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मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

सनोबर विला में एक अजनबी

समकालीन भारतीय साहित्य के 151 नंबर के अंक में प्रकाशित
इस कहानी संग्रह में ओम गोस्वामी की पांच कहानियां है जो विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में बहुत पहले प्रकाषित हो चुकी है। ‘इस बीच’ नामक कहानी पर तो धारावाहिक भी बन चुका है। कथाकार ने जीवन के खट्टे मिट्ठे अनुभवों को जिस प्रकार से शब्दों के ताने बाने में बुना है वो साहित्य और समाज के लिये एक शुभ संकेत है। इस संग्रह की हर कहानी अलग- अलग विषय वस्तु लिये हुये है।
पहली कहानी ‘सनोबर विला में एक अजनबी’ में ‘गुरटू’ नामक नौकर का चरित्र उस भारतीय समाज का नेतृत्व कर रहा है जो गरीब रहते हुए भी अपने सिद्धान्त से समझौता नहीं करता है। ‘गुरटू’ के पूरे परिवार को आतंकवादियों ने मार डाला था, वह किसी तरह बच निकला था। गुरटू एक विख्यात विद्वान तो था ही साथ ही खाना बनाने का लाजवाब हूनर भी रखता था। इसी हुनर से वह अपनी प्रतिभा को दबा कर भी सेठ कुंजनलाल के धर पर नौकरी कर जीवन गुजार रहा था। गुरटू एक ऐसा चरित्र है जिसमें जीवन के प्रति अदम्य जीजिविषा कूट - कूट कर भरी हई है। वो अपनी कला व मेहनत से इज्जत की जीन्दगी जीना चाहता है।
दूसरी तरफ सेठ कुंजनलाल, लखीराम व करोड़ीमल उस सामाजिक मानसिकता को प्रदर्षित करते है जो अपने तुच्छ स्वार्थों के लिये इंसानियत की भी बली देकर आदमी की खरीद फरोख्त करती है। इन्हें पैसों का इतना धमण्ड होता है कि हर चीज को पैसे के तराजु में तोलतें है, जहां पर इंसानियत व मानवीय भावनाओं के लिये कोई स्थान नहीं होता है। कहानी का भावप्रवाह शब्दों के माध्यम से कसावट लिये हुए है। सरदार जी का पूरा व्यक्तित्व इस तरह का है कि वह प्रतिभा को आदर व सम्मान देना जानता है। बुढ़े बुजुर्ग की इज्जत करने का संस्कार होने के कारण ही वह गुरटू को ससम्मान अपने साथ ले जाता है। पूरी कहानी में सामाजिक द्वंद को दर्षाया है जिसमें मानवीय व्यवहार के अच्छे और बूरे दोनों पहलूओं की जानकारी मिलती है।
दूसरी कहानी ‘जीवन युद्ध’ एक ऐसे व्यक्तित्व मास्टर राँझूराम के जीवन की कहानी है जिसकी जिंदगी में रिष्तों कोई अहमीयत नहीं है। सिर्फ पैसे के बल पर समाज में खुद को श्रेष्ठ दिखानें की चाह रखता है। बाप और बेटे के रिष्ते के प्रेम की डोरी में बांधे रखने में उसका विष्वास नहीं है। इसी कारण राँझूराम के जीवन युद्ध में प्रतिपक्ष कोई दूसरा न होकर उसका बेटा ही हुआ।पांच बेटों का पिता होते हुए भी रिष्तों की अहमियत नहीं समझ पाया और शायद यही कारण हुआ कि अंत में उसके बेटे भी बाप को दौलत की मषीन मानने लगे। रँझूराम की पत्नि शालिन और भोलीभाली औरत जो सबकुछ जानते हुए भी मूकदर्षक बनी रहती है।यह पूरी कहानी वर्तमान परिपेक्ष्य की साक्षी है कि दौलत की इस अंधाधुध दौड़ में रिष्ते पिछे छूट जातें हैं। जब तक आदमी को इस बात का अहसास होता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
इस संग्रह की हर कहानी किसी न किसी सामाजिक बुराई पर चोट मार्मिक पहुंचा रहीं हैं। ‘दर्द की दहलीज’ काहनर की नायिका नौजी एक पतिवर्ता, षीलवति और भारतीय नारी का संकेत देती है, जो हर कष्ट सहते हुए भी अपनी अस्मिता को बचाना चाहती है। एक विधवा औरत को समाज में जिन नाना प्रकार के दुः खों का सामना करना पड़ता है, उसका दर्द भरा चित्रण साहित्य सीमाओं में रहते हुए इस कहानी में किया गया है।
पंडित अमिचंद नषे का हद से ज्यादा षिकार होने के कारण नैतिकता अनैतिकता के पैमाने भूल चुका था। चैधरी जैसे लोग पुरुष प्रधान समाज के वो अनैतिक तत्व है जो स्त्रि को केवल भोग की वस्तु समझते हैं। इस कहानी का जिस प्रकार से अंत होता है, वह कि एक औरत का दुःख केवल औरत ही समझ सकती है क्यांकि वो ही पुरुषप्रधान समाज के काँटों को भोगती है। यह कहानी दुनियंा के उन तमाम समाजों का दर्पण है, जहां पर लिंग के आधार शोषण होता है। चाहे वो पत्नि के रुप में हो या फिर स्त्रि होने के नाते शारीरिक और मानसिक यातना हो।

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