राजस्थानी भाषा विश्वविख्यात है। इसका एक कारण इंटरनेट है, जहां राजस्थानी को हर किसी ने चाहा तथा सम्मान दिया है। सरकारी वेबसाइटों पर भी अब राजस्थानी देखने को मिल रही हैं। श्रीगंगानगर जिला इस पहल को शुरुआत करने वाला पहला जिला है। इस जिले की सरकारी वेबसाईट पर राजस्थानी को सबसे पहले शामिल किया गया है। इंटरनेट पर राजस्थानी को अपनी पहचान दिलाने के लिए ब्लॉग एक सशक्त माध्यम बनकर उभरा है, इनकी संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है।
राजस्थानी के ब्लॉग जो अभी तक सामने आएं हैं, उनमें राजस्थान की भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के साथ-साथ दूसरे विषयों की जानकारी भी देखने में आती हैं। इंटरनेट पर राजस्थानी की जो वेब-पत्रिकाएं सामने आई हैं, वे इस प्रकार हैं- सत्यनारायण सोनी और विनोद स्वामी संपादित 'आपणी भाषा-आपणी बात', राव गुमानसिंह राठौड़ का 'राजस्थानी ओळखांण', पतासी काकी का 'ठेठ देशी', नीरज दईया की मासिक वेब पत्रिका 'नेगचार', मायामृग का 'बोधि वृक्ष' आदि।
राजस्थानी के रचनाकारों के ब्लॉग में- ओम पुरोहित 'कागद', रामस्वरूप किसान का राजस्थानी कहानियों का ब्लॉग, दुलाराम सहारण का राजस्थानी की प्रकाशित पुस्तकों की सूची, संदीप मील का 'राजस्थानी हाईकू', राव गुमानसिंह राठौड़ के 'राजिया रा दूहा', 'सुणतर संदेश', डॉ. सत्यनारायण सोनी की राजस्थानी कहानियां, शिवराज भारतीय का 'ओळूं', संग्राम सिंह राठौड़ का 'स्व. चंद्रसिंह बिरकाळी री रचनावां', डॉ. मदनगोपाल लढ़ा का 'मनवार', पूर्ण शर्मा 'पूरण' का 'मायड़ भाषा', डॉ. मंगत बादल, जितेन्द्र कुमार सोनी 'प्रयास' का 'मुळकती माटी', राजूराम बिजारणियां, कवि अमृतवाणी का 'राजस्थानी कविता कोश', नीरज दईया के 'सांवर दईया', 'राजस्थानी ब्लॉगर', डॉ. दुष्यंत का 'रेतराग', रवि पुरोहित का 'राजस्थली', दीनदयाल शर्मा का 'टाबर टोळी', 'गट्टा रोळी', राजेन्द्र स्वर्णकार का 'शस्वरं', अंकिता पुरोहित का 'कागदांश', किरण राजपुरोहित 'नितिला', संतोष पारीक का 'सांडवा', अजय कुमार सोनी का 'भटनेर' आदि।
इंटरनेट पर राजस्थानी की मूल रचनाएं तथा अनूदित रचनाएं बहुत सी पत्रिकाओं में निरंतर छपती रहती हैं। जिनमें- 'हिन्दी कविता कोश', नरेश व्यास का 'आखर कलश', प्रेमचंद गांधी का 'प्रेम का दरिया', रविशंकर श्रीवास्तव का 'रचनाकार'।
राजस्थानी भाषा की मान्यता से जुड़े मुद्दों पर चर्चा के ब्लॉग भी हैं। जिनमें- कुंवर हनवंतसिंह राजपुरोहित के 'मरुवाणी', 'म्हारो मरूधर देश', विनोद सारस्वत का 'मायड़ रो हेलो', सागरचंद नाहर का 'राजस्थली', अजय कुमार सोनी के 'मायड़ रा लाल', 'राजस्थानी रांधण', राजस्थानी का 'राजस्थानी वातां' ब्लॉग, राजस्थानी गीत गायक प्रकाश गांधी और जितेन्द्र कुमार सोनी के भी राजस्थानी ब्लॉग हैं।
इंटरनेट पर कई गांवों के भी ब्लॉग हैं जो राजस्थानी में हैं- 'आपणो गांव परळीको'। 'मेरा गांव भगतपुरा' की माध्यम भाषा तो हिन्दी है, परन्तु राजस्थानी चित्र, ऑडिया-वीडियो भी हैं। अब तो अत्यंत खुशी की बात है कि जल्द ही ऑनलाईन राजस्थानी टेलिविजन और रेडियो खुलने वाले हैं। जिन पर राजस्थानी में ही प्रसारण किया जाएगा। जिसकी पंहुच प्रवासी राजस्थानियों तक भी होगी। ऑनलाईन राजस्थानी टेलिविजन बतौर प्रयोग शुरू कर दिया गया है, जिसमें अभी रोजाना राजस्थानी गीत लगाए जाते हैं। इसका नाम अभी 'मरुवाणी' रखा गया है और इसके सूत्रधार कुंवर हनवंतसिंह राजपुरोहित हैं जो लंदन में अपना कारोबार करते हैं।
केन्द्र सरकार की उदासीनता के चलते राजस्थानी की मान्यता का सवाल अधरझूल में पड़ा है। इन उपलब्धियों को देखते हुए केन्द्र सरकार को चाहिए कि वह राजस्थानी भाषा को तत्काल संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करे।
मोबाईल नंबर- 96729-90948
अजय कुमार सोनी 'मोट्यार', परलीका
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बुधवार, 26 मई 2010
सोमवार, 24 मई 2010
कुछ तो बचा लें
आज भारतीय जनतंत्र पर जो खतरा पैदा हुआ है, उसका मुख्य कारण पूंजीवादी ताकतों के दवाब में आकर भारतीय परिस्थियों को समझे बगैर नवउदारवादी नीतियों व भूमंडलीकरण को अपनाना है. हालाँकि भारत में प्रचलित जनतंत्र सिर्फ नाम भर का जनतंत्र रह गया है जिसमे जनता वोट को रस्म के तौर पर निभाती है, उसे यह तो पता है कि ड़ो बुराइयों में से एक बुराई का चुनना है मगर अभी तक ड़ो बुराइयों के अलावा तीसरे विकल्प का रास्ता नहीं तलाश पाई. जनतंत्र कि रीड जनतांत्रिक संस्थाए होती है मगर आज उन संस्थाओं को जनतंत्र विरोधी ताकतों द्वारा भीतर व बाहर से हमलों का सामना करना पड़ रहा है, जिससे सबसे पहले स्वच्छ बहस कि परम्परा को नस्त किया जा रहा है. अगर जनतंत्र के ऊपरी पायदान से बात शुरू करके पंचायत तक देखा जाये तो सामान स्थिति है. आप इसे अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता का हनन भी कह सकते है. हर जगह व्याप्त शोषण के खिलाफ जहाँ भी आवाज़ उठाई जाती है तो सता द्वारा आतंक के नाम पर दबा दिया जाता है. खुली बहस कि परम्परा का अंत करने के लिए सताधारियों द्वारा छात्र राजनीति से लेकर मीडिया तक को कब्जे में करने का जाल बिछा लिया है. छात्र राजनीति को सबसे पहले तो राजनीतिक स्वार्थों के चलते गुंडई रंग में रंग दिया गया और उसके बाद भी पूंजीवादी ताकतों को लगा कि अभी भी इससे सत्ता को से इसलिए भी खतरा है कि ये कभी भी आन्दोलन का रूप ले सकते है. इसलिए राजनीति का रूप प्राथमिक रूप को ही धन बल के जाल में फसाकर विद्रोह के तमाम रस्ते बंद कर के दिए गए. यही हालत प्राथमिक पंचायत संस्थाओं के है, जिन्हें देकर एक बार तो गांधी जी भी शर्म के मारे पचायत व्यवथा के सिद्धांत को रो रहे होंगे. खैर, जो भी हो आज फिर से देश कि जनतांत्रिक परम्पराओं को बचाने के लिए कम से कम स्वतंत्र बहस कि चौपालों को बचाना होगा वरना ये लाइने इतिहास बन जाएँगी *
आज भारतीय जनतंत्र पर जो खतरा पैदा हुआ है, उसका मुख्य कारण पूंजीवादी ताकतों के दवाब में आकर भारतीय परिस्थियों को समझे बगैर नवउदारवादी नीतियों व भूमंडलीकरण को अपनाना है. हालाँकि भारत में प्रचलित जनतंत्र सिर्फ नाम भर का जनतंत्र रह गया है जिसमे जनता वोट को रस्म के तौर पर निभाती है, उसे यह तो पता है कि ड़ो बुराइयों में से एक बुराई का चुनना है मगर अभी तक ड़ो बुराइयों के अलावा तीसरे विकल्प का रास्ता नहीं तलाश पाई. जनतंत्र कि रीड जनतांत्रिक संस्थाए होती है मगर आज उन संस्थाओं को जनतंत्र विरोधी ताकतों द्वारा भीतर व बाहर से हमलों का सामना करना पड़ रहा है, जिससे सबसे पहले स्वच्छ बहस कि परम्परा को नस्त किया जा रहा है. अगर जनतंत्र के ऊपरी पायदान से बात शुरू करके पंचायत तक देखा जाये तो सामान स्थिति है. आप इसे अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता का हनन भी कह सकते है. हर जगह व्याप्त शोषण के खिलाफ जहाँ भी आवाज़ उठाई जाती है तो सता द्वारा आतंक के नाम पर दबा दिया जाता है. खुली बहस कि परम्परा का अंत करने के लिए सताधारियों द्वारा छात्र राजनीति से लेकर मीडिया तक को कब्जे में करने का जाल बिछा लिया है. छात्र राजनीति को सबसे पहले तो राजनीतिक स्वार्थों के चलते गुंडई रंग में रंग दिया गया और उसके बाद भी पूंजीवादी ताकतों को लगा कि अभी भी इससे सत्ता को से इसलिए भी खतरा है कि ये कभी भी आन्दोलन का रूप ले सकते है. इसलिए राजनीति का रूप प्राथमिक रूप को ही धन बल के जाल में फसाकर विद्रोह के तमाम रस्ते बंद कर के दिए गए. यही हालत प्राथमिक पंचायत संस्थाओं के है, जिन्हें देकर एक बार तो गांधी जी भी शर्म के मारे पचायत व्यवथा के सिद्धांत को रो रहे होंगे. खैर, जो भी हो आज फिर से देश कि जनतांत्रिक परम्पराओं को बचाने के लिए कम से कम स्वतंत्र बहस कि चौपालों को बचाना होगा वरना ये लाइने इतिहास बन जाएँगी *
बोल कि लब आजाद है तेरे
आज भारतीय जनतंत्र पर जो खतरा पैदा हुआ है, उसका मुख्य कारण पूंजीवादी ताकतों के दवाब में आकर भारतीय परिस्थियों को समझे बगैर नवउदारवादी नीतियों व भूमंडलीकरण को अपनाना है. हालाँकि भारत में प्रचलित जनतंत्र सिर्फ नाम भर का जनतंत्र रह गया है जिसमे जनता वोट को रस्म के तौर पर निभाती है, उसे यह तो पता है कि ड़ो बुराइयों में से एक बुराई का चुनना है मगर अभी तक ड़ो बुराइयों के अलावा तीसरे विकल्प का रास्ता नहीं तलाश पाई. जनतंत्र कि रीड जनतांत्रिक संस्थाए होती है मगर आज उन संस्थाओं को जनतंत्र विरोधी ताकतों द्वारा भीतर व बाहर से हमलों का सामना करना पड़ रहा है, जिससे सबसे पहले स्वच्छ बहस कि परम्परा को नस्त किया जा रहा है. अगर जनतंत्र के ऊपरी पायदान से बात शुरू करके पंचायत तक देखा जाये तो सामान स्थिति है. आप इसे अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता का हनन भी कह सकते है. हर जगह व्याप्त शोषण के खिलाफ जहाँ भी आवाज़ उठाई जाती है तो सता द्वारा आतंक के नाम पर दबा दिया जाता है. खुली बहस कि परम्परा का अंत करने के लिए सताधारियों द्वारा छात्र राजनीति से लेकर मीडिया तक को कब्जे में करने का जाल बिछा लिया है. छात्र राजनीति को सबसे पहले तो राजनीतिक स्वार्थों के चलते गुंडई रंग में रंग दिया गया और उसके बाद भी पूंजीवादी ताकतों को लगा कि अभी भी इससे सत्ता को से इसलिए भी खतरा है कि ये कभी भी आन्दोलन का रूप ले सकते है. इसलिए राजनीति का रूप प्राथमिक रूप को ही धन बल के जाल में फसाकर विद्रोह के तमाम रस्ते बंद कर के दिए गए. यही हालत प्राथमिक पंचायत संस्थाओं के है, जिन्हें देकर एक बार तो गांधी जी भी शर्म के मारे पचायत व्यवथा के सिद्धांत को रो रहे होंगे. खैर, जो भी हो आज फिर से देश कि जनतांत्रिक परम्पराओं को बचाने के लिए कम से कम स्वतंत्र बहस कि चौपालों को बचाना होगा वरना ये लाइने इतिहास बन जाएँगी *
बोल कि लब आजाद है तेरे
रविवार, 23 मई 2010
पद कि विवेचना
सुप्रीम कोर्ट ने हालही में निर्णय दिया है कि राज्यपालों को बदलने के लिए कोई पुख्ता वजह का होना ज़रूरी है, इस निर्णय ने फिर से राज्यपाल के पद को नई बहस को जन्म दे दिया है. भारतीय राजनीति में राज्यपाल का पद सबसे विवादित पद हो गया है, जब सरकारें बदलती है तब राज्यपालों का हटना भी शुरू हो जता है. भारतीय लोकतंत्र में यह सवाल बार बार उठता है कि राज्यपाल के पद कि का क्या महत्व है? इस सवाल के पीछे बहुत से कारणों में से एक कारण यह भी हो सकता है कि आज़ादी के बाद इस पद कि गरीमा को भूलकर इसे एक राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया. विभिन्न राजनितिक दलों के आपसी मतभेद के कारण इस संवेधानिक पद की गरिमा को बार बार उछाला गया है. जब किसी राजनितिक महत्वपूर्ण व्यक्ति को केंद्र में मंत्री पद नहीं मिल पता है या उसे सक्रिय राजनीति से हटाना हो तो तो उसे किसी राज्य का राज्यपाल नियक्त कर दिया जाता है, इससे दो फायदे होते है- एक तो पार्टी का एक नेता संतुष्ट हो जता हो और दूसरा फायदा यह है की अगर राज्य में विरोधी दल की सरकार है तो उसकी खिंच तान करणे के लिए इस पद का उपयाग कर लेतें है और ये परम्परा सी बन गयी है की राज्यपाल सताधारी दल का राजनेता ही होगा. कुल मिलाकर ये पद केन्द्रीय राजनीति का राज्यों पर नियंत्रण रखने का एक साधन हो गया है. झारखण्ड और बिहार के राज्यपालों का हाल पिछले दिनों देख ही चुके है, जब किसी भी राज्य ने कोई राजनीतिक संकट आता है तो राज्यपाल कि भूमिका महत्वपुएँ हो जाता है मगर दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि जब भी ऐसी स्थिति आती है तो ये पद विवादों के घेरे में आ जाता है
संसदीय लोकतंत्र में केंद्र और राज्य के बीच राज्यपाल एक सेतु का काम करता है, इस पद कि उपियोगिता खासकर तब देखने को मिलाती है जब मंत्रीमंडल भंग हो जता है मगर ऐसी स्थिति में भी किसी पार्टी विशेष कि वफ़ादारी के कारण कई बार पक्षपात का आरोप लगाया जाता है. संवैधानिक पद होते हुए भी राज्यपाल को विशेष संवैधनिक अधिकार प्राप्त नहीं है, केवल शाही खर्चे का प्रतीक बनकर रह गया है. हाल के वर्षों में धरा 356 के गलत उपयोग के मामले भी सामने आ रहे है जो स्पष्ट करते है कि इस ओद के महत्व व अधिकारों को लेकर फिर से विवेचना हो. ऐसी स्थिति में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय स्वागत योग्य है, लेकिन सवाल उठता है कि वो पुख्ता वजह क्या होगी? जब तक इस पद पर राजनीतिक लोगों को आरूढ़ किया जायेगा तो निश्चित रूपसे वो अपनों पार्टी के प्रति वफादारी दिखने कि कोशिश करेंगे, अगर राज्यपाल विरोधी पक्ष का है तो वो अपने आप में एक वजह बन जाएगी. सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में बताया है कि राष्ट्रिय निति के साथ राज्यपाल के विचारों का मेल नहीं होने के कारण उसके कार्यकाल में कटौती करके हटाया जा सकता है और वो केंद्र सरकार से असहमत भी नहीं हो अथार्त केंद्र में जिस पार्टी कि सरकार हो उसे पूरी छुट है कि वो राज्यपाल को जब चाहे हटा सकती है.राज्यपाल का पद पूर्णरूप से राजनीतिक आकाओं के रहम पर निर्भर हो गया है जो कि एक स्वतंत्र संवैधानिक पद है.
6 दशक के संवैधानिक अनुभव के आधार पर साफ़ जाहिर है कि राज्यपाल के पद कि विवेचना जरूरी है, इसे एक संवैधानिक पद के रूप में स्थापित किया जाये और राजनीतिक चालबाजियों से अलग करके सवतन्त्र अभिनेता का स्थान दिया जाये जो संविधान के अनुसार राज्य और केंद्र के मध्य भूमिका निभाए.
संसदीय लोकतंत्र में केंद्र और राज्य के बीच राज्यपाल एक सेतु का काम करता है, इस पद कि उपियोगिता खासकर तब देखने को मिलाती है जब मंत्रीमंडल भंग हो जता है मगर ऐसी स्थिति में भी किसी पार्टी विशेष कि वफ़ादारी के कारण कई बार पक्षपात का आरोप लगाया जाता है. संवैधानिक पद होते हुए भी राज्यपाल को विशेष संवैधनिक अधिकार प्राप्त नहीं है, केवल शाही खर्चे का प्रतीक बनकर रह गया है. हाल के वर्षों में धरा 356 के गलत उपयोग के मामले भी सामने आ रहे है जो स्पष्ट करते है कि इस ओद के महत्व व अधिकारों को लेकर फिर से विवेचना हो. ऐसी स्थिति में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय स्वागत योग्य है, लेकिन सवाल उठता है कि वो पुख्ता वजह क्या होगी? जब तक इस पद पर राजनीतिक लोगों को आरूढ़ किया जायेगा तो निश्चित रूपसे वो अपनों पार्टी के प्रति वफादारी दिखने कि कोशिश करेंगे, अगर राज्यपाल विरोधी पक्ष का है तो वो अपने आप में एक वजह बन जाएगी. सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में बताया है कि राष्ट्रिय निति के साथ राज्यपाल के विचारों का मेल नहीं होने के कारण उसके कार्यकाल में कटौती करके हटाया जा सकता है और वो केंद्र सरकार से असहमत भी नहीं हो अथार्त केंद्र में जिस पार्टी कि सरकार हो उसे पूरी छुट है कि वो राज्यपाल को जब चाहे हटा सकती है.राज्यपाल का पद पूर्णरूप से राजनीतिक आकाओं के रहम पर निर्भर हो गया है जो कि एक स्वतंत्र संवैधानिक पद है.
6 दशक के संवैधानिक अनुभव के आधार पर साफ़ जाहिर है कि राज्यपाल के पद कि विवेचना जरूरी है, इसे एक संवैधानिक पद के रूप में स्थापित किया जाये और राजनीतिक चालबाजियों से अलग करके सवतन्त्र अभिनेता का स्थान दिया जाये जो संविधान के अनुसार राज्य और केंद्र के मध्य भूमिका निभाए.
शुक्रवार, 26 मार्च 2010
दूरदर्शी
कई दिनों से मेरे कुछ दोस्त एक धंधा शुरू किया है . उन को लोग दूरदर्शी कहते है . उनकी द्रष्टी इतनी दूर तक देख सकती है कि वो आजकल जूतों का भंडारण कर रहे है . उनका तर्क है कि एक दिन सब लोग नेताओ को सामूहिक जूता मारेंगे और उस दिन जूतों कि कमी न पड़ जाये इसलिए यह काम कर रहे है जो एक समाजसेवा भी है. प्रधानमंत्री से लेकर पंच तक के लोक नेता को जूतों से नवाज़ने के लिए विभिन्न प्रकार के जूतों की कीमत का चार्ट बनाया है .
वीआइपी मूवमेंट
वीआइपी मूवमेंट
'मूवमेंट' शब्द का शाब्दिक अर्थ 'आन्दोलन' होता है मगर हर शब्द का अर्थ काल और परिस्थिति के अनुसार बदल जाता है. यहाँ पर मेरी समझदारी के अनुसार 'मूवमेंट' शब्द का अर्थ 'हलचल' हो सकता है. इसलिए 'वीआइपी मूवमेंट " का अर्थ है कि बहुत महत्वपूर्ण आदमी कि हलचल. ये बहुत ही महत्व के आदमी वो होतें हैं जिनका कद कुर्सी के अनुसार घटता-बढ़ता रहता है. वैसे ये सजीव प्राणी होते हुए भी पॉँच साल तक कोई हलचल नहीं करते ये भी दुनिया का आठवां आश्चर्य है . यह इनका अप्राकृतिक गुण है जो प्रकृति विज्ञानं के सारे सिद्धांतों को तोड़ कर इनके शरीर में प्रवेश कर कर चूका है लेकिन सजीव प्राणी होने के नाते कभी कभी हलचल करके यह सिद्ध करना पङता है कि ये अभी जिंदा है. यह हलचल इस प्राणीजगत में प्रति पॉँच वर्षों के बाद एक विशेष परिस्थिति में होती है जो प्राकृतिक मौसम नहीं होता फिर भी इस प्राणी जगत कि पूरी प्रकृति बदल देता है.
उस मौसम को लोकतान्त्रिक विज्ञानं में 'चुनाव' कहतें है . इस चुनावी मौसम कि सुगबुगाहट शुरू होती है जिसे आप पुरे देश में और विशेषकर दिल्ली की सड़कों पर देख सकतें है.
'मूवमेंट' शब्द का शाब्दिक अर्थ 'आन्दोलन' होता है मगर हर शब्द का अर्थ काल और परिस्थिति के अनुसार बदल जाता है. यहाँ पर मेरी समझदारी के अनुसार 'मूवमेंट' शब्द का अर्थ 'हलचल' हो सकता है. इसलिए 'वीआइपी मूवमेंट " का अर्थ है कि बहुत महत्वपूर्ण आदमी कि हलचल. ये बहुत ही महत्व के आदमी वो होतें हैं जिनका कद कुर्सी के अनुसार घटता-बढ़ता रहता है. वैसे ये सजीव प्राणी होते हुए भी पॉँच साल तक कोई हलचल नहीं करते ये भी दुनिया का आठवां आश्चर्य है . यह इनका अप्राकृतिक गुण है जो प्रकृति विज्ञानं के सारे सिद्धांतों को तोड़ कर इनके शरीर में प्रवेश कर कर चूका है लेकिन सजीव प्राणी होने के नाते कभी कभी हलचल करके यह सिद्ध करना पङता है कि ये अभी जिंदा है. यह हलचल इस प्राणीजगत में प्रति पॉँच वर्षों के बाद एक विशेष परिस्थिति में होती है जो प्राकृतिक मौसम नहीं होता फिर भी इस प्राणी जगत कि पूरी प्रकृति बदल देता है.
उस मौसम को लोकतान्त्रिक विज्ञानं में 'चुनाव' कहतें है . इस चुनावी मौसम कि सुगबुगाहट शुरू होती है जिसे आप पुरे देश में और विशेषकर दिल्ली की सड़कों पर देख सकतें है.
शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009
दरमियाँ
बाजरे की फसल और
मेरे दादा की उम्र के दरमियाँ
एक सावन
दो रोटी
गोरे बालू के टीले की
छाती पर खडा
खेजडी का कंकाल था
गवाह मुजरिम और ज़ज
हर खुशी गम का हिसाब
इसकी जडो के सुखी छाल पर
छपा था
एक अनगढ़ भाषा में
बच्चपन में दोनों अनजान थे
अकाल और साहूकार से
बाजरे के पेड़ और बारिश की बूंद
दो दलाल है
उम्र के
एक को बढ़ना
दुसरे को घटना
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