राजस्थान के गुण गाने वालों के कंठों में खरखराहट भी नही होती क्योंकि उन्हें सिर्फ़ राजा महाराजो का राजस्थान दिखाई देता है। उन्हें वो राज्य नहीं दिखता जो खुले आसमान के निचे रहता है और बच्चपन जानवरों की गंदगी में बिताता है , ना उन्हें माँ का प्यार मिलता है क्योंकि माँ का प्यार तो ठाकुर के खेतों में काम करते करते सूख गया है और ना हि बाप की सीख।
ज़िन्दगी चाहे गदागर हि बना दे ।
ऐ माँ तू मेरा नाम सिकंदर रख दे ॥
Ads for Indians
शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2008
शनिवार, 13 सितंबर 2008
जवानी की दहलीज
चूर चूर हो गए
मिटटी के घर
मिटटी के खिलौने
मगर इस मिटटी का
अलग ही वजूद
छू कर देखो
खून की गर्माहट
आंसू सी शीतलता
बच्चो के पसीने की
प्यारी सी खुसबू
महक रही थी
मै छटपटा उठा
इस जवानी के
दलदल से निकलने के लिय
मिटटी के घर
मिटटी के खिलौने
मगर इस मिटटी का
अलग ही वजूद
छू कर देखो
खून की गर्माहट
आंसू सी शीतलता
बच्चो के पसीने की
प्यारी सी खुसबू
महक रही थी
मै छटपटा उठा
इस जवानी के
दलदल से निकलने के लिय
बुधवार, 27 अगस्त 2008
शब्दों का जाल
शब्द
या शब्दों का जाल
एक ही तो है
शरारत
खामोशी को तोड़ने की
कभी हंसा देते है
कभी रुला देते
और क्या बताऊ
कभी तो सिंहासन
हिल्ला देते है
बस जरूरत है
लय में पिरोने की
या शब्दों का जाल
एक ही तो है
शरारत
खामोशी को तोड़ने की
कभी हंसा देते है
कभी रुला देते
और क्या बताऊ
कभी तो सिंहासन
हिल्ला देते है
बस जरूरत है
लय में पिरोने की
प्रतिबिम्ब
कितने गुजर गए
इस राह से
दादा बाप बेटा
यह निर्जीव
देखता रहा
उनके पैरो को
पैरो के निशानों को
उड़ती धुल को
सब एक जैसे ही
आते और निकल जाते
एक दिन
उसने सर उठाकर
चेहरे की तरफ देखा
चौंक गया
अपना ही प्रतिबिम्ब देखकर
इस राह से
दादा बाप बेटा
यह निर्जीव
देखता रहा
उनके पैरो को
पैरो के निशानों को
उड़ती धुल को
सब एक जैसे ही
आते और निकल जाते
एक दिन
उसने सर उठाकर
चेहरे की तरफ देखा
चौंक गया
अपना ही प्रतिबिम्ब देखकर
एक नकाब
एक नकाब
दो चहरे
गली से महल
चौराहे से अदालत
हर जगह वहम
असली या नकली
तभी एक चेहरा
झुरिया भूख की
नाचती आंखे
डरावना
सूखे पैरो से चलता
लड़खडाता, संभलता
अचानक सामने आ गया
दो चहरे
गली से महल
चौराहे से अदालत
हर जगह वहम
असली या नकली
तभी एक चेहरा
झुरिया भूख की
नाचती आंखे
डरावना
सूखे पैरो से चलता
लड़खडाता, संभलता
अचानक सामने आ गया
शाम - सुबह
शाम - सुबह
महीने - वर्षों
हांकता रहा
बस हांकता रहा
लाठी के सहारे
सदाचार के नाम
वे खामोश
चलते रहे
बस चलते रहे
रसोई, झाडू -बिस्तर
इतना ही सफर
मगर आज तोड़कर
सदाचार का चश्मा
भय का पिंजरा
उड़ रहे है
बस उड़ रहे है
नई सुबह की ओर
महीने - वर्षों
हांकता रहा
बस हांकता रहा
लाठी के सहारे
सदाचार के नाम
वे खामोश
चलते रहे
बस चलते रहे
रसोई, झाडू -बिस्तर
इतना ही सफर
मगर आज तोड़कर
सदाचार का चश्मा
भय का पिंजरा
उड़ रहे है
बस उड़ रहे है
नई सुबह की ओर
सोमवार, 25 अगस्त 2008
धारा जो बहती
बहने दो
अपने रस्ते पर
ढलान की तरफ़
रोकने की कोशिश
तूफान ला सकती है
शांत मंद शीतल
बहने दो
जरुरत हुई तो
रास्ता बदल लेगी
अपने रस्ते पर
ढलान की तरफ़
रोकने की कोशिश
तूफान ला सकती है
शांत मंद शीतल
बहने दो
जरुरत हुई तो
रास्ता बदल लेगी
सदस्यता लें
संदेश (Atom)