सताधारी दल का राजनेता ही होगा। कुल मिला कर यह पद केन्द्रीय राजनीति का राज्यों पर नियंत्रण रखने का एक साधन हो गया है। झारखण्ड और बिहार के राज्यपालों का हाल पिछले दिनों देख ही चुके है, जब भी किसी राज्य में कोई राजनीतिक संकट आता है तो राज्यपाल की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है, लेकिन दुर्भाग्यपुर्ण बात यह है कि जब भी ऐसी स्थिति आती है तो इस पद को विवादों के घेरे में पाते है।
संसदीय लोकतंत्र में केन्द्र और राज्य के बीच राज्यपाल एक सेतु का काम करता है, इस पद की उपयोगिता खासकर तब देखने को मिलती है जब मंत्रिमंडल भंग हो जाता है लेकिन ऐसी स्थिति में भी किसी पार्टी विषेष की वफादारी के कारण कई बार पक्षपात का आरोप लगाया जाता है। संवैधानिक पद होते हुए भी राज्यपाल को विषष संवैधानिक अधिकार प्राप्त नहीं है, केवल शाही खर्चे का प्रतीक बनकर रह जाता है। हाल के वर्षों में धारा 356 के गलत उपयोग के मामले भी सामने आ रहे है जो स्पष्ट करते है कि इस पद के महत्व व अधिकारों को लेकर पुनर्विवेचना हो। ऐसी स्थिति में सुप्रिम कोर्ट का निर्णय स्वागत योग्य है, लेकिन सवाल उठता है कि वो पुख्ता वजह क्या होगी? जब तक इस पद पर राजनीतिक लोगों को आरूढ़ किया जाता है तो निष्चित रूप से वो अपनी पार्टी के प्रति वफादारी दिखाने की कोषिष करेंगे, अगर राज्यपाल विरोधी पक्ष का है तो वो अपने अपने आप में एक वजह बन जायेगी। सुप्रिम कोर्ट ने इस फैसले में बताया है कि राष्ट्रीय नीति के साथ राज्यपाल के विचारों का मेल नहीं होने के कारण उसके कार्यकाल में कटौती करके हटाया जा सकता है और वो केन्द्र सरकार से असहमत भी नही हो सकते अर्थात केन्द्र में जिस पार्टी की सरकार हो उसे पूरी छूट है कि वो राज्यपाल को जब चाहे हटा सकते है। राज्यपाल का पद पूर्णरूप से राजनीतिक आकाओं के रहम पर निर्भर हो गया है जो कि एक स्वतंत्र संवैधानिक पद है।
6 दषक के संवैधानिक अनुभव के आधार पर साफ जाहिर है कि राज्यपाल के पद की पुर्नविवेचना जरूरी हो, इसे एक संवैधानिक पद के रूप में स्थापित किया जाये और राजनीतिक चालबाजीयों से अलग करके स्वतंत्र अभिनेता का स्थान दिया जाये जो संविधान के अनुसार राज्य और केन्द्र के मध्य अपनी भूमिका निभाये।
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गुरुवार, 9 दिसंबर 2010
सोमवार, 18 अक्टूबर 2010
प्रवासी मजदूर मताधिकार अभियान
बिहार की खराब हालत के कारण लोगों का पलायन वर्षों से लगातार जारी है, इस पलायन में दिन प्रतिदिन बढ़ोत्तरी ही हो रही है, वहीं दूसरी तरफ बिहार सरकार को विकास की सरकार के नाम से प्रचारित किया जा रहा है। 2007, 2008 एंव 2009 के दौरान बेगुसराय, कुसहा एंव सीतामढ़ी में तटबंध टूट कर बिहार में सैलाब आए। इसी सरकार के दौरान 2009 में बिहार के कुछ जिले एंव 2010 में अधिकांश ज़िले सूखे की चपेट में आए। राहत की घोषणाएँ तो बहुत हुईं लेकिन पीड़ितों तक कितनी राहत पहुँची यह एक विवाद का विषय है। इस वर्ष भी राज्य एक ओर तो भीषण सूखे की चपेट में है वहीं दूसरी ओर सारण में गंडक नदी पर बना तटबँध टूट गया है और दर्जनों गाँव बाढ़ के ख़तरे से जूझ रहे हैं। तटबँधों के रख-रखाव के मामले में शासन पूरी तरह से असफल साबित हो रहा है।
1990 के भूमण्डलीकरण के कारण एंव पिछले 10 सालों से लगातार बाढ़ व सूखे के कारण पलायन प्रतिशत में और एजाफा हुआ। दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता जैसे शहरों में बिहारी प्रवासी मजदूरों की संख्या बहुत अधिक है, पंजाब जैसे राज्य में खेती के लिए खास तौर पर बिहार से खेत मजदूर बुलाए जाते हैं।
राज्य में मनरेगा एंव बी.पी.एल. जैसी सभी सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी योजनाओं की हालत दयनीय है। अगर हम बिहार की शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, सिंचाई, बिजली आपूर्ति जैसे मुद्दों की बात करें तो पता चलता है कि पिछले 5 वर्षों में भी कोई सार्थक प्रयास नहीं हुए है। अगर बिहार को बाढ़ और सूखे से बचाया गया होता और आम लोगों को सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी योजनाओं का लाभ मिला होता तो आज बिहार से इतनी अधिक संख्या में लोगों का पलायन न हो रहा होता।
बिहार से पलायन कर दूसरे शहरों में रोज़गार के लिए जाने वालों की संख्या लगातार बढ़ती हुई दिखती है, जिसका सही आंकड़ा किसी के पास भी मौजूद नहीं है। दूसरे शहर में रह कर काम करने वाले ये असंगठित क्षेत्र के मजदूर हमारे जनतंत्र में अपने मताधिकार का प्रयोग भी नहीं कर पाते हैं। चूँकि अन्य शहरों से बिहार वापस जाकर वोट देना इन मजदूरों के लिए संभव नहीं, इसलिए इनके मुद्दे भी चुनाव में शामिल नहीं होते। ऐसा महसूस होता है मानो बिहारी मज़दूरों को अन्य शहरों में सम्मान के साथ जीने का कोई अधिकार ही नहीं है। इन मजदूरों पर जब कभी किसी भी प्रकार का हमला होता है, उस समय कोई राजनैतिक पार्टी या राजनेता ज़ुबानी जमाख़र्च के अलावा कोई सार्थक प्रयास नहीं करते। कोई बिहारी अस्तित्त्व पर सम्मेलन कर देता है तो कोई नारेबाज़ी तक अपने आप को सीमित रखता है। न ही उन प्रदेशों में प्रभावी तौर पर कोई अन्य दल मज़दूरों के साथ खड़ा होता है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह लगती है कि इन प्रवासी मज़दूरों का इस जनतंत्र में कहीं वोट देने का अधिकार ही नहीं है। अपने इलाक़े से पलायन कर रोज़गार की तलाश में देश के किसी भी कोने में जाने वाले ये असंगठित क्षेत्र के मज़दूर चुनाव के समय न तो अपने शहर वापस जा कर वोट दे पाते हैं और न ही जिन शहरों में वे काम कर रहे हैं वहाँ उनको वोट देने का अधिकार होता है। शहर के ऐसे तमाम लोग जो चुनावी प्रतियाशियों को वोट देकर कामयाब बनाने का अधिकार नहीं रखते, हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था ऐसे लोगों को रोज़गार, राशन, बिजली, पानी और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत ज़रूरतों से भी वंचित रखतीे है। दूसरे शब्दों में जनतंत्र में वही जी पाता है जो जनतंत्र का हिस्सा है।
पलायन के लिए ज़िम्मेदार मज़दूर नहीं सरकार की नाकामियाँ और इच्छा-शक्ति का अभाव हैं। सरकार की नाकामियों के कारण लोगों से उसके मतदान का हक़ छिन जाए तो नागरिकता और जनतंत्र दोनों ख़तरे में दिखाई देते हैं।
जनतंत्र में केवल उनका सम्मान किया जाता है जो वोट देते हों, जिनका वोट नहीं होता उनके मुद्दे हमेशा दबे रह जाते हैं।
पिछले दिनों में हमारी बातचीत के दौरान इस समस्या के समाधान के लिये निम्न सम्भावनाएं सामने आयी:-
1. मजदूर जहां पर रहते है, ज्यादा से ज्यादा संख्या में उन्हें वहां का मतदाता बनाया जाये। या
2. लोकसभा, विधानसभा और पंचायत चुनावों में आने जाने का यात्रा भता दिया जाये। या
3. मजदूर जहां पर रह रहे हैं वहां पोस्टल बैलेट की व्यवस्था की जाये। या
4. मजदूर के रहने के स्थान पर पोलिंग बूथ लगाये जायें। या 5. इसके अलावा सम्भावनाओं को तलाश किया जाए।
इस समस्या के बाबत हम चुनाव आयोग को ज्ञापन भी दे चुके हैं और आने वाले समय में बिहार विधानसभा चुनावों के 6 चरणों के दौरान दिल्ली में मजदूरों से अपील भी कर रहे हैं कि बिहार जा कर ज्यादा से ज्यादा मतदान में भाग लें, फिर भी जो मजदूर चुनाव में शामिल नहीं हो पाऐंगे वह चुनाव आयोग को पत्र लिख कर इस बात की सूचना देंगे कि वह अपने मताधिकार का प्रयोग दिल्ली में रहने की वजह से नहीं कर पा रहे हैं, यही हमारे वोट हैं इन्हें स्वीकार करें अर्थात चिट्ठी के माध्यम से चुनाव आयोग को अपना वोट दर्ज करायेंगे।
अंतिम चरण के चुनाव के दिन 20 नवम्बर 2010 को मतपत्र के रूप में सभी पत्र चुनाव आयोग को सोंपे जायेंगे ,
बिहार बाढ़ विभीषिका समाधान समिति के सदरे अलम ने बताया कि इस अभियान कि अपील सभी राजनैतिक दलों को भेजी जाएगी , अमन ट्रस्ट के जमाल किदवई ने बताया कि हाल ही में ए एन सिन्हा संस्था (पटना) कि एक रिपोर्ट आई है , जिसमे बताया गया है कि बिहार के ३० % मत दाता पलायन कर गए हैं जो चुनाव में हिस्सा नहीं लेंगे उनके मुताबिक श्रीनगर में एक लाख से अधिक बिहारी मजदूर हैं जो वोट नहीं करते
1990 के भूमण्डलीकरण के कारण एंव पिछले 10 सालों से लगातार बाढ़ व सूखे के कारण पलायन प्रतिशत में और एजाफा हुआ। दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता जैसे शहरों में बिहारी प्रवासी मजदूरों की संख्या बहुत अधिक है, पंजाब जैसे राज्य में खेती के लिए खास तौर पर बिहार से खेत मजदूर बुलाए जाते हैं।
राज्य में मनरेगा एंव बी.पी.एल. जैसी सभी सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी योजनाओं की हालत दयनीय है। अगर हम बिहार की शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, सिंचाई, बिजली आपूर्ति जैसे मुद्दों की बात करें तो पता चलता है कि पिछले 5 वर्षों में भी कोई सार्थक प्रयास नहीं हुए है। अगर बिहार को बाढ़ और सूखे से बचाया गया होता और आम लोगों को सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी योजनाओं का लाभ मिला होता तो आज बिहार से इतनी अधिक संख्या में लोगों का पलायन न हो रहा होता।
बिहार से पलायन कर दूसरे शहरों में रोज़गार के लिए जाने वालों की संख्या लगातार बढ़ती हुई दिखती है, जिसका सही आंकड़ा किसी के पास भी मौजूद नहीं है। दूसरे शहर में रह कर काम करने वाले ये असंगठित क्षेत्र के मजदूर हमारे जनतंत्र में अपने मताधिकार का प्रयोग भी नहीं कर पाते हैं। चूँकि अन्य शहरों से बिहार वापस जाकर वोट देना इन मजदूरों के लिए संभव नहीं, इसलिए इनके मुद्दे भी चुनाव में शामिल नहीं होते। ऐसा महसूस होता है मानो बिहारी मज़दूरों को अन्य शहरों में सम्मान के साथ जीने का कोई अधिकार ही नहीं है। इन मजदूरों पर जब कभी किसी भी प्रकार का हमला होता है, उस समय कोई राजनैतिक पार्टी या राजनेता ज़ुबानी जमाख़र्च के अलावा कोई सार्थक प्रयास नहीं करते। कोई बिहारी अस्तित्त्व पर सम्मेलन कर देता है तो कोई नारेबाज़ी तक अपने आप को सीमित रखता है। न ही उन प्रदेशों में प्रभावी तौर पर कोई अन्य दल मज़दूरों के साथ खड़ा होता है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह लगती है कि इन प्रवासी मज़दूरों का इस जनतंत्र में कहीं वोट देने का अधिकार ही नहीं है। अपने इलाक़े से पलायन कर रोज़गार की तलाश में देश के किसी भी कोने में जाने वाले ये असंगठित क्षेत्र के मज़दूर चुनाव के समय न तो अपने शहर वापस जा कर वोट दे पाते हैं और न ही जिन शहरों में वे काम कर रहे हैं वहाँ उनको वोट देने का अधिकार होता है। शहर के ऐसे तमाम लोग जो चुनावी प्रतियाशियों को वोट देकर कामयाब बनाने का अधिकार नहीं रखते, हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था ऐसे लोगों को रोज़गार, राशन, बिजली, पानी और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत ज़रूरतों से भी वंचित रखतीे है। दूसरे शब्दों में जनतंत्र में वही जी पाता है जो जनतंत्र का हिस्सा है।
पलायन के लिए ज़िम्मेदार मज़दूर नहीं सरकार की नाकामियाँ और इच्छा-शक्ति का अभाव हैं। सरकार की नाकामियों के कारण लोगों से उसके मतदान का हक़ छिन जाए तो नागरिकता और जनतंत्र दोनों ख़तरे में दिखाई देते हैं।
जनतंत्र में केवल उनका सम्मान किया जाता है जो वोट देते हों, जिनका वोट नहीं होता उनके मुद्दे हमेशा दबे रह जाते हैं।
पिछले दिनों में हमारी बातचीत के दौरान इस समस्या के समाधान के लिये निम्न सम्भावनाएं सामने आयी:-
1. मजदूर जहां पर रहते है, ज्यादा से ज्यादा संख्या में उन्हें वहां का मतदाता बनाया जाये। या
2. लोकसभा, विधानसभा और पंचायत चुनावों में आने जाने का यात्रा भता दिया जाये। या
3. मजदूर जहां पर रह रहे हैं वहां पोस्टल बैलेट की व्यवस्था की जाये। या
4. मजदूर के रहने के स्थान पर पोलिंग बूथ लगाये जायें। या 5. इसके अलावा सम्भावनाओं को तलाश किया जाए।
इस समस्या के बाबत हम चुनाव आयोग को ज्ञापन भी दे चुके हैं और आने वाले समय में बिहार विधानसभा चुनावों के 6 चरणों के दौरान दिल्ली में मजदूरों से अपील भी कर रहे हैं कि बिहार जा कर ज्यादा से ज्यादा मतदान में भाग लें, फिर भी जो मजदूर चुनाव में शामिल नहीं हो पाऐंगे वह चुनाव आयोग को पत्र लिख कर इस बात की सूचना देंगे कि वह अपने मताधिकार का प्रयोग दिल्ली में रहने की वजह से नहीं कर पा रहे हैं, यही हमारे वोट हैं इन्हें स्वीकार करें अर्थात चिट्ठी के माध्यम से चुनाव आयोग को अपना वोट दर्ज करायेंगे।
अंतिम चरण के चुनाव के दिन 20 नवम्बर 2010 को मतपत्र के रूप में सभी पत्र चुनाव आयोग को सोंपे जायेंगे ,
बिहार बाढ़ विभीषिका समाधान समिति के सदरे अलम ने बताया कि इस अभियान कि अपील सभी राजनैतिक दलों को भेजी जाएगी , अमन ट्रस्ट के जमाल किदवई ने बताया कि हाल ही में ए एन सिन्हा संस्था (पटना) कि एक रिपोर्ट आई है , जिसमे बताया गया है कि बिहार के ३० % मत दाता पलायन कर गए हैं जो चुनाव में हिस्सा नहीं लेंगे उनके मुताबिक श्रीनगर में एक लाख से अधिक बिहारी मजदूर हैं जो वोट नहीं करते
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सोमवार, 23 अगस्त 2010
कैसे बाज आयें कबूतरबाज
विदेश में नौकरी दिलाने का झांसा देकर पैसे हड़पने की घटनाएं रोज सामने आनी लगी हैं। बाहरी देशों में जाकर मजदूरी करने वाले मजदूरों में ज्यादातर मजदूर खाड़ी देशों में जातें हैं और खाड़ी देशों में रोजगार दिलाने वाले कबूतरबाजों का जाल पूरे देश में फैला हुआ है। पिछले दिनों में लीबिया में 116 भारतीयों को बंधक बनाने की खबरें आयीं हैं जिन्हें कबूतरबाजों द्वारा अच्छी पगार और बेहतर रोजगार का झांसा देकर लीबिया भेजा गया, जहां पर अच्छी तनख्वाह तो दूर खाना तक नहीं दिया गया। ऐसे वाकयात बहुत से बेरोजगारों के साथ हाते रहते है। कबूतरबाजी के इस धंधे में ज्यादातर गरीब मजदूर फंसतें हैं क्योंकि एक ओर तो देश में रोजगार की कमी है, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र में और दूसरी बात यह है कि मजदूरी के लिये विदेश भेजने की सरकारी स्तर पर कोई व्यवस्था नहीं है। ऐसी स्थिति में सच्चाई जानते हुए भी मजदूरों को इन कबूतरबाजों का सहारा लेना पड़ता है जो लाखें रूपये लेकर ठगते हैं। ये सबसे पहले तो बेरोजगारों को अच्छी पगार और बेहतर रोजगार के सपने दिखातें हैं और नहीं मिलने पर पैसे वापस करने के खोखले वादे भी करतें हैं। जब इन मजदूरों की विदेशों में दुर्दशा होती है, बेहतर रोजगार तो दूर कम्पनीयों और मालिकों द्वारा मानवीय व्यवहार भी नहीं किया जाता तो बहुत से मजदूर तो वापस लौट आतें हैं और जो नहीं लौटतें है उनकी स्थिति दयनीय होती है। जब वापस लौटकर पैसा मांगतें हैं तो कबूतरबाज पैसा वापस करने से इंकार कर देते हैं। ऐसी स्थिति में पीड़ित पक्ष अगर कानून की शरण में जाता है तो भी उन्हें कोई फायदा नहीं होता है क्योंकि कानून को सबूत चाहिये और मजदूरो व ठगी कबूतरबाजों के बीच कोई लिखित समझौता तो होता नहीं है और बहुत से मामलों में तो गवाह पेश करना भी मुश्किल हो जाता है, तब कबूतरबाज आराम से कानून की पकड़ से बच जातें हैं। इन कबूतरबाजों का जाल गांवों से लेकर बड़े शहरों तक फैला हुआ है जिसकी गिरफ्त में अधिकतर बेरोजगार युवा आते हैं। यह समस्या न केवल कबूतरबाजों द्वारा लोगों को ठगने की है बल्कि यह मुख्यरूप से समाज की उन हालातों की और संकेत करती है जो एक ओर तो ऐसे ठगी लोगों के पनपने का रास्ता साफ करती है, दूसरी ओर लोगों को इनके पास जाने को मजबूर भी करती है जिसके कारण बड़े पैमाने पर श्रम का शोषण होता है।
देश में संसाधनों का बंटवारा कुछ इस प्रकार से हुआ है कि खुशहाली कुछ मुटठीभर लोगों के हिस्से में चली गई और समाज के एक बड़े तबके को बदहाली की स्थिति में जीना पड़ रहा है। मगर इससे भी बड़ा सवाल है कि आबादी लगातार बढ़ती जा रही है और संसाधन सिमित हैं, ग्रामीण क्षेत्र में नए रोजगारों का सृजन नहीं हो रहा है जबकि परम्परागत रोजगार के साधन दिनोंदिन घटते जा रहें हैं। इस पूरे परिदृश्य ने युवाओं के सामने चनौती खड़ी कर दी कि आखिर वो क्या करंे ? यहीं से बहुत सी समस्याओं का जन्म हो जाता है जिन्हें आज हम हमारे चारों ओर के समाज में देखतें हैं और इन कबूतरबाजों का मामला भी उसी का हिस्सा है। जबकि पुलिस व प्रशासन को इन कबूतरबाजों के बारे में पूरी जानकारी रहती है क्योंकि लोगों के संवादों में ये इतने प्रचारित किये जातें हैं कि प्रशासन को आराम से पता चल जाता है। इस पर भी प्रशासन अगर यह तर्क देता है कि उन्हें पता भी नहीं था कि ऐसा कोई धंधां चल रहा है तो सवाल उठता है कि पता क्यों नहीं था ? शिकायत दर्ज होने के बाद भी इन कबूतरबाजों द्वारा लगातार लोगों को ठगा जाये तो जाहिर है कि ये कोई आम ठग या लूटेरे नहीं है बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से सक्षम व ताकतवर लोगों का गिरोह है जो अपनी शक्ति का गलत उपयोग करके लोगों को ठगता रहता है। एक गरीब बेरोजगार 1 लाख रूपये देकर नौकरी के लिये जाता है और उसे इस प्रकार से प्रताड़ित किया जाता है, यह बहुत ही गम्भीर मामला है जिस पर कोई राजनीतिक बातचित नहीं हो रही है। हो सकता है कि इन कबूतरबाजों के तार स्विस बैंक में जमा भारतीय पूंजी तक हो या बहुत से नेता व प्रशासनिक अधिकारीयों की मिलीभगत हो, अपराधीयों को देश से बाहर जाने में भी ऐसे लोगों का हाथ हो सता है जिसकी जांच होनी चाहिए।
इस समस्या का हल करने का पहला तरिका तो है कि देश में ग्रामीण क्षेत्रों में नये रोजगारो का सृजन किया जाये ताकि बेरोजगारों को विदेशों की तरफ रूख ही न करना पड़े और दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि लोगों के साथ ठगी और धोखाधड़ी करने वाले इन कबूतरबाजों के प्रति प्रशासन कड़ा रूख अपनाये ताकि एक बेरोजगार को अमावीय यातनाओं से बचाया जा सके। अगर समय रहते इन कबूतरबाजों पर अंकुश नहीं लगाया गया तो ये आज तो श्रम को विदेशों में बेच रहें है कल पूरे देश को ही बेच खायेंगे।
देश में संसाधनों का बंटवारा कुछ इस प्रकार से हुआ है कि खुशहाली कुछ मुटठीभर लोगों के हिस्से में चली गई और समाज के एक बड़े तबके को बदहाली की स्थिति में जीना पड़ रहा है। मगर इससे भी बड़ा सवाल है कि आबादी लगातार बढ़ती जा रही है और संसाधन सिमित हैं, ग्रामीण क्षेत्र में नए रोजगारों का सृजन नहीं हो रहा है जबकि परम्परागत रोजगार के साधन दिनोंदिन घटते जा रहें हैं। इस पूरे परिदृश्य ने युवाओं के सामने चनौती खड़ी कर दी कि आखिर वो क्या करंे ? यहीं से बहुत सी समस्याओं का जन्म हो जाता है जिन्हें आज हम हमारे चारों ओर के समाज में देखतें हैं और इन कबूतरबाजों का मामला भी उसी का हिस्सा है। जबकि पुलिस व प्रशासन को इन कबूतरबाजों के बारे में पूरी जानकारी रहती है क्योंकि लोगों के संवादों में ये इतने प्रचारित किये जातें हैं कि प्रशासन को आराम से पता चल जाता है। इस पर भी प्रशासन अगर यह तर्क देता है कि उन्हें पता भी नहीं था कि ऐसा कोई धंधां चल रहा है तो सवाल उठता है कि पता क्यों नहीं था ? शिकायत दर्ज होने के बाद भी इन कबूतरबाजों द्वारा लगातार लोगों को ठगा जाये तो जाहिर है कि ये कोई आम ठग या लूटेरे नहीं है बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से सक्षम व ताकतवर लोगों का गिरोह है जो अपनी शक्ति का गलत उपयोग करके लोगों को ठगता रहता है। एक गरीब बेरोजगार 1 लाख रूपये देकर नौकरी के लिये जाता है और उसे इस प्रकार से प्रताड़ित किया जाता है, यह बहुत ही गम्भीर मामला है जिस पर कोई राजनीतिक बातचित नहीं हो रही है। हो सकता है कि इन कबूतरबाजों के तार स्विस बैंक में जमा भारतीय पूंजी तक हो या बहुत से नेता व प्रशासनिक अधिकारीयों की मिलीभगत हो, अपराधीयों को देश से बाहर जाने में भी ऐसे लोगों का हाथ हो सता है जिसकी जांच होनी चाहिए।
इस समस्या का हल करने का पहला तरिका तो है कि देश में ग्रामीण क्षेत्रों में नये रोजगारो का सृजन किया जाये ताकि बेरोजगारों को विदेशों की तरफ रूख ही न करना पड़े और दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि लोगों के साथ ठगी और धोखाधड़ी करने वाले इन कबूतरबाजों के प्रति प्रशासन कड़ा रूख अपनाये ताकि एक बेरोजगार को अमावीय यातनाओं से बचाया जा सके। अगर समय रहते इन कबूतरबाजों पर अंकुश नहीं लगाया गया तो ये आज तो श्रम को विदेशों में बेच रहें है कल पूरे देश को ही बेच खायेंगे।
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गुरुवार, 12 अगस्त 2010
नवउदारीकरण के जाल में किसान
1991 के बाद भारत विष्वव्यापी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का अंग बनता जा रहा है। खुले व्यापार और निजी निवेष के माॅडल को अपनाने के बाद प्राथमिक क्षेत्र पर लगातार संकट के बादल मंडरा रहे है और उससे कृषि व कृषि से जुड़ा हुआ तबका बूरी तरह प्रभावित हुआ है। यूरोप के देषों में औधोगिककरण के बाद खेती पर निर्भरता घटती गई मगर भारत में 1971 की तुलना 2005 में कृषि कामगारों की संख्या दुगुनी हो गई है। एक तरफ जनसंख्या के बढ़ते दवाब और दूसरी तरफ कृषि में सार्वजनिक निवेष के घटने के कारण भारतीय कृषि हाषिये पर पहुंच गई है। विष्व बैंक ने भी 2008 की रिर्पोट में कृषि को विकास के ऐजेंडे में माना है क्योंकि विकासषील देषों की अधिकांष जनता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि से जुड़ी हुई है। वैष्विक परिदृष्य पर पूंजीवादी ताकतें विष्व बैंक व अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के माध्यम से विकासषील देषों की कृषी पर लगातार हमला कर रही है क्योंकि वे अपने टनों अनाज को बाजार में मंदी के डर से नहीं ला सकते, इसलिए समुंद्र में डुबाये जाने वाले अनाज के लिए बाजार तैयार करना चाहते है और वो तभी सम्देषों की कृषि को पूरी तरह तबाह कर दिया जाये।
भारत की जीडीपी में कृषि क्षेत्र की भागीदारी लगातार कम हो रही है और अब यह मात्र 15.7 फीसदी रह गई है क्योंकि कृषि क्षेत्र में 1991 के बाद लगातार सार्वजनिक निवेष को घटाया जा रहा है। 1991 में कृषि पर सार्वजनिक निवेष 16 फीसदी था जो पिछले वर्ष घटकर 6 फीसदी रह गया है। आर्थिक सुधारों के दौरान कृषि की अनदेखी हुई है जिसका मुख्य कारण है कि सरकार कृषि लागतों पर सब्सिडी और उपज पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की नीतियों को ही मुख्य ऐजेंडे में रखा लेकिन कृषि पर शोध, तकनीकी विकास, सिंचाई, ऊर्जा, भंडारण व अन्य परम्परागत ज्ञान के विकास पर कोई निवेष नहीं किया। नई आर्थिक नीतियों को अपनाने के बाद भारतीय किसान वैष्विक बाजार में विकसित देषों के किसानों से प्रतिस्पद्र्धा में टिक ही नहीं पाता है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था को विष्व बाजार में प्रतिस्पद्र्धा के लिये तो खोल दिया मगर अर्थव्यवस्था के प्रारम्भिक ढ़ांचे- कृषि और प्राथमिक क्षेत्र का आधारभूत विकास ही नहीं किया गया। पिछले साल यू. पी. ए. सरकार की 78 हजार करोड़ रूपये की ऋण माफी के बाद भी किसान आत्महत्याएं कर रहे है और इस वर्ष भी कृषि वृद्धि दर पिछले वर्ष की तुलना में 0.2 प्रतिषत ऋणात्मक रही है। जिस देष में 60 प्रतिषत लोग कृषि से जुड़े हुए हो, वहां पर कृषि वृद्धि दर ऋणात्मक रहना कृषि विरोधी नीतियों को दर्षाता है। सही मायनों में ऋण माफी किसानों को फायदा देने के लिये नहीं थी, वो बड़े बैंको की एमपीए कम करने की साजिष थी जो किसानों सिर पर मढ़ दी गई। मीडिया भी कृषि मृद्दो को लेकर संवेदनषील नहीं है, 78 हजार करोड़ रूपये की ऋण माफी को ऐसे उछाला जैसे इससे भारतीय कृषि का मूलभूत ढंाचा ही बदल जायेगा लेकिन उसी साल औधोगिक क्षेत्र को 3 लाख करोड़ रूपये का टेक्स रिबेेट दिया गया जिस पर कोई सवाल नहीं उठे। कार लोन शून्य प्रतिषत ब्याज पर दिया जा सकता है लेकिन किसानो को ऋण देने के लिए सरकार ने नाबार्ड से लेकर किसान तक इतनी ज्यादा औपचारिक कड़िया बना रखी है कि उसे समय व जरूरत के मुताबिक ऋण मिल पाना मुष्किल है। नई आर्थिक नीतियों के तहत अर्थव्यवस्था को पूर्णरूप से सेवा क्षेत्र पर निर्भर करने की कोषिष की गई और प्राथमिक क्षेत्र को नजर अंदाज किया गया। आज किसान और उपभोक्ता के बीच के दलालोे की संख्या इतनी बढ़ गई है कि दोनों का पैसा बिचैलियों द्वारा हड़प लिया जाता है। एक अध्ययन के मुताबिक कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य तथा थोक मूल्यों में 33 प्रतिषत का और थोक एंव खुदरा मूल्यों मंे लगभग 60 प्रतिषत का अन्तर होता है। अगर एक किसान अपनी उपज का 100 रूपये पाता है तो उपभोक्त द्वारा 200 चुकाये जाते है। बीच के 100 रूपये सप्लाई चैन सिस्टम की कमजोरी के कारण बिचैलियों के जेब में जाते है। आज भारतीय कृषि एक घाटे का व्यवसाय बन गई है जिसके मुख्य कारण प्राकृतिक प्रकोप और नई आर्थिक नीति के तहत कृषि विरोधी नीतियों का लागू होना है। कृषि के पिछड़ेपन और ग्रामीण रोजगार के अभाव में बहुत बड़ा तबका शहरों की ओर पलायन कर रहा है जिसके कारण शहरो की अर्थव्यस्थाओं का ढंाचा भी चरमरा रहा है। कृषि क्षेत्र को दिये जाने वाले कर्ज में पिछले कुछ सालों में काफी वृद्वि हुई है। 1996-97 से 2003-04 के बीच यह 14.27 प्रतिषत वार्षिक वृद्धि की दर से बढ़ा है लेकिन कृषि क्षेत्र में वास्तविक निवेष नहीं बढ़ा है। कृषि में सार्वजनिक निवेष और कृषि सब्सिड़ी में विपरीत संबंध दिखाई देता है।
1990 के दषक में विष्व पटल पर समाजवादी आंदोलन का नेतृत्वकर्ता सोवियत संघ के विघटन के कारण पूंजीवादी ताकतों को खुला मैदान हो गया और विष्व एकधुव्रीय व्यवस्था में तबदील होने के कारण बहुत से विकासषील देषों ने मजबूरी में नवउदारवादी नीतियों को अपनाना पड़ा, भारत भी उसी लपेटे में आ गया था। भारतीय कृषि को अमेरिकी सांचे में ढ़ालने के लिये नीति निर्धारकों से लेकर कृषि की शोध संस्थाएं उदारीकरण के पक्ष में तर्क देने में जुट गई, इसीलिए भारतीय कृषि वैज्ञानिक बंजर भूमी को उपजाऊ बनाने की तकनीक खोजने के बजाय बीटी बीजों की वकालत करने लगे। आज देष में 50 से अधिक कृषि विष्वविधालय हैं मगर उनकी उपलब्धियां क्या हैं ? कृषि अनुसंधान और षिक्षा भी भारतीय कृषि के संकट के लिये जिम्मेदार है, क्योंकि वो भारतीय कृषि की समस्याएं और परिस्थितियों पर शोध करने के बजाय इस बात पर शोध कर रहा है कि भारतीय कृषि को अमेरिकन मोडल में कैसे ढ़ाला जाये और इसी कारण मूलभूत समस्यायों को गौण कर दिया गया। आजादी के बाद लगातार एक तरफ बिहार में बाढ़ ने लोगों को तबाह करके रखा और दूसरी तरफ राजस्थान में हर साल अकाल पड़ता है मगर हमारी सरकारों ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया कि बाढ़ का पानी सूखे की तरफ मोड़ कर दोनों तबाहीयों को बचाया जा सकता है। क्योंकि अगर ऐसा हो गया तो अकाल राहत और बाढ़ राहत के नाम पर जो करोड़ों के फंड दिये जाते है उनमें धांधली कैसे होगी? दरअसल में नवउदारवादी नीतियों का चरित्र ही ऐसा है कि वो चंद लोगों के लिये लूट का हथियार है। विकास के नाम पर किसानों को सहायता देने के बजाय उन्हें जमीन से बेदखल करने के पट्टे भी बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों को दे दिया है। सच्चाई तो यह है कि भारतीय किसान कभी प्रकृति से नहीं हारा है क्योंकि प्रकृति हमेषा संतुलन बनाये रखती है मगर नई आर्थिक नीतियों ने तो किसान से लेने की ही नीति अपनाई है उसे बदले में कर्ज के सिवाय मिलता कुछ नहीं।
देष में लगातार किसान आत्महत्याएं कर रहें हैं, पिछले 12 सालों में 2 लाख किसानों द्वारा आत्महत्या करना नवउदारवादी नीतियों का ही परिणाम है और सरकार कर्ज माफी का एक पैकेज देकर इति श्री कर ली लेकिन सवाल उन नीतियों को बदलने का है जिनके कारण आज भारतीय किसान हाषिये पर पहुंच गये है, चाहे सब्सिडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाने की बात हो या फिर नई तकनीक और संसाधन उपलब्ध कराने की हो, किसानों को हर जगह लूटा जाता है। राजनैतिक रूप से किसानों का ऐसा कोई वोट बैंक नहीं है जिसके कारण राजनीतिक दल उन्हें महत्व दें क्योंकि वोट को तो पहले से ही जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर विभाजित कर दिया गया है। कुछ तथाकथित किसान नेता जरूर हैं जिन्हे न तो किसानों की वास्तविक समस्याओं का पता है और न किसान की हालत का। असल में वो जमीन के मालिक जरूर है मगर जमीन पर खुद कभी खेती नहीं की, वो जमींदार है जिनके यहां भूमिहीन मजदूर काम करते है लेकिन वो सरकार की परिभाषा के हिसाब से किसान है क्योंकि सरकार उसी को किसान मानती है जिसके नाम पर जमीन हो। उनके किसान नेता बनने के पीछे तर्क यह है कि किसी अन्य राजनीतिक दल में जगह नहीं मिलने के कारण खुद को राजनीतिक धरातल पर स्थापित करने के लिये किसान राजनीति के नाम पर जहां मौका मिले भाषणबाजी करते रहते हैं।
सप्रंग सरकार के दूसरे कार्यकाल के एक वर्ष पूरे हो जाने पर रिर्पोट कार्ड जारी करके करकार अपनी पीठ थपथपा रही है जबकि इसी सरकार की किसान विरोधी नीतियों के कारण महंगाई में किसान बदहाल है, एक तरफ तो वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं और वही दूसरी तरफ किसान को फसल का उचित मूल्य भी नहीं मिल पा रहा है। मनमोहन सिंह का अर्थषास्त्र किसानों के लिये न होकर, ठेकेदारों और बिचोलियों के हित में है मगर सप्रंग सरकार जबरदस्ती उसे अपनी उपलब्धीयों मनाने पर अड़ी हुई है। एक तरफ भारत में किसानों को दिया जाने वाला अनुदान घटाया जा रहा है और दूसरी तरफ दुनियां के विकसित देष कृषि अनुदान को बढ़ा रहे है, ऐसी स्थिति में भारतीय किसान कैसे वैष्विक बाजार में टिक पायेगा जिसके दरवाजे बिना तैयारी के ही खोल दिये गये है। नवउदारवादी नीतियों का मुख्य ऐजेंडा है कि भारतीय कृषि किसानों से छीनकर बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों के हाथ में चली जाये। कृषि संकट से उभरने के लिये दुसरी हरित क्रांति का शंखनाद करने की तैयारी करने वाले भूल रहे है कि किसान बढ़ती लागत और उपज के घटते मूल्य की दोहरी चक्की में पिस रहा है न की तकनीक और उन्नत किस्म के बीजों के अभाव में। किसान व कृषि को वैष्विकरण के दानव से बचाने के लिये ऋण माफी व अन्य रियायतों की बजाय क्षि नीतियों को बदलने की जरूरत है जो किसान को आज ‘मुक्त बाजार’ के ऐसे बनिये के जाल में फंसा दिया है जिसके बही खातो से लेकर हिसाब किताब की भाषा ही भारतीय किसान विरोधी है।
भारत की जीडीपी में कृषि क्षेत्र की भागीदारी लगातार कम हो रही है और अब यह मात्र 15.7 फीसदी रह गई है क्योंकि कृषि क्षेत्र में 1991 के बाद लगातार सार्वजनिक निवेष को घटाया जा रहा है। 1991 में कृषि पर सार्वजनिक निवेष 16 फीसदी था जो पिछले वर्ष घटकर 6 फीसदी रह गया है। आर्थिक सुधारों के दौरान कृषि की अनदेखी हुई है जिसका मुख्य कारण है कि सरकार कृषि लागतों पर सब्सिडी और उपज पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की नीतियों को ही मुख्य ऐजेंडे में रखा लेकिन कृषि पर शोध, तकनीकी विकास, सिंचाई, ऊर्जा, भंडारण व अन्य परम्परागत ज्ञान के विकास पर कोई निवेष नहीं किया। नई आर्थिक नीतियों को अपनाने के बाद भारतीय किसान वैष्विक बाजार में विकसित देषों के किसानों से प्रतिस्पद्र्धा में टिक ही नहीं पाता है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था को विष्व बाजार में प्रतिस्पद्र्धा के लिये तो खोल दिया मगर अर्थव्यवस्था के प्रारम्भिक ढ़ांचे- कृषि और प्राथमिक क्षेत्र का आधारभूत विकास ही नहीं किया गया। पिछले साल यू. पी. ए. सरकार की 78 हजार करोड़ रूपये की ऋण माफी के बाद भी किसान आत्महत्याएं कर रहे है और इस वर्ष भी कृषि वृद्धि दर पिछले वर्ष की तुलना में 0.2 प्रतिषत ऋणात्मक रही है। जिस देष में 60 प्रतिषत लोग कृषि से जुड़े हुए हो, वहां पर कृषि वृद्धि दर ऋणात्मक रहना कृषि विरोधी नीतियों को दर्षाता है। सही मायनों में ऋण माफी किसानों को फायदा देने के लिये नहीं थी, वो बड़े बैंको की एमपीए कम करने की साजिष थी जो किसानों सिर पर मढ़ दी गई। मीडिया भी कृषि मृद्दो को लेकर संवेदनषील नहीं है, 78 हजार करोड़ रूपये की ऋण माफी को ऐसे उछाला जैसे इससे भारतीय कृषि का मूलभूत ढंाचा ही बदल जायेगा लेकिन उसी साल औधोगिक क्षेत्र को 3 लाख करोड़ रूपये का टेक्स रिबेेट दिया गया जिस पर कोई सवाल नहीं उठे। कार लोन शून्य प्रतिषत ब्याज पर दिया जा सकता है लेकिन किसानो को ऋण देने के लिए सरकार ने नाबार्ड से लेकर किसान तक इतनी ज्यादा औपचारिक कड़िया बना रखी है कि उसे समय व जरूरत के मुताबिक ऋण मिल पाना मुष्किल है। नई आर्थिक नीतियों के तहत अर्थव्यवस्था को पूर्णरूप से सेवा क्षेत्र पर निर्भर करने की कोषिष की गई और प्राथमिक क्षेत्र को नजर अंदाज किया गया। आज किसान और उपभोक्ता के बीच के दलालोे की संख्या इतनी बढ़ गई है कि दोनों का पैसा बिचैलियों द्वारा हड़प लिया जाता है। एक अध्ययन के मुताबिक कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य तथा थोक मूल्यों में 33 प्रतिषत का और थोक एंव खुदरा मूल्यों मंे लगभग 60 प्रतिषत का अन्तर होता है। अगर एक किसान अपनी उपज का 100 रूपये पाता है तो उपभोक्त द्वारा 200 चुकाये जाते है। बीच के 100 रूपये सप्लाई चैन सिस्टम की कमजोरी के कारण बिचैलियों के जेब में जाते है। आज भारतीय कृषि एक घाटे का व्यवसाय बन गई है जिसके मुख्य कारण प्राकृतिक प्रकोप और नई आर्थिक नीति के तहत कृषि विरोधी नीतियों का लागू होना है। कृषि के पिछड़ेपन और ग्रामीण रोजगार के अभाव में बहुत बड़ा तबका शहरों की ओर पलायन कर रहा है जिसके कारण शहरो की अर्थव्यस्थाओं का ढंाचा भी चरमरा रहा है। कृषि क्षेत्र को दिये जाने वाले कर्ज में पिछले कुछ सालों में काफी वृद्वि हुई है। 1996-97 से 2003-04 के बीच यह 14.27 प्रतिषत वार्षिक वृद्धि की दर से बढ़ा है लेकिन कृषि क्षेत्र में वास्तविक निवेष नहीं बढ़ा है। कृषि में सार्वजनिक निवेष और कृषि सब्सिड़ी में विपरीत संबंध दिखाई देता है।
1990 के दषक में विष्व पटल पर समाजवादी आंदोलन का नेतृत्वकर्ता सोवियत संघ के विघटन के कारण पूंजीवादी ताकतों को खुला मैदान हो गया और विष्व एकधुव्रीय व्यवस्था में तबदील होने के कारण बहुत से विकासषील देषों ने मजबूरी में नवउदारवादी नीतियों को अपनाना पड़ा, भारत भी उसी लपेटे में आ गया था। भारतीय कृषि को अमेरिकी सांचे में ढ़ालने के लिये नीति निर्धारकों से लेकर कृषि की शोध संस्थाएं उदारीकरण के पक्ष में तर्क देने में जुट गई, इसीलिए भारतीय कृषि वैज्ञानिक बंजर भूमी को उपजाऊ बनाने की तकनीक खोजने के बजाय बीटी बीजों की वकालत करने लगे। आज देष में 50 से अधिक कृषि विष्वविधालय हैं मगर उनकी उपलब्धियां क्या हैं ? कृषि अनुसंधान और षिक्षा भी भारतीय कृषि के संकट के लिये जिम्मेदार है, क्योंकि वो भारतीय कृषि की समस्याएं और परिस्थितियों पर शोध करने के बजाय इस बात पर शोध कर रहा है कि भारतीय कृषि को अमेरिकन मोडल में कैसे ढ़ाला जाये और इसी कारण मूलभूत समस्यायों को गौण कर दिया गया। आजादी के बाद लगातार एक तरफ बिहार में बाढ़ ने लोगों को तबाह करके रखा और दूसरी तरफ राजस्थान में हर साल अकाल पड़ता है मगर हमारी सरकारों ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया कि बाढ़ का पानी सूखे की तरफ मोड़ कर दोनों तबाहीयों को बचाया जा सकता है। क्योंकि अगर ऐसा हो गया तो अकाल राहत और बाढ़ राहत के नाम पर जो करोड़ों के फंड दिये जाते है उनमें धांधली कैसे होगी? दरअसल में नवउदारवादी नीतियों का चरित्र ही ऐसा है कि वो चंद लोगों के लिये लूट का हथियार है। विकास के नाम पर किसानों को सहायता देने के बजाय उन्हें जमीन से बेदखल करने के पट्टे भी बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों को दे दिया है। सच्चाई तो यह है कि भारतीय किसान कभी प्रकृति से नहीं हारा है क्योंकि प्रकृति हमेषा संतुलन बनाये रखती है मगर नई आर्थिक नीतियों ने तो किसान से लेने की ही नीति अपनाई है उसे बदले में कर्ज के सिवाय मिलता कुछ नहीं।
देष में लगातार किसान आत्महत्याएं कर रहें हैं, पिछले 12 सालों में 2 लाख किसानों द्वारा आत्महत्या करना नवउदारवादी नीतियों का ही परिणाम है और सरकार कर्ज माफी का एक पैकेज देकर इति श्री कर ली लेकिन सवाल उन नीतियों को बदलने का है जिनके कारण आज भारतीय किसान हाषिये पर पहुंच गये है, चाहे सब्सिडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाने की बात हो या फिर नई तकनीक और संसाधन उपलब्ध कराने की हो, किसानों को हर जगह लूटा जाता है। राजनैतिक रूप से किसानों का ऐसा कोई वोट बैंक नहीं है जिसके कारण राजनीतिक दल उन्हें महत्व दें क्योंकि वोट को तो पहले से ही जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर विभाजित कर दिया गया है। कुछ तथाकथित किसान नेता जरूर हैं जिन्हे न तो किसानों की वास्तविक समस्याओं का पता है और न किसान की हालत का। असल में वो जमीन के मालिक जरूर है मगर जमीन पर खुद कभी खेती नहीं की, वो जमींदार है जिनके यहां भूमिहीन मजदूर काम करते है लेकिन वो सरकार की परिभाषा के हिसाब से किसान है क्योंकि सरकार उसी को किसान मानती है जिसके नाम पर जमीन हो। उनके किसान नेता बनने के पीछे तर्क यह है कि किसी अन्य राजनीतिक दल में जगह नहीं मिलने के कारण खुद को राजनीतिक धरातल पर स्थापित करने के लिये किसान राजनीति के नाम पर जहां मौका मिले भाषणबाजी करते रहते हैं।
सप्रंग सरकार के दूसरे कार्यकाल के एक वर्ष पूरे हो जाने पर रिर्पोट कार्ड जारी करके करकार अपनी पीठ थपथपा रही है जबकि इसी सरकार की किसान विरोधी नीतियों के कारण महंगाई में किसान बदहाल है, एक तरफ तो वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं और वही दूसरी तरफ किसान को फसल का उचित मूल्य भी नहीं मिल पा रहा है। मनमोहन सिंह का अर्थषास्त्र किसानों के लिये न होकर, ठेकेदारों और बिचोलियों के हित में है मगर सप्रंग सरकार जबरदस्ती उसे अपनी उपलब्धीयों मनाने पर अड़ी हुई है। एक तरफ भारत में किसानों को दिया जाने वाला अनुदान घटाया जा रहा है और दूसरी तरफ दुनियां के विकसित देष कृषि अनुदान को बढ़ा रहे है, ऐसी स्थिति में भारतीय किसान कैसे वैष्विक बाजार में टिक पायेगा जिसके दरवाजे बिना तैयारी के ही खोल दिये गये है। नवउदारवादी नीतियों का मुख्य ऐजेंडा है कि भारतीय कृषि किसानों से छीनकर बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों के हाथ में चली जाये। कृषि संकट से उभरने के लिये दुसरी हरित क्रांति का शंखनाद करने की तैयारी करने वाले भूल रहे है कि किसान बढ़ती लागत और उपज के घटते मूल्य की दोहरी चक्की में पिस रहा है न की तकनीक और उन्नत किस्म के बीजों के अभाव में। किसान व कृषि को वैष्विकरण के दानव से बचाने के लिये ऋण माफी व अन्य रियायतों की बजाय क्षि नीतियों को बदलने की जरूरत है जो किसान को आज ‘मुक्त बाजार’ के ऐसे बनिये के जाल में फंसा दिया है जिसके बही खातो से लेकर हिसाब किताब की भाषा ही भारतीय किसान विरोधी है।
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भारतीय कृषि और नई आर्थिक नीतियाँ
मंगलवार, 10 अगस्त 2010
दूसरी हरित क्रांति वैकल्पिक कृषि के रास्ते
कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिये भारत सरकार ने कार्यसमूह गठित किया है और उस कार्य समूह के अध्यक्ष का मानना है कि दूसरी हरित क्रांति जरूरी है। एक तरफ देष में तिव्रगती से बढ़ती हुई जनसंख्या और दूसरी तरफ कृषि का लगातार पिछड़ापन एक भयानक खाद्यान्न संकट का संकेत देते हंै। ऐसी स्थिति में वैकल्पिक कृषि भारत का पेट भर सकती है, इसमें क्रांतिकारी सम्भावनाएं है। वैकल्पिक कृषि में श्रम की उपादेयता बढ़ जाती है, इसलिए यह रोजगार सृजन और बेरोजगारी का भी कुछ हद तक निवार्ण करने में सहायक है। कृषि क्षेत्र में ज्ञान के नियमित प्रयोग और स्थानीय संसाधनों के बढ़ते प्रभाव के कारण कृषि में विकेंद्रीकृत विकास की अपार संभावनाएं नजर आती है। इन सबके बावजूद एक अहम सवाल खड़ा होता है कि क्या वैकल्पिक कृषि खाद्यान्न संकट से निजात दिला सकती है ? दुनियांभर में जैविक कृषि पर हुए अध्ययनों से स्पष्ट है कि यह लघु और सिमान्त किसानों के लिये उपयोगी है क्योंकि एक तो इसमें उत्पादन में वृद्धि दर्ज की गई है और दूसरा कारण है कि छोटी जोतों पर नए नए प्रयोग आसानी से किये जा सकते है। लेकिन वैकल्पिक कृषि अपनाने वालों के प्रषिक्षण पर भी इसकी उत्पादकता और गुणवता निर्भर करती है और भारत में दूसरी हरित क्रांति के लिये जरूरी है कि उचित प्रषिक्षण, तकनीकी और उन्नत किस्म के बीज व रासायनिक उर्वरक उपलब्ध कराये जायें। जहां तक किमतों का सवाल है तो यूरोप के देषों का अनुभव बताता है कि सामान्य बाजार भावों में भी वैकल्पिक कृषि मुनाफा कमा सकती है क्योंकि इसकी प्रति हैक्टेयर उत्पादन लागत कम होती है और उत्पादन की मात्रा भी तुलनात्मक रूप से ज्यादा होती है।
अब अगर वैकल्पिक कृषि के नकारात्मक पहलूओं की चर्चा करें तो इससे स्थानीय बीजों, पशुधन एवं परम्परागत ज्ञान नष्ट होता है और इसी कारण विष्व बाजार में विकासषील देषों के उत्पाद विकसित देषों की तुलना में पिछड़ जाते है। वैकल्पिक कृषि में प्रयोग में ली जाने वाली प्रक्रियाएं स्थान और फसल विषेष के लिये होती हैं उन्हें हर जगह ज्यूं का त्यूं इस्तेमाल में नहीं लाया जा सकता है और भारतीय संदर्भ में देखा जाये तो इतनी ज्यादा भौगोलिक और प्राकृतिक विभिन्नताएं है कि वैकल्पिक कृषि पद्धति पर ही प्रष्नचिंह खड़ा हो जाता है। भारत में छोटे छोटे किसानों के पास इतना पैसा नहीं होता है कि वो उन्नत तकनीक और रासायनिक बीजों का प्रयोग कर सकें और न ही उन्हें वक्त व जरूरत के अनुसार बैकों से ऋण मिल पाता है। 2007 की राष्ट्रीय किसान नीति में भी जैविक कृषि को कुछ चुनिंदा क्षेत्रों के लिये ही उपर्युक्त माना है क्योंकि अभी तक भारत में इस संदर्भ में शोध व प्रयोग ही बहुत कम हुआ है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार हमारी भूमि का दो तिहाई हिस्सा लगभग विकृत हो चुका है और लगातार कृषि योग्य भूमि में कमी आ रही है क्योंकि परम्परागत कृषि पद्धतियों से इतनी बड़ी जनसंख्या के लिये खाद्य सामग्री उपलब्ध कराना मुष्किल है। ऐसी स्थिति में अगर वैकल्पिक कृषि को नहीं अपनाया गया तो आने वाले समय में भूख भारत की सबसे बढ़ी समस्या होगी। कुछ लोगों का तर्क होता है कि वैकल्पिक कृषि कितनी भी अच्छी हो लेकिन मषीनीकरण और आधुनिककरण के कारण कृषि में श्रमशक्ति घट जायेगी और बेरोजगार बढ़ जायेगी परन्तु उत्पादन और तकनीक के विकास के साथ गांवों में नये नये रोजगारों का सृजन होगा जिससे बेरोजगारी भी कम होगी और गांव से शहर की तरफ होने वाले पलायन में भी गिरावट आयेगी। क्योंकि जब गांव में ही रोजगार मिल जायेगा तो मजबूरी में होने वाले पलायन पर तो रोक लग ही जायेगी।
भारत में वैकल्पिक कृषि के विकास के लिये जरूरी है कि सराकर उचित संसाधन और तकनीक उपलब्ध कराये, साथ ही साथ भौगोलिक विभिन्नताओं को देखते हुए अलग अलग क्षेत्र के लिये विषेष शोध कराकर उसे किसानों तक पहुंचाये ताकि समय पर उससे किसान लाभांवित हो सके। दूसरी हरित क्रांति का रास्ता वैकल्पिक कृषि से होकर ही जायेगा, इसके लिये सरकार और किसान दोनों को तैयार रहना चाहिए क्योंकि शरूआती दौर में बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। मूलतः समाज और सरकार को वैकल्पिक कृषि को नजर अंदाज नहीं करना चाहिए क्योंकि आने वाले समय में भारत और दुनियों को खाद्यान्न संकट से यही उभार सकती है। जरूरा नहीं है कि सभी फसलों में वैकल्पिक कृषि को अपनाया जाये क्योंकि जिन फसलों में परम्परागत ज्ञान से कम खर्चे पर अच्छी उपज प्राप्त हो रही है उन्हें उसी प्रकार से चलने दिया जाये। इस प्रकार एक स्तर पर परम्परागत कृषि और वैकल्पिक कृषि में सामंजस्य भी जरूरी है। चाहे किसानों की आत्महत्यों का सवाल हो या कृषि क्षेत्र में बढ़ती अन्य समस्याएं, वैकल्पिक कृषि इन सब का एक हल प्रस्तुत करती है। देष में कुछ जगहों पर इसके प्रयोग चल रहे है जो बहुत हद तक सफल भी है मगर अब इसे बड़े फलक पर उतारकर दूसरी हरित क्रांति का शंखनाद करना समय की मांग है।
वैकल्पिक कृषि को अपनाने के लिये किसानों और सरकार को एक दूसरे का सहयोगी होना पड़ेगा।
अब अगर वैकल्पिक कृषि के नकारात्मक पहलूओं की चर्चा करें तो इससे स्थानीय बीजों, पशुधन एवं परम्परागत ज्ञान नष्ट होता है और इसी कारण विष्व बाजार में विकासषील देषों के उत्पाद विकसित देषों की तुलना में पिछड़ जाते है। वैकल्पिक कृषि में प्रयोग में ली जाने वाली प्रक्रियाएं स्थान और फसल विषेष के लिये होती हैं उन्हें हर जगह ज्यूं का त्यूं इस्तेमाल में नहीं लाया जा सकता है और भारतीय संदर्भ में देखा जाये तो इतनी ज्यादा भौगोलिक और प्राकृतिक विभिन्नताएं है कि वैकल्पिक कृषि पद्धति पर ही प्रष्नचिंह खड़ा हो जाता है। भारत में छोटे छोटे किसानों के पास इतना पैसा नहीं होता है कि वो उन्नत तकनीक और रासायनिक बीजों का प्रयोग कर सकें और न ही उन्हें वक्त व जरूरत के अनुसार बैकों से ऋण मिल पाता है। 2007 की राष्ट्रीय किसान नीति में भी जैविक कृषि को कुछ चुनिंदा क्षेत्रों के लिये ही उपर्युक्त माना है क्योंकि अभी तक भारत में इस संदर्भ में शोध व प्रयोग ही बहुत कम हुआ है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार हमारी भूमि का दो तिहाई हिस्सा लगभग विकृत हो चुका है और लगातार कृषि योग्य भूमि में कमी आ रही है क्योंकि परम्परागत कृषि पद्धतियों से इतनी बड़ी जनसंख्या के लिये खाद्य सामग्री उपलब्ध कराना मुष्किल है। ऐसी स्थिति में अगर वैकल्पिक कृषि को नहीं अपनाया गया तो आने वाले समय में भूख भारत की सबसे बढ़ी समस्या होगी। कुछ लोगों का तर्क होता है कि वैकल्पिक कृषि कितनी भी अच्छी हो लेकिन मषीनीकरण और आधुनिककरण के कारण कृषि में श्रमशक्ति घट जायेगी और बेरोजगार बढ़ जायेगी परन्तु उत्पादन और तकनीक के विकास के साथ गांवों में नये नये रोजगारों का सृजन होगा जिससे बेरोजगारी भी कम होगी और गांव से शहर की तरफ होने वाले पलायन में भी गिरावट आयेगी। क्योंकि जब गांव में ही रोजगार मिल जायेगा तो मजबूरी में होने वाले पलायन पर तो रोक लग ही जायेगी।
भारत में वैकल्पिक कृषि के विकास के लिये जरूरी है कि सराकर उचित संसाधन और तकनीक उपलब्ध कराये, साथ ही साथ भौगोलिक विभिन्नताओं को देखते हुए अलग अलग क्षेत्र के लिये विषेष शोध कराकर उसे किसानों तक पहुंचाये ताकि समय पर उससे किसान लाभांवित हो सके। दूसरी हरित क्रांति का रास्ता वैकल्पिक कृषि से होकर ही जायेगा, इसके लिये सरकार और किसान दोनों को तैयार रहना चाहिए क्योंकि शरूआती दौर में बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। मूलतः समाज और सरकार को वैकल्पिक कृषि को नजर अंदाज नहीं करना चाहिए क्योंकि आने वाले समय में भारत और दुनियों को खाद्यान्न संकट से यही उभार सकती है। जरूरा नहीं है कि सभी फसलों में वैकल्पिक कृषि को अपनाया जाये क्योंकि जिन फसलों में परम्परागत ज्ञान से कम खर्चे पर अच्छी उपज प्राप्त हो रही है उन्हें उसी प्रकार से चलने दिया जाये। इस प्रकार एक स्तर पर परम्परागत कृषि और वैकल्पिक कृषि में सामंजस्य भी जरूरी है। चाहे किसानों की आत्महत्यों का सवाल हो या कृषि क्षेत्र में बढ़ती अन्य समस्याएं, वैकल्पिक कृषि इन सब का एक हल प्रस्तुत करती है। देष में कुछ जगहों पर इसके प्रयोग चल रहे है जो बहुत हद तक सफल भी है मगर अब इसे बड़े फलक पर उतारकर दूसरी हरित क्रांति का शंखनाद करना समय की मांग है।
वैकल्पिक कृषि को अपनाने के लिये किसानों और सरकार को एक दूसरे का सहयोगी होना पड़ेगा।
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सोमवार, 19 जुलाई 2010
शहर के हकदार

राष्ट्रमंडल खेलों के पीछे एक तर्क यह भी है कि सरकार इन खेलों की आड़ में बहुत से मुद्दो को भुनाना चाहती है, जैसे- पुनर्वास व पलायन जैसी समस्याओं को। इसी कड़ी में दिल्ली को झुग्गी - झोपड़ी मुक्त बनाने के नाम पर गरीब झुग्गीवासीयों को गुमराह करने की कोषिष की जा रही है। लोगों को उजाड़ने वाले इस तंत्र ने अपना काम शुरू कर दिया है, दिल्ली सरकार ने राजीव रत्न आवास योजना के अंतर्गत 7900 फ्लैटों के आवंटन की घोषणा की है जिसके तहत 44 झुग्गी कालोनियों को फ्लैट आवंटन का कार्य शुरू हो गया है। अब सवाल उठता है कि क्या वास्तव में सरकार झुग्गी कालोनियों की समस्या को दूर करना चाहती है?
अगर इन 44 झुग्गी कालोनियों को जनसंख्या व परिवारों की गणना के आधर पर फ्लैट आवंटन किया जाये तो दो झुग्गी कालोनियों को भी यह फ्लैट कम पड़ेंगे, पुनर्वास नीति के तहत यह प्रावधान है कि 18 साल के व्यस्क को भी सरकार अलग से फ्लैट मुहैया कराये, जैसा राजगीर व खांडवा में हुआ था। मगर सरकार ऐसा नहीं करती क्योंकि दरअसल सरकारे ये चाहती नहीं कि मजदूरों की स्थिति में कोई सुधार हो। हर शहर के विस्तार का एक चरित्र व एक रफ्तार होती है। जो जगह रहने लायक नहीं होती, वहां पर मजदूरों को बसाया जाता है और जब मजदूर अपने खून पसीने से उस जगह को रहने लायक व साफ सुथरा बना लेते है तब किसी तथाकथित बहाने के नाम पर सरकारें वहां से मजदूरों को बेदखल कर देती है। अगर दिल्ली के विस्तार की कहानी को भी गहराई से देखा जाये तो यही बात सामने आती है कि कभी एषियार्ड व कभी किसी अन्य प्रोजेक्ट के नाम पर मजदूरों की जमीन को लगातार हथियाया जा रहा है। जहां पर इन झुग्गी कालोनियों को बसाया जाता है, वहां की स्थिति को देखने से साफ जाहिर है कि यहां पर न तो कोई मूलभूत सुविधाएं है और न ही कोई मानवाधिकार। सरकार चाहती भी नहीं कि इन झुग्गी कालोनियों की स्थिति को सुधारा जाये, इनमें से बहुत सी झुग्गी कालोनियां ऐसी भी है चुनावों से पहले तो वैध हो जाती है और चुनाव के बाद वापस अवैध हो जाती है। वोट लेने के वक्त बहुत से लुभावन वादे किये जाते है मगर चुनाव होते ही सब इनसे आंख भौहें सिकोड़ने लग जाते है। सबसे आष्चर्यजनक बात है कि हर साल एक बड़ी तादात में मजदूर रोजगार की तलाष मे दिल्ली आते है लेकिन सरकार के पास दिल्ली की आवासीय स्थिति को लेकर कोई ठोस रणनीति नहीं है। न तो सरकारे गांव से शहर की ओर हो रहे इस अंधाधुंध पलायन के कारणों का निवार्ण कर रही है और न ही शहर में इन मजदूरों की बेहतर जींदगी का कोई प्रयास।
जब तक गांव में रोजगार के साधनों का निर्माण नहीं किया जाता है तब तक पलायन को रोकना मुष्किल है क्योकि देष के एक बहुत बड़े इलाके में लगाातार बाढ़ व सूखे का प्रकोप रहता और सरकार की उदासीनता के कारण इन प्रकोपों से प्रभावित लोगों को कोई राहत नहीं मिल पाती है। हालांकि कागजों में तो बहुत सी योजनाएं व पैकेज उपलब्ध कराये जाते है मगर जमीनी हकिकत पर कुछ नहीं मिलता है। ऐसी स्थिति में गांव से शहर की और पलायन के अलावा कोई दूसरा रास्ता ही नहीं बचता है। मसला यह भी है कि एक तरफ सता यह भी चाहती है कि ज्यादा से ज्यादा मजदूर गांव से शहर आये क्योंकि तभी तो उन्हें सस्ते मजदूर मिल पायेंगे, जिससे शहर को सजाया जा सके और कामनवेल्थ जैसे रौनकी कार्यक्रम किये जा सके और दूसरी तरफ यह भी चाहती है कि ये शहर में दिखाई देकर उनकी झूठी शान में खलल भी न डालें। असली शहर इन मजदूरों से ही चलता है और ये ही इसके हकदार है। महलों से लेकर सड़को तक सब कुछ बनाने के पीछे जो हाथ होते है उन्हे हेय दृष्टी से देखा जाता है।
इस देष में क्रिकेट और कामनवेल्थ की झूठी शान पर तो खर्च करने के लिये सरकारों के पास करोड़ों का बजट आ जाता है और इन झुग्गी कालोनियों वालों के जीवनस्तर को सुधारने व सामाजिक सुरक्षा के नाम पर सरकारी ख्जाना हाथ खड़े कर देता है। गांव शहर की तरफ आने का मतलब होना चाहिए कि एक बेहतर जींदगी की ओर प्रस्तान मगर आज इसके उलटा हो रहा है, शहर की तरफ मजबूरी आना पड़ता है क्योंकि आजादी से लेकर आज तक लगातार ऐसी ही परिस्थितियां बनाई जा रही है की चंद लोगों की खुषी के लिये गांवों को तबाह करके शहर के आसपास मजदूरों को बेहाल छोड़ दिया जाये, जो दिल्ली से लेकर भारत के सभी बड़े और मध्यम शहरों की स्थिती है।
दिल्ली को झुग्गी - झोपड़ी मुक्त बनाने के लिये फ्लैट देना इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। जब तक गांवों में पर्याप्त रोजगार के अवसर नहीं बढाये गये और शहरों में मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा व मूलभूत सुविधाएं नहीं दी जाती तब तक समस्या ऐसे ही बनी रहेगी।
रविवार, 18 जुलाई 2010
कामनवेल्थ: कौन कामन, किसका वेल्थ?
जैसे-जैसे अक्टूबर का महीना नजदीक आता जा रहा है वैसे ही सरकार की बैचनी बढ़ती जा रही है। दिल्ली को ‘वल्ड़ क्लास’ शहर दिखाने के लिए सौन्दर्यकरण के नाम पर करोड़ों रूपये पानी की तरह बहाये जा रहा है। जब देष में विष्व के 40 प्रतिषत भूखे लोग रहते है, 46 प्रतिषत बच्चे और 55 प्रतिषत महिलाएं कुपोषण के षिकार है। ऐसी स्थिति में सरकार हजारों करोड़ रूपये 12 दिन के खेल आयोजन पर खर्च कर रही है जिसका फायदा कम नुकसान ज्यादा नजर आ रहा है। इस खेल की आड़ में दिल्ली सरकार बहुत से मुददे भुनाना चाहती है, जंैसे- दिल्ली में हजारों बेेघरों के लिए सामाजिक सुरक्षा का कोंई इंतजाम नहीं है, रोजगार के अभाव में गांव से पलायन करके षहर आये हुए असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के जीवन की मूलभूत सुविधाओं और झुग्गी बस्तीयों में रहने वाले लाखों लोगांे के बेहतर जीवन के लिए तो सरकारी खजाना खाली हो जाता है मगर 12 दिन के खेल के लिए 30,000 करोड़ रूपये खर्च किये जा रहे है। अगर इतिहास को देखे तो एषियार्ड खेलों के लिए सरकार ने देष भर से जो मजदूर बुलाए थे उनकी मेहनत से खेलों का आयोजन तो सफल हो गया मगर उनके रोजगार व सामाजिक विकास की स्थिति बदतर हो गई है। क्योंकि सरकार का मानना है कि शहर के सौदन्र्यकरण के नाम पर मजदूर ऊंची ऊंची बिल्डिंग ंतो खड़ी करें मगर वो इसकी सुन्दरता मे खलल न बनें। सरकार को एक तरफ सस्ते मजदूर भी चाहिये और दूसरी तरफ उनके प्रति कोई सामाजिक व नैतिक जिम्मेदारी लेने के लिये भी तैयार नहीं है और इसी दोहरी नीति के चलते शहर को सुन्दर बनाने और सजाने वाला मजदूर शहर से अलग कच्ची काॅलोनीयांे और झुग्गी बस्तीयांे में रहने को मजबूर है, जहां पर स्वस्थ पानी, बिजली, स्वास्थ्य और षिक्षा जैसी मूलभूत जरूरतों का अभाव पाया जाता है। काॅमन वेल्थ की झुठी शान में सड़कों को चैड़ा करने के बहाने रेहड़ी-पटरी रिक्षा-ठेला और सड़कों के किनारे रोजी रोटी चलाने वाले लोगों को हटा रही है ओर उनके लिये कोई अन्य व्यवस्था भी नहीं की जा रही है। खेल के इसी लपेटे में राजीव रत्न आवास योजना के तहत 44 झुग्गी बस्तीयों को हटाने का भी फरमान है लेकिन मजेदार बात यह है कि इन 44 बस्तीयों को 7900 फ्लेटों में षिफ्ट किया जायेगा। इस फ्लैट आवंटन के नाम पर लाखों लोगों को उजाड़ा जायेगा।
काॅमन वेल्थ खेल का खर्चा 10000 से बढ़कर 30000 करोड़ तो हो गया है लेकिन यह कहना मुष्किल है कि इस पैसे काम चल जायेगा। अब सवाल उठता है कि कौन काॅमन है और किसका वेल्थ है जिसके लिये पूरे दिल्ली शहर को दुल्हन की तरह सजाया जा रहा है। चंद लांगों के इस खेल के आयोजन में, जो अंग्रेजों की गुलामी की याद को ताजा करता हो उसका सबसे ज्यादा सामाजिक आर्थिक प्रभाव दिल्ली के गरीब औरतों, बच्चों, बेघरों, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों और रिक्षा-ठेला वालों पर पडे़गा। सड़कों को साफ व सुंदर करने के लिये सड़क के किनारे से सभी ठेले और छोटी दुकानों को हटाया जायेगा क्योंकि विदेषीयों को भारत की असली तस्वीर दिखाने की बजाय एक बनी बनाई छवि दिखाई जाये ताकि उन लोगों को लगे कि भारत ने अभूतपर्व प्रगति की है।
काॅमन वेल्थ के लिये दिल्ली में सैंकड़ों करोड़ रूपये लगाकर ‘खेल गांव’ का निर्माण किया जा रहा है, वहां से गरीब लोगों की बस्तीयों को उजाड़ दिया है मगर खेल के बाद यह फ्लैट अमीरों का अड्डा बनने वाले है। झारखण्ड व छतीसगढ़ जैसे प्रदेष जहां पर खेलों के लिये पर्याप्त सुविधाओं की जरूरत है वहां पर प्राथमिक सुविधाएं भी नहीं है। अभी जो स्टेडियम बन रहे हैं क्या सरकार उनका रखरखाव ठीक तरिके से कर पायेगी? चीन में ओलंपिक के आयोजन के लिये जो स्टेडियम बनाये थे उनका रखरखाव करना आर्थिक रूप से भारी बड़ रहा है जबकि चीन की खेल संस्कृति विकास का एक स्तर प्राप्त कर चुकी है। अगर इन खेल स्टेडियमों का उचित संरक्षण व उपयोग नहीं कर पाये तो करोड़ों रूपये के निवेष का कोई सार्थक उपयोग नहीं हो पायेगा और यह सीख हमें 1982 के एषियार्ड खेलों से ले लेनी चाहिये जिसमें लगाई गई मानवीय श्रम व पंूजी की ठीक से उपयोग होता तो आज काॅमन वेल्थ का बजट 30000 करोड़ तक नहीं पहुंचता।
ऐसे आयोजनों से न तो खेल का भला होने वाला और न ही आम नागरीको का बल्कि दिल्ली में रहने वाला हर आम आदमी इन 12 दिनों के खेलीय महोत्सव से प्रभावित होगा। दिल्ली विष्वविधालय और जामिया के छात्रों को अभी से छात्रावास खाली करने पड़ रहे है और इनका जो खर्चा कामन वेल्थ के नाम पर होगा उनकी कही भी कोई गिनती नहीं हो रही है। दिल्ली का हर आम नागरिक कामन जरूर है मगर वेल्थ में उसका कोई हिस्सा नहीं है।
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