Ads for Indians

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

शोषण कि मंडी

सूत्रों से पता चला है कि कुछ मीडिया संस्थानों में मोहल्ला, जनतंत्र और भड़ास ४ मीडिया जैसी सामाजिक एवं पत्रकारिता से जुडी साइटों को खोलने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है. अब सवाल उठता है कि इन साइटों पर ऐसा क्या है जिसके कारण मीडिया संस्थानों को दिक्कत होती है. असल में मीडिया संस्थानों द्वारा लीक से हटकर काम करने वाले तमाम लोगों से दिक्कत होती है. मोहल्ला,जनतंत्र और भड़ास ४ मीडिया पढने वाले तो उसे कहीं और भी पढ़ सकते हैं मगर इससे भारतीय मीडिया का चरित्र साफ़ हो जाता है. इसी तरह से और भी परिवर्तन मीडिया संस्थानों में हो रहे हैं, जिसे सुन कर आप भौचक्के रह जायेंगे. अगर आप किसी मीडिया संसथान में नौकरी कर रहे हैं तो वहां पर कोई भी सोशल नेटवर्किंग साईट नहीं खोल सकते क्योंकि इससे आप समाज से जुड़ जाते हैं.और पारंपरिक मीडिया पत्रकारों को समाज से जुड़ने कि बजाये समाज से दूर करने कि मान्यता पर आधारित है, मतलब ये कि संस्थानों में काम करने के दौरान आप समाज से किसी तरह से जुड़ने का प्रयास न करें और पत्रकार बंधू किसी तरह से भी संचारक्रांति के करीब न आयें. इसमें सबसे मज़ेदार बात ये है कि इस पूरी मुहीम में वो लोग भी शामिल हैं जो पत्रकारों के हितों में लम्बी लम्बी बात करते हैं. ऐसी स्थिति में सुध लेने वालों कि सुध कौन लेगा, दुनियाभर के मानवधिकारों कि बात करने वाला पत्रकार समुदाय आज अपने ही मानवाधिकारों के हनन के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा पाते हैं. मीडिया संस्थान एक पत्रकार को इंसान की बजाय मशीन मानते हैं, कुछ संस्थानों में पत्रकारों का आर्थिक और शारीरिक शोषण लगातार जारी है. महीनो तक तनख्वाह नहीं मिलती और अगर आप आवाज़ उठायें तो नौकरी छोड़ने के लिए तैयार हो जाएँ.चौकाने वाला तथ्य यह है कि छोटे और बड़े मीडिया संस्थानों में पंद्रह सौ रुपये के मासिक पर पत्रकारों से दस से बारह घंटे काम कराया जाता है.
अब सचेत हो जाइये, कल ऑफिस में भी नोटिस लग सकता है -
नोटिस
(आज से कार्यालय में निम्नाकित नियम लागू है)
1 . मोहल्ला, जनतंत्र और भड़ास ४ मीडिया जैसी साइट खोलना प्रतिबंधित है.
2 . फेसबुक, जीमेल और ऑरकुट खोलना मना है.
3 . मोबाईल ऑन रखना प्रतिबंधित है.
4 . ऑफिस समय में पेशाब करना मना है.
5 . ऑफिस में हंसना मना है ( आप यहाँ रो भी नहीं सकते)
6 . ऑफिस के काम के अलावा एक दूसरे से बात करना प्रतिबंधित है.
7 . ऑफिस में खांसना मना है (भले ही आपको जुखाम हो)
8 . ऑफिस में दाढ़ी रखना भी मना है.
(उपरोक्त नियमों का उलंघन करनेवालों के खिलाफ कड़ा कदम उठाया जायेगा.)
आज्ञा से
(शोषण मीडिया केंद्र)

सनोबर विला में एक अजनबी

समकालीन भारतीय साहित्य के 151 नंबर के अंक में प्रकाशित
इस कहानी संग्रह में ओम गोस्वामी की पांच कहानियां है जो विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में बहुत पहले प्रकाषित हो चुकी है। ‘इस बीच’ नामक कहानी पर तो धारावाहिक भी बन चुका है। कथाकार ने जीवन के खट्टे मिट्ठे अनुभवों को जिस प्रकार से शब्दों के ताने बाने में बुना है वो साहित्य और समाज के लिये एक शुभ संकेत है। इस संग्रह की हर कहानी अलग- अलग विषय वस्तु लिये हुये है।
पहली कहानी ‘सनोबर विला में एक अजनबी’ में ‘गुरटू’ नामक नौकर का चरित्र उस भारतीय समाज का नेतृत्व कर रहा है जो गरीब रहते हुए भी अपने सिद्धान्त से समझौता नहीं करता है। ‘गुरटू’ के पूरे परिवार को आतंकवादियों ने मार डाला था, वह किसी तरह बच निकला था। गुरटू एक विख्यात विद्वान तो था ही साथ ही खाना बनाने का लाजवाब हूनर भी रखता था। इसी हुनर से वह अपनी प्रतिभा को दबा कर भी सेठ कुंजनलाल के धर पर नौकरी कर जीवन गुजार रहा था। गुरटू एक ऐसा चरित्र है जिसमें जीवन के प्रति अदम्य जीजिविषा कूट - कूट कर भरी हई है। वो अपनी कला व मेहनत से इज्जत की जीन्दगी जीना चाहता है।
दूसरी तरफ सेठ कुंजनलाल, लखीराम व करोड़ीमल उस सामाजिक मानसिकता को प्रदर्षित करते है जो अपने तुच्छ स्वार्थों के लिये इंसानियत की भी बली देकर आदमी की खरीद फरोख्त करती है। इन्हें पैसों का इतना धमण्ड होता है कि हर चीज को पैसे के तराजु में तोलतें है, जहां पर इंसानियत व मानवीय भावनाओं के लिये कोई स्थान नहीं होता है। कहानी का भावप्रवाह शब्दों के माध्यम से कसावट लिये हुए है। सरदार जी का पूरा व्यक्तित्व इस तरह का है कि वह प्रतिभा को आदर व सम्मान देना जानता है। बुढ़े बुजुर्ग की इज्जत करने का संस्कार होने के कारण ही वह गुरटू को ससम्मान अपने साथ ले जाता है। पूरी कहानी में सामाजिक द्वंद को दर्षाया है जिसमें मानवीय व्यवहार के अच्छे और बूरे दोनों पहलूओं की जानकारी मिलती है।
दूसरी कहानी ‘जीवन युद्ध’ एक ऐसे व्यक्तित्व मास्टर राँझूराम के जीवन की कहानी है जिसकी जिंदगी में रिष्तों कोई अहमीयत नहीं है। सिर्फ पैसे के बल पर समाज में खुद को श्रेष्ठ दिखानें की चाह रखता है। बाप और बेटे के रिष्ते के प्रेम की डोरी में बांधे रखने में उसका विष्वास नहीं है। इसी कारण राँझूराम के जीवन युद्ध में प्रतिपक्ष कोई दूसरा न होकर उसका बेटा ही हुआ।पांच बेटों का पिता होते हुए भी रिष्तों की अहमियत नहीं समझ पाया और शायद यही कारण हुआ कि अंत में उसके बेटे भी बाप को दौलत की मषीन मानने लगे। रँझूराम की पत्नि शालिन और भोलीभाली औरत जो सबकुछ जानते हुए भी मूकदर्षक बनी रहती है।यह पूरी कहानी वर्तमान परिपेक्ष्य की साक्षी है कि दौलत की इस अंधाधुध दौड़ में रिष्ते पिछे छूट जातें हैं। जब तक आदमी को इस बात का अहसास होता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
इस संग्रह की हर कहानी किसी न किसी सामाजिक बुराई पर चोट मार्मिक पहुंचा रहीं हैं। ‘दर्द की दहलीज’ काहनर की नायिका नौजी एक पतिवर्ता, षीलवति और भारतीय नारी का संकेत देती है, जो हर कष्ट सहते हुए भी अपनी अस्मिता को बचाना चाहती है। एक विधवा औरत को समाज में जिन नाना प्रकार के दुः खों का सामना करना पड़ता है, उसका दर्द भरा चित्रण साहित्य सीमाओं में रहते हुए इस कहानी में किया गया है।
पंडित अमिचंद नषे का हद से ज्यादा षिकार होने के कारण नैतिकता अनैतिकता के पैमाने भूल चुका था। चैधरी जैसे लोग पुरुष प्रधान समाज के वो अनैतिक तत्व है जो स्त्रि को केवल भोग की वस्तु समझते हैं। इस कहानी का जिस प्रकार से अंत होता है, वह कि एक औरत का दुःख केवल औरत ही समझ सकती है क्यांकि वो ही पुरुषप्रधान समाज के काँटों को भोगती है। यह कहानी दुनियंा के उन तमाम समाजों का दर्पण है, जहां पर लिंग के आधार शोषण होता है। चाहे वो पत्नि के रुप में हो या फिर स्त्रि होने के नाते शारीरिक और मानसिक यातना हो।

शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

भिती चित्रों की रंगभूमी


आजकल में प्रकाशित

राजस्थान के जयपुर में अरावली पर्वत माला की श्रंखला गुजरती है उसके उत्तर के तीन जिलों के क्षेत्र को षेखावाटी कहा जाता है। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर षेखावाटी नामक जगह का नामकरण राव षेखा जी के नाम पर हुआ। राव षेखा जी ने षेखावाटी को सन 15 वीं सदी में बसाया था। मेथोलोजी के हिसाब से पंाडवों ने यहां पर वनवास का समय बिताया था और जिस जगह उनकी लोहे की जंजीरें गल गई थी। उस स्थान को ‘लोहार्गल’ कहते है, मगर इतिहास में इनका प्रामाणिक सबूत नहीं मिलता है। वर्तमान समय में जो षेखावाटी का क्षेत्र है उसमें सीकर, चुरु व झुंझुनु नामक तीन जिले षामिल है। इस क्षेत्र की भाषा, रहन सहन व संस्कृति में बाकि राजस्थान से कुछ भिन्न है। यहां की बोली को भी षेखावाटी के नाम से जाना जाता है। यह क्षेत्र अपनी कला व संस्कृति के लिए हमेषा अलग पहचान रखता है। 17 वीं षताब्दी में यहां के सेठ साहूकार लोग व्यापार करने के लिए देष के विभिन्न हिस्सों जैसे-कलकत्ता, मुम्बई, व सूरत के अलावा विदेषों में जाकर बस गये। इन्होंने यहां पर बड़ी और सुन्दर हवेलियां बनाई। अगर इन हवेलियों के पीछे के परिदृष्य को देखें कि आखिर इनका निमार्ण क्यों किया गया और वो संसाधन कहां से आये? तब तीन प्रमुख तत्व सामने आते है- एक ब्याज का तांडव, जिसमें 200 से 400 प्रतिषत की दर पर ब्याज लिया जाता था और अनपढ़ किसान व मजदूरों को बूरी तरह लूटा जाता था, उस महाजनी संस्कृति के बीज अभी भी मौजूद है, भाई से लेकर दोस्त तक कोई भी षेखावाटी के इलाके में बिना ब्याज के पांच दिन के लिये भी पैसा उधार नहीं देता और सबसे आष्चर्यजनक बात है कि अभी भी महाजनी समाज में ब्याज दर 24 प्रतिषत है। इस प्रकार एक पूरे ब्याजीय युग के दौरान लूटी गई अपार धन संपदा को इन हवेलियों के निर्माण में दफना दिया गया। दूसरा तत्व है कि विभाजन के समय में दोनों तरफ से ओने जाने वाले शरणार्थियों की सम्पति को लूटा गया और इस लूट में चोरों की एक नई महाजनीय पीढ़ी का जन्म हुआ, वो भी आगे चलकर हवेलियों निमार्ण में आगे आये। तीसरा तत्व है कि आजादी के बाद राजस्थान में भूमी का नाम मात्र का वितरण हुआ है और अभी भी जमीन के बड़े बडे़ जमींदार है जो इन बनीयों से मिलकर किसानों और खेतीहर मजदूरों का शोषण किया और धर्म के नाम पर पंडितों को साथ मिलाकर इन हवेलियों का निर्माण किया।
षेखावाटी अपनी हवेलियों के लिए विष्व प्रसिद्ध है जिसका कारण इन हवेलियों में बनाये गये भिती चित्र है। इस क्षेत्र में रामगढ़, फतेहपुर, लक्ष्मणगढ़, मंडावा, महनसर , बिसाऊ, नवलगढ़, डूडलोद व मुकंदगढ़ जैसे कस्बे हवेलियों के कारण ही आज भी विष्व सैलानियों के आकर्षण का केन्द्र बने हुए है। इन हवेलियों के गुम्बद से लेकर तलघर तक भिती चित्रों से अटे पड़े है। विष्व में भिती चित्रों पर षोध करने वाले अनेक षोधार्थी हर साल यहां आते है। षेखावाटी को खुली कला दीर्घा भी कहा जाता है। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय यहां पर भी छोटे मोटे स्तर पर किसान विद्रोह हुए थे मगर वे अंग्रेजी हुकुमत के विरोध में न होकर सामंतों के विरोध में थे अतः बड़े फलक के रुप में नहीं उभर सके। वर्तमान समय में इन हवेलियों के भिती चित्रों को देखने से पता चलता है कि इस चित्रकारी पर अलग-अलग युग का असर रहा है। कहीं मुगलकालीन दरबार व चित्रषैली देखने को मिलती है तो कहीं पारसी षैली का भी प्रभाव है।

महनसर के सेठ सेजाराम पोद्दार की हवेली की सोने चांदी की दुकाने, पोद्दारों की छत्तरियां और यहां के गढ़ काफी मषहूर है। ष्षेखावाटी में रजवाड़ों के समय अनेक देषी राजाओं ने अपने गढ़ बनाये जो किसी पहाड़ या ऊँचे टीले पर स्थित है। इन गढ़ों में सीकर, लक्ष्मणगढ़, डूण्डलोदेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेे, बठोठ व पाटोदा के गढ़ प्रमुख हैेें । इन गढ़ों पर चित्रकारी का सुन्दर आंकलन देखा जा सकता हैैैैैै। डूंडलोद का गढ़ तो आजकाल हैरिटेज होटल बन गया है। लक्ष्मणगढ़ व कुछ अन्य गढ़ो को पूंजीपतियों ने खरीद लिया है जिसके कारण आज जनता इस कला व संस्कृति को देखने से वंचित है। डूंडलोद की गोयनिका हवेली खुर्रेदार हवेली के नाम स प्रसिद्ध है। इस हवेली का निमार्ण सेठ अर्जुनदास गोयनका ने करवाया था । इस विषालकाय चैक की हवेली क बाहर दो बैठकें आकर्षक द्वार और भीतर सोलह कक्षों का निमार्ण किया गया है। जिनके भीतर कोठरियों, दुछत्तियों, खूंटियों, कड़ियों आदि की पर्याप्त व्यवस्था रखी गई है। इसे आजकल संग्राहलय का दर्जा दे दिया गया है। इस घुमावदार खुर्दे की हवेली का भीतरी हिस्सा लोक चित्रों से भरा हुआ है, जिसमें कृष्ण लीला के चित्र प्रमुख है। मन्डावा के कासन होटल, सागरमल लदिया की हवेली, रामदेव चैखानी की हवेली व मोहनलाल नेवटिया की हवेली भी दर्षनीय है। झुंझुनु में रानी सती का मंदिर, टीबड़े वालो की हवेली और ईसरदास मोदी की सैकड़ों खिड़कियों की हवेली है। रामगढ़ षेखावाटी में रामगोपाल पोद्दार की छतरी में रामकथा अपने लोककला के साथ चित्रित है। इसके अलावा रामगढ़ में खेमका हवेली भी है। यह वही रामगढ़ है जहां लक्ष्मीनिवास मित्तल के पूर्वज रहते थे। चुरु में मालखी का कमरा, सुराणों का हवामहल, रामविलास गोयनका की हवेली,मंत्रियों की बड़ी हवेली औेेर कन्हैयालाल बागला की हवेली दर्षनीय है। इसके अलावा नवलगढ़ में भी बहुत सी हवेलियां हैं जहां पर ‘पहेली’ जैसी अनेक फिल्मों की सूटिंग होती है।
इन हवेलियों में प्राकृतिक रंगों से भिती चित्रों का जो चित्रांकन किया गया है वो अदभुत है। इतिहास के हर युग की कला व षैली का प्रभाव इन चित्रों पर नजर आता है। एक तरफ पौराणिक कथाओं का चित्रांकन लोक कला में उकेरा है वहीं दूसरी तरफ अकबर के चित्र साम्प्रदायिक सौहार्द का संदेष देते है।
ये हवेलिया तो जिंदा है मगर आजादी के 61 साल बाद आज स्थिति यह है कि इन हवेलियों के भिती चित्रों को बनाने वाले कलाकारों की पूरी पीढ़ी ही लुफ्त हो गई है। एक भी चित्रकार नहीं रहा जो भिती चित्रों की इस दुनियां को जानता हो। इसके अनेक कारण गिनाये जा सकतें हैं कि आजादी के बाद न तो सरकार इन चित्रकारों की तरफ कोई ध्यान दिया और न ही समाज अपने स्तर पर इनकी कला को आगे बढ़ा सका। सबसे बड़ा सवाल है कि उस शोषण के इतिहास को पूरी तरह मिटाकर, बनीयों के बाप दादाओं के नाम पर कसीदे पढ़े जाते है।

-संदीप कुमार मील/ मोबाइल नम्बर- 8800780131

रविवार, 30 जनवरी 2011

दलितों की औधोगिक दख़ल

आज से लगभग पांच साल पहले फिक्की की तर्ज पर मिलिंद कांबले ने डिक्की (दलित इंडियन चैंबर आॅफ कॅामर्स) की स्थापना की, तब यह एक शुरूआती कदम था लेकिन अब डिक्की का सालाना टर्न आॅवर पांच हजार करोड़ रूपये तक पहुँच गया है। पिछले दिनों इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में दलित करोड़पतियों का इक्कठा होना भारतीय पूंजीवादी इतिहास में नया कदम है। पचास से पांच सौ करोड़ सालाना टर्न अॅावर वाले दलित उधोगपतियों ने नये साल के लक्ष्य तय किये कि वो 2011 में हेलिकाॅप्टर खरीदेंगे। अब सवाल उठता है कि पूंजीवाद के मूलभूत दुर्गुणों से क्या यह नया पूंजीपति वर्ग बच पायेगा ? हालांकि इन सब उधोगपतियों ने शून्य से व्यापार शुरू किया है और एक स्टेज पर जाकर भारतीय उधोग जगत में अपना स्थान बनाया है। लेकिन पूंजीवाद की गिरफ्त में आने के बाद वे अपने समाज के बारे में कितना सोच पाते हैं, क्योंकि पूंजीवाद का धरातल शोषण पर टिका हुआ है और जब आर्थिक शोषण की बात आती है तो जाति गौण हो जाती है। सामाजिक समानता की बात करते समय आर्थिक शोषण को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है, एक ही समाज द्वारा अपने सदस्यों का आर्थिक शोषण भारतीय समाज में कोई नई बात नहीं है। भारत में वर्ग संघर्ष और वर्ण संघर्ष दोनों समानांतर है।
इस नये पूंजीपति वर्ग के उभरने से जो सकारात्मक पक्ष उभरेगा वो होगा कि औधोगिक क्षेत्र में सवर्ण वर्चस्व को धक्का लगना। समाज के हर पिछडे़ वर्ग में एक आत्मविश्वास की किरण फैल सकती है कि भारतीय औधोगिक क्षेत्र में उनका भी हिस्सा है, लेकिन इस कपोल कल्पना से उनके जीवन में कोई परिवर्तन नहीं होता दिखाई दे रहा है। परिवर्तन तो तब माना जायेगा जब यह नया पूंजीपति वर्ग अपनी कम्पनीयों की नौकरीयों में आरक्षण की शुरूआत करे। लेकिन यह वर्ग भी ऐसा नहीं करेगा, क्योंकि जब मुनाफे की बात आती है तो पूंजीपति का रंग बदल जाता है चाहे उसका वास्ता समाज के किसी भी वर्ग से रहे। अगर यह वर्ग भी नीजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करने की पहल नहीं करता है तो फिर फिक्की और डिक्की में क्या फर्क है ? सिर्फ सत्ता के स्थानान्तरण से तो वंचित समुदाय की समस्याओं का हल होने वाला नहीं है। क्या इनके उधोगों में मजदूरों का शोषण नहीं होता है, क्योंकि शोषण के बिना पूंजीपति बना ही नहीं जा सकता है। इन उधोगपतियों का 2011 का लक्ष्य हेलिकाॅप्टर लेना है न कि दलित समाज का हित करना। कुछ लोगों के पूंजीपति बन जाने के कारण किसी भी समाज का भला होने वाला नहीं है। कुछ लोगों का तर्क है कि इनके उधोगपति बन जाने से दलित समाज के लोगों को औधोगिक क्षेत्र में आने का मनोबल बढ़ेगा लेकिन दलित समाज की समस्याएं सामाजिक और राजनैतिक है और उनका सामाधान भी सामाजिक राजनीतिक क्षेत्र में परिवर्तन से ही हो सकता है। सामाजिक न्याय की लड़ाई केवल वो ही वर्ग लड़ सकता है जो समस्याओं से जूझ रहा है। लेकिन अगर यह वर्ग सामाजिक न्याय के संघर्ष में आर्थिक रूप से मजबूत कर पाये तो संघर्ष आगे बढ़ पायेगा। और वर्ग संघर्ष व वर्ण संघर्ष के बीच सामंजस्य बैठा पाते है या नहीं। यह तो इनको तय करना है कि इस संघर्ष इनकी क्या भूमिका होगी, एक पूंजीपति की या फिर सामाजिक न्याय के संघर्ष के कार्यकर्ता की। पूंजीपति आख़िर पूंजीपति है चाहे वो किसी भी समाज का हो, उसके हित संघर्ष के लक्ष्यों से अलग होते है।

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

घूमावदार सत्य

‘इस ट्रक के भी विभिन्न पहलू थे जैसे सत्य के कई पहलू होतें हैं।’ रागदरबारी के इस वाक्य का अर्थ मुझे उस समय समझ में आया, जब मैंने सत्य के कई पहलू देखे। ‘सत्य’ एक ही था मगर उसे विभिन्न दृष्टिकोणों से देखकर अलग-अलग अर्थ निकाले जा रहे थे। मेरे एक मित्र को बिहार जाना था, इस कारण मुझे ट्रेन का तात्कालिन टिकट लेने के लिये सुबह चार बजे सरोजनी नगर रेलवे स्टेषन जाना पड़ा। आरक्षण खिड़की के खुलने का समय सुबह आठ बजे था मगर लोगों की कतार इतनी लम्बी थी कि कुछ लोग रात के आठ बजे से ही बिस्तर डाल कर सो रहे थे। खैर, जब मैं लाइन में लगा तो मेरे आगे लगभग सौ लोग थे। औरतों के लिये अलग से लाइन थी। यह दीदी के दौर की राजधानी ट्रेन की कहानी है। जैसे आमतौर पर भीड़ में होता है वैसे ही कभी कभी लोगों में झड़पें हो रही थी।
अचानक औरतों की कतार मंे शोर-षराबा होने लगा, लोगों का एक रैला उस तरफ उमड़ा और कुछ ही देर में धक्का मुक्की होने लगी। मैं भी दौड़कर उनके पास पहुंचा और भीड़ को चीरता हुआ घेरे के बीच तक जा पहुंचा। तीन औरतों में आपस में झगड़ा हो रहा था जिसमें दो सक्रिय रूप से भाग ले रही थी और एक बीच में कभी कभार हस्तक्षेप कर रही थी। झगड़े का कारण था कि जो औरत कम बोल रही थी वो रात को आठ बजे आकर लाइन में लगी थी मगर उसका बच्चा रोने लगा और वो बच्चे को लेकर घर चली गई। जाते समय अपने आगे वाली औरत को को बोलकर गई थी कि मेरा नम्बर तेरे पीछे है, यही सत्य का एक पहलू था। जब वो सुबह लौटकर आयी तो उसकी जगह पर एक तीसरी औरत थी जो उसे लाइन में नही जगने दे रही थी। उसका कहना था कि एक बार आकर कह गई कि यहां मेरा नम्बर है उसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि मैं यहां रात भर बैठी रही हूं। यह भी सत्य था कि वो औरत वहां रात भर बैठी रही, दूसरा पहलू भी हो गया। झगड़ा आगे ओर पीछे वाली औरत में था जिसमें आगे वाली औरत का बस इतना ही कहना था कि बीचवाली औरत रात को आकर गई थी। यह भी सत्य था जो सबसे प्रभावषाली था और इसीलिये जिस औरत के कारण झगड़ा हो रहा था वो चुप थी, लड़ाई के दोनों पक्ष आगे पीछे वाली औरतें सम्भाले हुए थी। एक साथ सत्य के तीन पहलू थे और तीनों अपनी अपनी जगह सत्य से जुड़े हुए थे।
अचानक सत्य का चौथा पहलू उजागर हुआ जो सबसे खतरनाक था। एक आदमी भीड़ से निकलकर आया जिनका इन तीनों औरतों और कतार से कोई संबंध नहीं था। आते ही बोला, ‘तुम औरतों को तो लड़ाई झगड़े के अलावा कोई काम नही होता है, चुपचाप बैठ जाओ।’ जब इस वाक्य का उन तीनों औरतों ने विरोध किया तो धीरे धीरे पुरूषों की जमात झगड़े के मैदान मे टपक पड़ी जिनका इस झगड़े से दूर दूर तक कोई संबंध नही था। अब यह लड़ाई औरतों के बीच कतार के नम्बरों से बदल औरत और पुरूष के बीच की लड़ाई का रूप धारण कर चुकी थी। यह पूरा तबका झगड़े के शांत करवाने के बजाये मजाक के मकसद से शामिल हुआ था। अतः में तीनों औरतें चुप बैठ गई।
चौथा पहलू सत्य के तीन अलग अलग पहलूओं से हटकर पुरूषवादी समाज का सटीक चित्र प्रस्तुत कर रहा था। भारतीय समाज में आज भी औरतों को पर जाति और धर्म के नाम पर जुल्म ढ़ाये जाते हैं उनके पीछे एक बहुत बड़ा कारण है कि सामाजिक व्यवस्था में औरत को समाज का बराबर का हिस्सा माना ही नहीं जाता है। समाज में औरत और पुरूष दोहरी नैतिकता को स्थापित किया गया है जिसके उदाहरण रोज अमानवीय घटनाओं के रूप में सामने आते है। समाज में बच्चें के जन्म से ही उसमें इस भवना को बढ़ावा दिया जाता है कि पुरूष श्रेष्ठ है और औरत के भोग की वस्तु है और ऐसे कुसंस्कार अनपढ़ समाज के आलावा पढ़े लिखे समाज में भी धड़ले से पोषित होते है। पढ़े लिखे समाज में तो कहीं कहीं इतनी विद्रुपताएं देखने को मिलती है कि जो स्त्री अधिकारों की बात करतें हैं वो ही अपने निजी जीवन में सामंतवादी और पुरूषवादी मानसिकताओं से जकड़े रहते है।
चौथे पहलू को मैंने गांव में भी देखा था और शहर में भी देखा है, दोनों जगह पर बाकि भौतिक संसाधनो में तो बहुत बड़ा अंतर है, शोषण के तरीके बदले हुए है मगर शोषण का रूप वही है, कितना सार्वभौमिक है यह सत्य का चौथा पहलू। काश! वो तीनों सत्य मिलकर चौथे का जवाब दे पाते।

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

पद की गरिमा

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में निर्णय दिया है कि राज्यपालों को बदलने के लिये पुख्ता वजह का होना जरूरी है, इस निर्णय ने फिर से राज्यपाल के पद को लेकर नई बहस को जन्म दिया है। भारतीय राजनीति में राज्यपाल का पद सबसे विवादास्पद पद हो गया है, जब सरकारें बदलती है तब राज्यपालों का हटना भी शुरू हो जाता है। भारतीय लोकतंत्र मंे यह सवाल बार उठता है कि राज्यपाल के पद का क्या मतलब है? इस सवाल के पिछे बहुत से कारण में से एक कारण यह भी है कि आजादी के बाद इस पद की गरीमा को भूलकर इसे एक राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया है। विभिन्न राजनैतिक दलों के आपसी मतभेदों के कारण इस संवैधानिक पद की गरीमा को बार बार उछाला गया है। जब कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति को केन्द्र में मंत्री पद नहीं मिल पाता है या उसे सक्रिय राजनीति से हटाना हो तो उसे किसी राज्य का राज्यपाल नियुक्त कर दिया जाता है, इससे दो फायदे है- एक तो पार्टी का एक नेता संतुष्ट हो जाता है जिससे पार्टी में विद्रोह की आषंका नही रहती और दूसरा फायदा है कि अगर राज्य में विरोधी दल की सरकार है तो उसके खिंच तान करने के लिये भी इस पद का उपयोग कर लेते हैं और यह परम्परा सी पन गई कि राज्यपाल सताधारी दल का राजनेता ही होगा। कुल मिला कर यह पद केन्द्रीय राजनीति का राज्यों पर नियंत्रण रखने का एक साधन हो गया है। झारखण्ड और बिहार के राज्यपालों का हाल पिछले दिनों देख ही चुके है, जब भी किसी राज्य में कोई राजनीतिक संकट आता है तो राज्यपाल की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है, लेकिन दुर्भाग्यपुर्ण बात यह है कि जब भी ऐसी स्थिति आती है तो इस पद को विवादों के घेरे में पाते है।
संसदीय लोकतंत्र में केन्द्र और राज्य के बीच राज्यपाल एक सेतु का काम करता है, इस पद की उपयोगिता खासकर तब देखने को मिलती है जब मंत्रिमंडल भंग हो जाता है लेकिन ऐसी स्थिति में भी किसी पार्टी विषेष की वफादारी के कारण कई बार पक्षपात का आरोप लगाया जाता है। संवैधानिक पद होते हुए भी राज्यपाल को विषष संवैधानिक अधिकार प्राप्त नहीं है, केवल शाही खर्चे का प्रतीक बनकर रह जाता है। हाल के वर्षों में धारा 356 के गलत उपयोग के मामले भी सामने आ रहे है जो स्पष्ट करते है कि इस पद के महत्व व अधिकारों को लेकर पुनर्विवेचना हो। ऐसी स्थिति में सुप्रिम कोर्ट का निर्णय स्वागत योग्य है, लेकिन सवाल उठता है कि वो पुख्ता वजह क्या होगी? जब तक इस पद पर राजनीतिक लोगों को आरूढ़ किया जाता है तो निष्चित रूप से वो अपनी पार्टी के प्रति वफादारी दिखाने की कोषिष करेंगे, अगर राज्यपाल विरोधी पक्ष का है तो वो अपने अपने आप में एक वजह बन जायेगी। सुप्रिम कोर्ट ने इस फैसले में बताया है कि राष्ट्रीय नीति के साथ राज्यपाल के विचारों का मेल नहीं होने के कारण उसके कार्यकाल में कटौती करके हटाया जा सकता है और वो केन्द्र सरकार से असहमत भी नही हो सकते अर्थात केन्द्र में जिस पार्टी की सरकार हो उसे पूरी छूट है कि वो राज्यपाल को जब चाहे हटा सकते है। राज्यपाल का पद पूर्णरूप से राजनीतिक आकाओं के रहम पर निर्भर हो गया है जो कि एक स्वतंत्र संवैधानिक पद है।
6 दषक के संवैधानिक अनुभव के आधार पर साफ जाहिर है कि राज्यपाल के पद की पुर्नविवेचना जरूरी हो, इसे एक संवैधानिक पद के रूप में स्थापित किया जाये और राजनीतिक चालबाजीयों से अलग करके स्वतंत्र अभिनेता का स्थान दिया जाये जो संविधान के अनुसार राज्य और केन्द्र के मध्य अपनी भूमिका निभाये।

सोमवार, 18 अक्टूबर 2010

प्रवासी मजदूर मताधिकार अभियान

बिहार की खराब हालत के कारण लोगों का पलायन वर्षों से लगातार जारी है, इस पलायन में दिन प्रतिदिन बढ़ोत्तरी ही हो रही है, वहीं दूसरी तरफ बिहार सरकार को विकास की सरकार के नाम से प्रचारित किया जा रहा है। 2007, 2008 एंव 2009 के दौरान बेगुसराय, कुसहा एंव सीतामढ़ी में तटबंध टूट कर बिहार में सैलाब आए। इसी सरकार के दौरान 2009 में बिहार के कुछ जिले एंव 2010 में अधिकांश ज़िले सूखे की चपेट में आए। राहत की घोषणाएँ तो बहुत हुईं लेकिन पीड़ितों तक कितनी राहत पहुँची यह एक विवाद का विषय है। इस वर्ष भी राज्य एक ओर तो भीषण सूखे की चपेट में है वहीं दूसरी ओर सारण में गंडक नदी पर बना तटबँध टूट गया है और दर्जनों गाँव बाढ़ के ख़तरे से जूझ रहे हैं। तटबँधों के रख-रखाव के मामले में शासन पूरी तरह से असफल साबित हो रहा है।
1990 के भूमण्डलीकरण के कारण एंव पिछले 10 सालों से लगातार बाढ़ व सूखे के कारण पलायन प्रतिशत में और एजाफा हुआ। दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता जैसे शहरों में बिहारी प्रवासी मजदूरों की संख्या बहुत अधिक है, पंजाब जैसे राज्य में खेती के लिए खास तौर पर बिहार से खेत मजदूर बुलाए जाते हैं।
राज्य में मनरेगा एंव बी.पी.एल. जैसी सभी सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी योजनाओं की हालत दयनीय है। अगर हम बिहार की शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, सिंचाई, बिजली आपूर्ति जैसे मुद्दों की बात करें तो पता चलता है कि पिछले 5 वर्षों में भी कोई सार्थक प्रयास नहीं हुए है। अगर बिहार को बाढ़ और सूखे से बचाया गया होता और आम लोगों को सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी योजनाओं का लाभ मिला होता तो आज बिहार से इतनी अधिक संख्या में लोगों का पलायन न हो रहा होता।
बिहार से पलायन कर दूसरे शहरों में रोज़गार के लिए जाने वालों की संख्या लगातार बढ़ती हुई दिखती है, जिसका सही आंकड़ा किसी के पास भी मौजूद नहीं है। दूसरे शहर में रह कर काम करने वाले ये असंगठित क्षेत्र के मजदूर हमारे जनतंत्र में अपने मताधिकार का प्रयोग भी नहीं कर पाते हैं। चूँकि अन्य शहरों से बिहार वापस जाकर वोट देना इन मजदूरों के लिए संभव नहीं, इसलिए इनके मुद्दे भी चुनाव में शामिल नहीं होते। ऐसा महसूस होता है मानो बिहारी मज़दूरों को अन्य शहरों में सम्मान के साथ जीने का कोई अधिकार ही नहीं है। इन मजदूरों पर जब कभी किसी भी प्रकार का हमला होता है, उस समय कोई राजनैतिक पार्टी या राजनेता ज़ुबानी जमाख़र्च के अलावा कोई सार्थक प्रयास नहीं करते। कोई बिहारी अस्तित्त्व पर सम्मेलन कर देता है तो कोई नारेबाज़ी तक अपने आप को सीमित रखता है। न ही उन प्रदेशों में प्रभावी तौर पर कोई अन्य दल मज़दूरों के साथ खड़ा होता है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह लगती है कि इन प्रवासी मज़दूरों का इस जनतंत्र में कहीं वोट देने का अधिकार ही नहीं है। अपने इलाक़े से पलायन कर रोज़गार की तलाश में देश के किसी भी कोने में जाने वाले ये असंगठित क्षेत्र के मज़दूर चुनाव के समय न तो अपने शहर वापस जा कर वोट दे पाते हैं और न ही जिन शहरों में वे काम कर रहे हैं वहाँ उनको वोट देने का अधिकार होता है। शहर के ऐसे तमाम लोग जो चुनावी प्रतियाशियों को वोट देकर कामयाब बनाने का अधिकार नहीं रखते, हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था ऐसे लोगों को रोज़गार, राशन, बिजली, पानी और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत ज़रूरतों से भी वंचित रखतीे है। दूसरे शब्दों में जनतंत्र में वही जी पाता है जो जनतंत्र का हिस्सा है।
पलायन के लिए ज़िम्मेदार मज़दूर नहीं सरकार की नाकामियाँ और इच्छा-शक्ति का अभाव हैं। सरकार की नाकामियों के कारण लोगों से उसके मतदान का हक़ छिन जाए तो नागरिकता और जनतंत्र दोनों ख़तरे में दिखाई देते हैं।
जनतंत्र में केवल उनका सम्मान किया जाता है जो वोट देते हों, जिनका वोट नहीं होता उनके मुद्दे हमेशा दबे रह जाते हैं।
पिछले दिनों में हमारी बातचीत के दौरान इस समस्या के समाधान के लिये निम्न सम्भावनाएं सामने आयी:-
1. मजदूर जहां पर रहते है, ज्यादा से ज्यादा संख्या में उन्हें वहां का मतदाता बनाया जाये। या
2. लोकसभा, विधानसभा और पंचायत चुनावों में आने जाने का यात्रा भता दिया जाये। या
3. मजदूर जहां पर रह रहे हैं वहां पोस्टल बैलेट की व्यवस्था की जाये। या
4. मजदूर के रहने के स्थान पर पोलिंग बूथ लगाये जायें। या 5. इसके अलावा सम्भावनाओं को तलाश किया जाए।
इस समस्या के बाबत हम चुनाव आयोग को ज्ञापन भी दे चुके हैं और आने वाले समय में बिहार विधानसभा चुनावों के 6 चरणों के दौरान दिल्ली में मजदूरों से अपील भी कर रहे हैं कि बिहार जा कर ज्यादा से ज्यादा मतदान में भाग लें, फिर भी जो मजदूर चुनाव में शामिल नहीं हो पाऐंगे वह चुनाव आयोग को पत्र लिख कर इस बात की सूचना देंगे कि वह अपने मताधिकार का प्रयोग दिल्ली में रहने की वजह से नहीं कर पा रहे हैं, यही हमारे वोट हैं इन्हें स्वीकार करें अर्थात चिट्ठी के माध्यम से चुनाव आयोग को अपना वोट दर्ज करायेंगे।

अंतिम चरण के चुनाव के दिन 20 नवम्बर 2010 को मतपत्र के रूप में सभी पत्र चुनाव आयोग को सोंपे जायेंगे ,
बिहार बाढ़ विभीषिका समाधान समिति के सदरे अलम ने बताया कि इस अभियान कि अपील सभी राजनैतिक दलों को भेजी जाएगी , अमन ट्रस्ट के जमाल किदवई ने बताया कि हाल ही में ए एन सिन्हा संस्था (पटना) कि एक रिपोर्ट आई है , जिसमे बताया गया है कि बिहार के ३० % मत दाता पलायन कर गए हैं जो चुनाव में हिस्सा नहीं लेंगे उनके मुताबिक श्रीनगर में एक लाख से अधिक बिहारी मजदूर हैं जो वोट नहीं करते