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रविवार, 27 जून 2010
भूमाफियाओं का जाल
तीव्र गति में बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण जमीन को लेकर पूरे देष में मारा मारी चल रही हैै। रोजगार के अवसरों की कमी, खेती की पैदावार में गिरावट और प्राकृतिक प्रकोपों की वजह से लगातार गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ रहा है। इन पलायन करने वालों में मजदूर से लेकर छोटे व्यापारी और षिक्षित युवा वर्ग भी शामिल है। शहरों में सीमित संसाधनों की वजह से रहने के लिये जमीन का अभाव हो रहा है, ऐसी स्थिति में छोटे से लेकर बडे शहरों तक भूमाफियाओं के जाल बिछे हुए है जो अवैध रूप से रोज करोड़ों की जमीन पर कब्जा करते हैं। जमीन पर कब्जा करने वाले इन भूमाफियाओं के बड़े-बड़े गिरोह है, जिनमें वो बेरोजगार युवक भी शामिल है जिनकी आमदनी का अन्य कोई साधन नहीं होता है। ये दिन भर इसी चक्कर में धुमते रहते है कि कौन सी जमीन का मालिक कहां रहता है और उसकी स्थिति कैसी है यानी उसके स्टेटस का पूरा बायोडाटा इनकी खोज का विषय होता है। इसी के तहत ये माफिया ईज्जत और शोहरत पाते है जिसे देखकर छोटे शहरों के युवा उसी रास्ते पर चलने की ठान लेते हैं। यह तो इनका प्राथमिक व्यवसाय है उसके बाद सड़क के ठेकों से लेकर राजनीति तक के ठेके इनकी बायीं जेब में पड़े रहते है। अगर इनके कब्जे करने के तरिकों को देखा जायंे तो साफ समझ में आता है कि प्रषासन का भी उसमें हाथ हैं। नकली रजीस्ट्री और किसी भी जमीन पर रात भर में मकान खड़ा कर देता बिना प्रषासनिक मिली भगत के सम्भव ही नहीं हो सकता। कानून से बचने के भी इन्होने अनोखे तरिके निकाल रखे है, बहली बात तो ये किसी को मारते नहीं केवल आम जनता में भय फैलाये रखते है और अगर कोई गलती से मर भी जाता है तो उस अपराध को किसी दूसरे के सर पर डाल देते, जो लोग वो पहले से ही तैयार रखते है। बड़े-बडे़ भूमाफियाओं के तार राजनीतिक रूप से भी मजबूत होते है क्योंकि ये नेताओ की कमाई के साधन भी है और जनता में भंयकर रूप से भय बनाये रखते है जिनका राजनीतिक फायदा भी उठाया जाता है, इस तमाम उठापटकों में नुकसान जनता को ही मिलता है। राजनीति में पकड़ होने की वजह से सरकारी जमीन पर भी बड़े पैमाने पर कब्जा हो रहा है, धर्म के नाम पर भी सैंकडों एकड़ जमीन पर तथाकथित बाबों द्वारा कब्जा करना जारी है, इस खेल में सरकारी अधिकारीयों से लेकर राजनेताओं तक की सांझेदारी होती है। पुलिस भूमाफिया गठजोड़ तो इतना मजबूत है कि जिले में आने वाला हर अधिकारी इनसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध रखता है, जब इस गठजोड़ के बीच आपस में खिंचातानी हो जाती है तब जाकर कहीं मामला सामने आता है। हर जिले से लेकर पूरे देष में भूमाफियाओं का जाल इतना फैला हुआ है कि रोज ऐसी घटनाए सामने आ रही है मगर सरकारें फिर भी चुप है, इनके खिलाफ कानून बनाकर सजा देने के बजाय शह दीये जा रही है, अवैध धंधों से आने वाले काले धन का कोई हिसाब न तो आयकर विभाग के पास है और न ही पुलिस प्रषासन के पास। कानूनी प्रक्रिया के जटिल और खर्चीली होेने के कारण आम इंसान इस जुल्म को सहता रहता है। धन बल के आधार पर ये माफिया फिर राजनीति में आ जाते, जनता को डर दिखा कर वोट ले लेते है फिर तो पूरे पांच साल लूटने का लाइसेंस ही मिल जाता है। अगर इस बात की जांच हो कि देष के सता के गलियारों में बैठे हुये लोगों में से कितने माफिया है या माफियों से उनके तार जुड़े हुए है, तब गंभीर परिणाम देखने को मिलेंगे। आजकल इन भूमाफियाओं का निषाना जंगल और बंजर पड़ी हुई जमीन है, जंगलों पर लगातार हमले करके वहो रहने वाले आदवासीयों का जीना दुभर कर दिया है। इनके अलग अलग गुट होतें जिनका अलग अलग राजनीतिक दलों से तालुक होते है, इसी कारण कभी कभी इन गुटों के मध्य लड़ाई झगड़े भी सामने आते है जिससे एक विषेष प्रकार का भय व्याप्त माहौल बन जाता है और इन्हीं झगड़ों का बखान लम्बे समय तक करके अपनी गेंग बनाये रखते है। फिर खुद की छवी को राजनीति के सांचे में फिट करने के लिये ये समाज सेवा का ढ़ोंग रचते है क्योकि इससे एक तो आसानी से काले धन को सफदे मुद्रा में बदला जा सकता है और चुनाव जीतने में भी आसानी रहती है। ऐसे लोगों से जन सेवा की आषा नहींे करना चाहिए। अगर हमें देष के लोकतंत्र को बचाना है तो ऐसे लोगों को राजनीति में आने से रोकना होगा, चाहे वो किसी भी दल या विचाराधारा के क्यों न हो।
रविवार, 20 जून 2010
गुरु चेला संवाद-2
गुरु-- "चेला, हिन्दू-मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते।"
चेला-- "क्यों गुरुदेव?"
गुरु-- "दोनों में बड़ा अन्तर है।"
चेला-- "क्या अन्तर है?"
गुरु-- "उनकी भाषा अलग है...हमारी अलग है।"
चेला-- "क्या हिन्दी, कश्मीरी, सिन्धी, गुजराती, मराठी, मलयालम, तमिल, तेलुगु, उड़िया, बंगाली आदि भाषाएँ मुसलमान नहीं बोलते...वे सिर्फ़ उर्दू बोलते हैं?"
गुरु-- "नहीं...नहीं, भाषा का अन्तर नहीं है...धर्म का अन्तर है।"
चेला-- "मतलब दो अलग-अलग धर्मों के मानने वाले एक देश में नहीं रह सकते?"
गुरु-- "हाँ...भारतवर्ष केवल हिन्दुओं का देश है।"
चेला-- "तब तो सिखों, ईसाइयों, जैनियों, बौद्धों, पारसियों, यहूदियों को इस देश से निकाल देना चाहिए।"
गुरु-- "हाँ, निकाल देना चाहिए।"
चेला-- "तब इस देश में कौन बचेगा?"
गुरु-- "केवल हिन्दू बचेंगे...और प्रेम से रहेंगे।"
चेला-- "उसी तरह जैसे पाकिस्तान में सिर्फ़ मुसलमान बचे हैं और प्रेम से रहते हैं?"
असग़र वजाहत
चेला-- "क्यों गुरुदेव?"
गुरु-- "दोनों में बड़ा अन्तर है।"
चेला-- "क्या अन्तर है?"
गुरु-- "उनकी भाषा अलग है...हमारी अलग है।"
चेला-- "क्या हिन्दी, कश्मीरी, सिन्धी, गुजराती, मराठी, मलयालम, तमिल, तेलुगु, उड़िया, बंगाली आदि भाषाएँ मुसलमान नहीं बोलते...वे सिर्फ़ उर्दू बोलते हैं?"
गुरु-- "नहीं...नहीं, भाषा का अन्तर नहीं है...धर्म का अन्तर है।"
चेला-- "मतलब दो अलग-अलग धर्मों के मानने वाले एक देश में नहीं रह सकते?"
गुरु-- "हाँ...भारतवर्ष केवल हिन्दुओं का देश है।"
चेला-- "तब तो सिखों, ईसाइयों, जैनियों, बौद्धों, पारसियों, यहूदियों को इस देश से निकाल देना चाहिए।"
गुरु-- "हाँ, निकाल देना चाहिए।"
चेला-- "तब इस देश में कौन बचेगा?"
गुरु-- "केवल हिन्दू बचेंगे...और प्रेम से रहेंगे।"
चेला-- "उसी तरह जैसे पाकिस्तान में सिर्फ़ मुसलमान बचे हैं और प्रेम से रहते हैं?"
असग़र वजाहत
गुरुवार, 17 जून 2010
अनकहा सच
हमारे समय का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि जो सच है वो कह नहीं पातें है और जो कहते है वो सच नहीं है. नहीं कह पाने और जो कहते है उसके बिच में इतना बड़ा फासला है कि उसको समझने के लिए उन तत्वों को समझना जरूरी है जो सच पर पर्दा डाल देते है. असल में हमारे समाज में बहुत बड़ा विरोधाभाष है कि हमें नेता तो चाहिए टाई बांधने वाला और बड़ी बड़ी गाड़ियों में चलने वाला मगर हम उससे यह भी आशा करते है कि वो गरीबो और समाज के पिछड़े लोगों के बीच में आकर उनकी समस्याओं को सुने और समाधान निकाले. यह कैसे संभव है? क्यूंकि न ही तो जनता उससे खुद को जोड़ पायेगी और न ही वो नेता उनकी समस्याओं को समझ पायेगा. लोकतंत्र में इसका तीसरा विकल्प भी तलाशा गया और उस तीसरे विकल्प में है कि एक ऐसा वर्ग तैयार किया गया है जो भाषा तो नेता और जनता दोनों कि समझाता है मगर उसका चेहरा दोनों से ही मेल नहीं खता है. बिना जनता कि बहुमत के वो सता के तमाम सुख भी भोगता है और बिना एक कांटा निकाले जनता का सेवक भी बन जाता है. आप इसे दलाल भी कह सकते है . सडकों से लेकर संसद तक तमाम ठेके इसके नाम पर ही अलोट होते है और आप यह भी जानते होंगे कि देश के तमाम काम आजकल ठेकों पर चल रहे है. यह ठेकेदार विभिन्न रूप में हमारे समाज में मौजूद है , अमेरिका से लेकर नारनोल तक इसके चेले छपते लोग बैठे हुए है . हम सब इन दलालों को जानते है और चुप भी है. घर बैठ कर आराम से तमाम राजनैतिक (जिनकी कोई नैतिकता नहीं है) पार्टियों को गली भी देते रहते है और चुनाव के समय आँख बंद कर ठपा( आजकल बटन) भी लगा देतें है. कैसा समय है और कैसे कैसे लोग है कि चारों और शोर है फिर भी एक छुपी सी लगती है.
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Our Time ?
शनिवार, 12 जून 2010
गहलोत बजट: पुराने ढर्रे पर
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने 2010-11 के बजट को पेश कर फिर से अपनी पुरानी छवि दर्शा दी। यह एक ऐसा मौका था जब भाजपा आंतरिक कलह से जूझ रही थी और गहलोत लोक हितकारी बजट पेश करके बाजी मार सकते थे। मगर बजट को देखने से साफ जाहिर होता है कि इस बजट में आम आदमी को किसी प्रकार की राहत देने के बजाय बिजली पर दस पैसे प्रति यूनिट का सरचार्ज लगा दिया है। एक ओर तो किसानों को आठ घंटे भी बिजली नहीं मिलती है, ऊपर से 10 पैसे प्रति यूनिट सरचार्ज।
राज्य में लगभग 7372 गांवो पर अकाल का साया मंडरा रहा है और बजट में राहत के नाम पर किसानों को फूटी कोड़ी तक नहीं मिली है। साथ ही कृषि क्षेत्र में नए कनेक्शन के लिए करोड़ो रुपए सरकार ने पहले ही किसानों से जमा कर रखे हैं, मगर अभी तक कनेक्शन देने की कोई घोषणा नहीं की गई है। इस बजट में वैट की न्यूनतम दर भी 4 फीसदी से बढ़ाकर 5 फीसदी कर दी गई है जिसके कारण वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोतरी होगी। मंहगाई के इस दौर में वैट दर में 1 प्रतिशत की वृद्धि परोक्ष रूप से मंहगाई को बढ़ावा देने वाली है। आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार अगर यह दर लागू हो जाएगी तो 100 आम जरूरतों की वस्तुओं में वृद्धि होगी जिससे आम आदमी के जीवन पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ेगा। राज्य के 2010-11 के बजट में साफ जाहिर है कि मुख्यमंत्री ने किसानों व आम जनता के बजाय व्यापारिक वर्गों की सुध ली है उन्हे टैक्स के सरलीकरण की सुविधा के साथ-साथ टैक्स टर्नओवर 10 लाख रुपए से घटा कर पांच लाख रुपए करने जैसी छुटें प्रदान की हैं। हालांकि युवा वर्ग के लिए कुछ जिलों में स्वरोजगार प्रशिक्षण देने की घोषणा की गई है मगर लाखों युवा वसुंधरा सरकार की तरह एकमुश्त भरती का सपना देख रहे हैं, जिसका इस बजट में कोई नामोनिशान नहीं है।
एक प्रकार से देखा जाए तो यह बजट गहलोत के पिछले बजटों से मिलता जुलता ही है जब मंहगाई व बेरोजगारी का स्तर कम था। राजस्थान के एक पिछड़ा राज्य होने के नाते अगर इस बजट को देखा जाए तो एक अलग सी घोषणा दिखाई देती है, वो घोषणा है कि गुर्जरों समेत चार समुदायों के छात्रों के लिए इस बजट में 25 करोड़ रुपए का पैकेज दिया गया है। इस पैकेज के पीछे भी गुर्जर आंदोलन व राजनैतिक इच्छाओं के संकेत हैं। राज्य की अधिकांश जनता कृषि पर निर्भर है और बहुत बड़े हिस्से पर इस साल अकाल है, मगर अकाल के लिए कोई घोषण व पैकेज इस बजट में नहीं दिखाई देता है। पहले राजस्थान में एक आम धारणा बन गई थी कि जब राज्य सरकार एक पार्टी की होती है तो केन्द्र सरकार दूसरी पार्टी की होती है, अतरू राजस्थान केन्द्र से उचित फंड हासिल नहीं कर पाता है मगर 2010-11 के बजट ने इस धारणा को चकनाचूर करके रख दिया है क्योंकि राज्य व केन्द्र दोनो में ही कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकारें हैं, फिर भी बजट की स्थिति देखें तो इससे अच्छा बजट इस बार नितिश कुमार का रहा है।
राज्य में लगभग 7372 गांवो पर अकाल का साया मंडरा रहा है और बजट में राहत के नाम पर किसानों को फूटी कोड़ी तक नहीं मिली है। साथ ही कृषि क्षेत्र में नए कनेक्शन के लिए करोड़ो रुपए सरकार ने पहले ही किसानों से जमा कर रखे हैं, मगर अभी तक कनेक्शन देने की कोई घोषणा नहीं की गई है। इस बजट में वैट की न्यूनतम दर भी 4 फीसदी से बढ़ाकर 5 फीसदी कर दी गई है जिसके कारण वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोतरी होगी। मंहगाई के इस दौर में वैट दर में 1 प्रतिशत की वृद्धि परोक्ष रूप से मंहगाई को बढ़ावा देने वाली है। आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार अगर यह दर लागू हो जाएगी तो 100 आम जरूरतों की वस्तुओं में वृद्धि होगी जिससे आम आदमी के जीवन पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ेगा। राज्य के 2010-11 के बजट में साफ जाहिर है कि मुख्यमंत्री ने किसानों व आम जनता के बजाय व्यापारिक वर्गों की सुध ली है उन्हे टैक्स के सरलीकरण की सुविधा के साथ-साथ टैक्स टर्नओवर 10 लाख रुपए से घटा कर पांच लाख रुपए करने जैसी छुटें प्रदान की हैं। हालांकि युवा वर्ग के लिए कुछ जिलों में स्वरोजगार प्रशिक्षण देने की घोषणा की गई है मगर लाखों युवा वसुंधरा सरकार की तरह एकमुश्त भरती का सपना देख रहे हैं, जिसका इस बजट में कोई नामोनिशान नहीं है।
एक प्रकार से देखा जाए तो यह बजट गहलोत के पिछले बजटों से मिलता जुलता ही है जब मंहगाई व बेरोजगारी का स्तर कम था। राजस्थान के एक पिछड़ा राज्य होने के नाते अगर इस बजट को देखा जाए तो एक अलग सी घोषणा दिखाई देती है, वो घोषणा है कि गुर्जरों समेत चार समुदायों के छात्रों के लिए इस बजट में 25 करोड़ रुपए का पैकेज दिया गया है। इस पैकेज के पीछे भी गुर्जर आंदोलन व राजनैतिक इच्छाओं के संकेत हैं। राज्य की अधिकांश जनता कृषि पर निर्भर है और बहुत बड़े हिस्से पर इस साल अकाल है, मगर अकाल के लिए कोई घोषण व पैकेज इस बजट में नहीं दिखाई देता है। पहले राजस्थान में एक आम धारणा बन गई थी कि जब राज्य सरकार एक पार्टी की होती है तो केन्द्र सरकार दूसरी पार्टी की होती है, अतरू राजस्थान केन्द्र से उचित फंड हासिल नहीं कर पाता है मगर 2010-11 के बजट ने इस धारणा को चकनाचूर करके रख दिया है क्योंकि राज्य व केन्द्र दोनो में ही कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकारें हैं, फिर भी बजट की स्थिति देखें तो इससे अच्छा बजट इस बार नितिश कुमार का रहा है।
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Rajasthan Bajat 2010-11
बुधवार, 9 जून 2010
दक्षिण एषिया जल विवाद- सियासी चाल
एषिया महाद्वीप में दक्षिण एषिया की राजनीतिक स्थिरता एक महत्वपूर्ण अध्याय है क्योंकि यह क्षे़त्र प्राकृतिक व राजनैतिक रूप से सम्पूर्ण एषिया की धूरी है। ऐसी स्थिति में दक्षिण एषिया की हर राजीतिक हलचल का प्रभाव एषिया और विष्व राजनैतिक धरातल पर नजर आता है। इस क्षेत्र में पानी विवाद एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जो समय समय पर उभरकर सामने आया है। एक ओर बढ़ती जनसंख्या और घटते प्राकृतिक संसाधन है, तो दूसरी ओर उचित जल प्रबंध नीति का अभाव है। इस पूरे परिदृष्य में पानी विवाद अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तरों पर अलग अलग संघर्षों का रूप लेता दिखाई देता है।
फिलहाल दक्षिण एषिया के सात देषों में से तीन के साथ भारत का पानी का विवाद है जो कभी शांत हो जाता है तो कभी युद्ध जैसी स्थिति तक पहुंच जाता है। भारत की आजादी के बाद से ही पाकिस्तान व नेपाल के साथ पानी के बंटवारे को लेकर नोक झोक होती रहती है। जब बंग्लादेष का उद्भव हुआ उसके साथ ही गंगा और ब्रह्मपुत्र के पानी के बंटवारे को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया।
अगर भारत पाकिस्तान के पानी विवाद पर नजर डालें तो 1960 में दोनों देषों के सिंध ुजल समझौता हुआ था जिसके तहत रावी, सतलज और व्यास भारत के हिस्से में आयी थी और सिंघु, झेलम और चिनाब पाकिस्तान के हिस्से में आयी थी। इस बंटवारे के बाद भी विवाद का हल नहीं हुआ और सिंघु नदी पर बने आयोग ने अभी तक 118 दौरे और 103 मीटिंगें हो चुकी है, विष्व बैंक से भी मध्यस्थता करवा ली लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला क्योंकि न तो दोनों सरकारें चाहती की इसका कोई हल निकले, जब पाकिस्तान में कोर्ठ आंतरिक अषांति होती है तब पहले तो कष्मीर के मुद्दे पर जनता को गुमराह किया जाता था लेकिन कष्मीर के मुद्दे से पाकिस्तान की जनता तंग आ गई इसलिये अब पानी के सवाल पर जनता को भटकाने की पाकिस्तान सरकार का नया ऐजेंडा है, यही हाल भारत का है। इन दोनों के बीच तीसरा अभिनेता अमेरिका जो कभी नहीं चाहता कि भारत पाक विवाद सुलझे क्योंकि दक्षिण एषिया में यह विवाद अमेरिका की विदेष नीति की कूटनीतिक सफलता के लिये अबूझ हथियार है। इसलिए वो विष्व बैंक के माध्यम से पानी विवाद को इधर उधर भटकाता रहता है। लेकिन अमेरिका प्राकृतिक संसाधनों को हड़पने की मुहिम में अब पानी पर भी नजर गड़ाए हुए है।
दक्षिण एषिया में पानी को लेकर विवाद इसलिए भी है कि यहां कि अधिकांष अर्थव्यवस्थायें कृषि पर निर्भरता रखती है। जिसके कारण नदीयों का पानी सिचाई का एक बहुत बड़ा साधन है। निजीकरण की इस दौड़ में प्राकृतिक संसाधनों का बेरहमी से दोहन हो रहा है और ऐसी स्थिति में राज्यों का आपस में लड़ना कोई नई बात नही है मगर भारत का पानी विवाद न केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर है बल्कि आंतरिक स्तर पर भी पानी विवाद एक बहुत बड़ी समस्या है, राजस्थान, हरियाणा, मध्यप्रदेष आदी राज्यों में भी पानी का विवाद एक बड़ा विवाद है जिसके बारे में सरकारीया आयोग ने भी सिफारिष की थी कि राज्यों के पानी विवाद को निपटाने के लिये केन्द्र को न्यायधिकरण स्थापित करना चाहिए मगर राजनीतिक स्वार्थों के चलते केन्द्र द्वारा ईमानदारी से किसी विवाद को निपटाने की जगह उसको रफा दफा कर दिया जाता है।
पिछले दिनों खबर आयी थी कि चीन ब्रह्मपुत्र को मोड़ने की कोषिष कर रहा जो भारत के लिए खतरनाक होगी और चीन ऐसा कर भी सकता है जो पिछले अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है। भारत पाकिस्तान का विवाद पानी की कमी के कारण होता है जबकि भारत नेपाल पानी विवाद इसके उल्टा है क्योंकि हर साल भारत नेपाल पर यही आरोप लगाता आ रहा है कि नेपाल के पानी छोड़ने से बाढ़ आ गयी और बिहार का बहुत बड़ा हिस्सा तबाह हो जाता है। दरअसल इस बाढ़ का जिम्मेदार नेपाल नहीं भारत खुद है क्योंकि कोसी नदी पर बने बांध के रखरखाव की जिम्मेदारी भारत की है। मगर दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि आजादी के 63 साल बाद भी एक तरफ हर साल बाढ़ आती है और एक तरफ अकाल के कारण लोग मर रहे है, इन सब के पीछे एक बड़ा कारण यही है कि उचित जल प्रबंध नीति हम अभी तक विकसित नहीं कर पाये है। नेपाल की तरफ से यह बात बार बार उठाई जाती है कि 1950 की भारत नेपाल संधी पर पुनर्विचार किया जाये, अगर सही मायने में देखा जाये तो समय के साथ परिस्थितियां व जरूरतें बदल जाती है और ऐसी स्थिति में संधी पर पुनर्विचार में कोई हर्ज नहीं है। हाल ही में भिखनाठोरी में नेपाल द्वारा पानी रोकने के मामले ने भारत को सोचने पर मजबूर कर दिया है, भिखनाठोरी नेपाल सीमा पर एक गांव है जो पास से ही पानी का उपयोग करता था जो नेपाल की सीमा में आता है, बस नेपाल ने पानी बंद कर यिा।1990 के दषक में महाकाली नदी को लेकर विवाद गहराया था जो अंतर्राष्ट्रीय दवाब के बाद सुलझ पाया था। वर्तमान प्रासंगिकता को देखते हुए संधी पर बातचीत करके समस्या का हल निकाल लेना चाहिए।
भारत और बंग्लादेष के बीच पानी का विवाद गंगा नदी को लेकर ज्यादा है जिसके पीछे बंग्लादेष का तर्क होता है कि उसे उचित पानी नहीं मिल पाता है और जो मिलता है वो भी दुषित। फरक्का बैराज को लेकर पहले पाकिस्तान के साथ भारत का विवाद था और जब बंग्लादेष का उदय हुआ तब से भी उसी रूप में बना हुआ है। बंग्लादेष की अर्थव्यवस्था भी कृषि पर निर्भर और सूखे व अन्य कारणेंा से पानी में कटोती होती है तो बहुत हद तक बंग्लादेष की अर्थव्यवस्था गडा़बड़ा जाती है, इस मामले को लेकर बंग्लादेष संयुक्त राष्ट्र संघ व विष्व बैंक की भी मध्यस्थता करवाई है लेकिन जब तक दोनों पक्ष कोई एक राय नहीं बना सकते तब तक हल मुष्किल है।
इस समय दक्षिण एषिया दुनिया का सबसे अस्थिर क्षेत्र माना जाता है क्योंकि ये क्षेत्र भूराजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है इसलिय एक तरफ अमेरिका नजर गड़ाये हुए है और दूसरी तरफ चीन भी पाकिस्तान से नजदीकीयां बढ़ाकर खुद को दक्षिण एषिया की राजनीति में शामिल करना चाहता है। अब स्थिति यह कि पानी को लेकर पाकिस्तान बढ़ा विवाद खड़ा करने की फिराक में है क्योंकि एक तो कष्मीर का मामला अब दम नही पकड़ने वाला है और दूसरा अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के सामने खुद को साफ दिखाने के लिये इसका सहारा ले सकता है। अतः भारत को भी सचेत रहना चाहिए लेकिन 2002 में बनी जल नीति में पानी के मालिकाना हक नीजि कम्पनियों को दे दिया जो नवउदारवादी नीतियों के तहत जल, जमीन और जंगल छिनने के एजेंडे की बड़ी सफलता है। दक्षिण एषिया का भविष्य पानी पर टिका हुआ है जिससे लगातार खिलवाड़ किया जा रहा है ऐसी स्थ्तिि में सार्क जैसे संघठनों को इन विवादों को सुलझाने में पहल करनी चाहिये क्योंकि बाहर का कोई यहां शांती चाहता ही नहीं है, चाहे अमेरिका हो या चीन।
फिलहाल दक्षिण एषिया के सात देषों में से तीन के साथ भारत का पानी का विवाद है जो कभी शांत हो जाता है तो कभी युद्ध जैसी स्थिति तक पहुंच जाता है। भारत की आजादी के बाद से ही पाकिस्तान व नेपाल के साथ पानी के बंटवारे को लेकर नोक झोक होती रहती है। जब बंग्लादेष का उद्भव हुआ उसके साथ ही गंगा और ब्रह्मपुत्र के पानी के बंटवारे को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया।
अगर भारत पाकिस्तान के पानी विवाद पर नजर डालें तो 1960 में दोनों देषों के सिंध ुजल समझौता हुआ था जिसके तहत रावी, सतलज और व्यास भारत के हिस्से में आयी थी और सिंघु, झेलम और चिनाब पाकिस्तान के हिस्से में आयी थी। इस बंटवारे के बाद भी विवाद का हल नहीं हुआ और सिंघु नदी पर बने आयोग ने अभी तक 118 दौरे और 103 मीटिंगें हो चुकी है, विष्व बैंक से भी मध्यस्थता करवा ली लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला क्योंकि न तो दोनों सरकारें चाहती की इसका कोई हल निकले, जब पाकिस्तान में कोर्ठ आंतरिक अषांति होती है तब पहले तो कष्मीर के मुद्दे पर जनता को गुमराह किया जाता था लेकिन कष्मीर के मुद्दे से पाकिस्तान की जनता तंग आ गई इसलिये अब पानी के सवाल पर जनता को भटकाने की पाकिस्तान सरकार का नया ऐजेंडा है, यही हाल भारत का है। इन दोनों के बीच तीसरा अभिनेता अमेरिका जो कभी नहीं चाहता कि भारत पाक विवाद सुलझे क्योंकि दक्षिण एषिया में यह विवाद अमेरिका की विदेष नीति की कूटनीतिक सफलता के लिये अबूझ हथियार है। इसलिए वो विष्व बैंक के माध्यम से पानी विवाद को इधर उधर भटकाता रहता है। लेकिन अमेरिका प्राकृतिक संसाधनों को हड़पने की मुहिम में अब पानी पर भी नजर गड़ाए हुए है।
दक्षिण एषिया में पानी को लेकर विवाद इसलिए भी है कि यहां कि अधिकांष अर्थव्यवस्थायें कृषि पर निर्भरता रखती है। जिसके कारण नदीयों का पानी सिचाई का एक बहुत बड़ा साधन है। निजीकरण की इस दौड़ में प्राकृतिक संसाधनों का बेरहमी से दोहन हो रहा है और ऐसी स्थिति में राज्यों का आपस में लड़ना कोई नई बात नही है मगर भारत का पानी विवाद न केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर है बल्कि आंतरिक स्तर पर भी पानी विवाद एक बहुत बड़ी समस्या है, राजस्थान, हरियाणा, मध्यप्रदेष आदी राज्यों में भी पानी का विवाद एक बड़ा विवाद है जिसके बारे में सरकारीया आयोग ने भी सिफारिष की थी कि राज्यों के पानी विवाद को निपटाने के लिये केन्द्र को न्यायधिकरण स्थापित करना चाहिए मगर राजनीतिक स्वार्थों के चलते केन्द्र द्वारा ईमानदारी से किसी विवाद को निपटाने की जगह उसको रफा दफा कर दिया जाता है।
पिछले दिनों खबर आयी थी कि चीन ब्रह्मपुत्र को मोड़ने की कोषिष कर रहा जो भारत के लिए खतरनाक होगी और चीन ऐसा कर भी सकता है जो पिछले अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है। भारत पाकिस्तान का विवाद पानी की कमी के कारण होता है जबकि भारत नेपाल पानी विवाद इसके उल्टा है क्योंकि हर साल भारत नेपाल पर यही आरोप लगाता आ रहा है कि नेपाल के पानी छोड़ने से बाढ़ आ गयी और बिहार का बहुत बड़ा हिस्सा तबाह हो जाता है। दरअसल इस बाढ़ का जिम्मेदार नेपाल नहीं भारत खुद है क्योंकि कोसी नदी पर बने बांध के रखरखाव की जिम्मेदारी भारत की है। मगर दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि आजादी के 63 साल बाद भी एक तरफ हर साल बाढ़ आती है और एक तरफ अकाल के कारण लोग मर रहे है, इन सब के पीछे एक बड़ा कारण यही है कि उचित जल प्रबंध नीति हम अभी तक विकसित नहीं कर पाये है। नेपाल की तरफ से यह बात बार बार उठाई जाती है कि 1950 की भारत नेपाल संधी पर पुनर्विचार किया जाये, अगर सही मायने में देखा जाये तो समय के साथ परिस्थितियां व जरूरतें बदल जाती है और ऐसी स्थिति में संधी पर पुनर्विचार में कोई हर्ज नहीं है। हाल ही में भिखनाठोरी में नेपाल द्वारा पानी रोकने के मामले ने भारत को सोचने पर मजबूर कर दिया है, भिखनाठोरी नेपाल सीमा पर एक गांव है जो पास से ही पानी का उपयोग करता था जो नेपाल की सीमा में आता है, बस नेपाल ने पानी बंद कर यिा।1990 के दषक में महाकाली नदी को लेकर विवाद गहराया था जो अंतर्राष्ट्रीय दवाब के बाद सुलझ पाया था। वर्तमान प्रासंगिकता को देखते हुए संधी पर बातचीत करके समस्या का हल निकाल लेना चाहिए।
भारत और बंग्लादेष के बीच पानी का विवाद गंगा नदी को लेकर ज्यादा है जिसके पीछे बंग्लादेष का तर्क होता है कि उसे उचित पानी नहीं मिल पाता है और जो मिलता है वो भी दुषित। फरक्का बैराज को लेकर पहले पाकिस्तान के साथ भारत का विवाद था और जब बंग्लादेष का उदय हुआ तब से भी उसी रूप में बना हुआ है। बंग्लादेष की अर्थव्यवस्था भी कृषि पर निर्भर और सूखे व अन्य कारणेंा से पानी में कटोती होती है तो बहुत हद तक बंग्लादेष की अर्थव्यवस्था गडा़बड़ा जाती है, इस मामले को लेकर बंग्लादेष संयुक्त राष्ट्र संघ व विष्व बैंक की भी मध्यस्थता करवाई है लेकिन जब तक दोनों पक्ष कोई एक राय नहीं बना सकते तब तक हल मुष्किल है।
इस समय दक्षिण एषिया दुनिया का सबसे अस्थिर क्षेत्र माना जाता है क्योंकि ये क्षेत्र भूराजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है इसलिय एक तरफ अमेरिका नजर गड़ाये हुए है और दूसरी तरफ चीन भी पाकिस्तान से नजदीकीयां बढ़ाकर खुद को दक्षिण एषिया की राजनीति में शामिल करना चाहता है। अब स्थिति यह कि पानी को लेकर पाकिस्तान बढ़ा विवाद खड़ा करने की फिराक में है क्योंकि एक तो कष्मीर का मामला अब दम नही पकड़ने वाला है और दूसरा अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के सामने खुद को साफ दिखाने के लिये इसका सहारा ले सकता है। अतः भारत को भी सचेत रहना चाहिए लेकिन 2002 में बनी जल नीति में पानी के मालिकाना हक नीजि कम्पनियों को दे दिया जो नवउदारवादी नीतियों के तहत जल, जमीन और जंगल छिनने के एजेंडे की बड़ी सफलता है। दक्षिण एषिया का भविष्य पानी पर टिका हुआ है जिससे लगातार खिलवाड़ किया जा रहा है ऐसी स्थ्तिि में सार्क जैसे संघठनों को इन विवादों को सुलझाने में पहल करनी चाहिये क्योंकि बाहर का कोई यहां शांती चाहता ही नहीं है, चाहे अमेरिका हो या चीन।
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water dispute in South Asia
सोमवार, 7 जून 2010
शिक्षा का अधिकार: चंद सवाल
जब देश का संविधान बनाया जा रहा था तो डाॅ. भीमराव अम्बेडकर से संविधान सभा के एक सदस्य ने अनुरोध किया था कि प्रस्तावित अनुच्छेद 45 में 14 साल की उम्र तक के बच्चों को मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा के वादे को घटाकर उम्र 11 साल कर देनी चाहिए क्योंकि भारत एक गरीब देश है और आधारभूत सुविधाओं का अभाव है लेकिन अम्बेडकर ने इस तर्क को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि हमें उम्र घटाने के बजाय गरीबी को मिटाना चाहिये। मगर दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि आज आजादी के 62 सालों बाद भी भारतीय समाज में शिक्षा और गरीबी के स्तर में कोई खास बदलाव नहीं आया। भारतीय समाज में शिक्षा के निम्न स्तर के दो कारण है। एक तो भारतीय शिक्षा पद्धति पर जबरन वैश्वीकरण का लिबास डाला गया और दूसरा शासक वर्गों ने शिक्षा पद्धति को जिस तरह से अंतर्राष्ट्रीय स्तर देने के कोशिश की उसके लिये भारतीय समाजीक ढ़ांचा आधारभूत तैयार नहीं था।
जब 2002 में 86 वें संविधान संशोधन द्वारा शिक्षा के अधिकार को अनुच्छेद 21 क में जोड़ा गया तो बहुत से सवाल थे जो इस अधिनियम को कठघरे में खड़ा करते है। अगर कुछ समय के लिये मान लिया जाये कि सरकार ने बहुत अच्छा कानून बनाया है जिसमें 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिये मुफ्त शिक्षा की बात कही गयी है तो उस उन्नीकृष्णन फैसले का क्या होगाा ? जिसमें कहा गया है कि 6 वर्ष तक की उम्र के हर बच्चे को संतुलित पोषाहार, स्वास्थ्य पोषणहार, स्वास्थ्य देखभाल और प्राथमिक शिक्षा का अधिकार था। सवाल सिर्फ मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा तक ही सीमित नहीं है, मुख्य सवाल है शिक्षा में गुणात्मक परिवर्तन का, क्योंकि आज बेरोजगारी की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया मगर रोजगार के अवसरों के सृजन की तरफ सरकार का कोई ध्यान नहीं है। गावों में कृषि की बिगड़ती हालत और सता की उदासीनतों के कारण लोगों को मजबूरी में शहरों की ओर पलायन करना पड़ रहा है लेकिन सरकार के पास न गावों की स्थिति को बेहतर बनाने की ठोस योजना है और न ही शहर में उचित सुविधा व रोजगार के अवसर। ऐसी स्थिति में गावों में बच्चे माता-पिता के साथ खेत के काम में हाथ बंटाते है और शहर में बाल मजदूरी के जाल में घर का खर्चा चलाने में हाथ बंटाते है। जब तक उनके माता-पिता के रोजगार व सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित नहीं किया जाता तब तक उनके पढ़ने का सवाल ही नहीं उठता। ऐसी शिक्षा से देश के विकास में कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं हो सकता है क्योंकि बच्चा जब मानसिक रूप से स्वतंत्र नहीं हो, तब तक पढ़ने में मन कैसे लग सकता है ?
अब सरकार यह दिखाने की कोशिश कर रही है कि वह शिक्षा को लेकर बहुत ही चिंतित है लेकिन अगर शिक्षा पर किये गये खर्चे को देखा जाये तो सच्चाई साफ हो जाती है। शिक्षा के खर्च का मुल्यांकन करें तो 1992 के नवउदारवादी नीतियां अपनाने के कारण शिक्षा पर खर्च लगातार घटाया जा रहा है। 2001 में जी. डी. पी. का 3.19 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया गया और 2007 में यही खर्च घटकर 2.47 प्रतिशत रह गया है। दुनियां में शिक्षा पर खर्च करने वाले देशों में भारत का स्थान 115 वां है। एक तरफ दुनियां के विकसित देश खर्चा बढ़ा रहे है, वहीं भारत शिक्षा के खर्च को घटा रहा है। तथ्य यह है कि किसी भी देश के लिये शिक्षा से अच्छा अन्य कोई निवेश का रस्ता नहीं होता है। इस विरोधोभास की स्थिति में कपिल सिब्बल साहब गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रहे हैं कि शिक्षा का अधिकार विधेयक देश की शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परीवर्तन कर देगा मगर सच्चाई यह है कि सरकार जनता को गुमराह कर रही है। क्योंकि अभी तो देश की शिक्षा व्यवस्था का आधारभूत ढ़ांचा ही सही ढ़ग से विकसित नहीं कर पाये है। आंख खोलकर देखा जाये तो ग्रामीण भारत के बहुत सक ऐसे गांव मिल जायेंगे, जहां पर सरकारी कागजों में तो स्कूल है और अघ्यापक भी तनख्वाह उठातें है मगर इमारत के नाम पर बच्चे पेड़ के निचे बैठकर पढ़ते है। कहीं पर अध्यापक नही ं है तो कही पर 100 बच्चों पर एक अध्यापक है। ऐसी स्थिति में जनता का सरकारी स्कूलों से विश्वास ही उठ गया है। एक तरफ सरकारी स्कूलों की हालत दिन प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है और वही दूसरी तरफ सरकार शिक्षा के क्षेत्र में नीजिकरण को बढ़ावा देती जा रही है। नीजिकरण की इस अंधाध्ुंाध दौड़ में गली-गली में प्राइवेट स्कूल खुल गये है, जिनकी आसमान छूती फीस गरीब आदमी नही सहन कर पाता और सरकारी स्कूलों की बिगड़ती हालत के कारण मजबूरी में बच्चों को प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना पड़ता है, जहां पर पढ़ाई कम कागजी कार्यवाही ज्यादा होती है। जिस देश में 70 प्रतिशत लोग 20 रूपये प्रतिदिन की आय पर गुजारा करते है, वहां पर प्राइवेट स्कूल में कोई कैसे अपने बच्चों को पढ़ा पायेगा।
शिक्षा का मतलब सिर्फ अक्षर ज्ञान नही होता, शिक्षा का मतलब होता है मनुष्य का शारीरिक, मानसिक और सर्वांगिण विकास मगर हमारे हुक्मरानों को यह बात समझ में नही आती शायद। अब अगर उच्च शिक्षा की बात करें तो ऐसी ही स्थिति है, न पर्याप्त शोध के साधन है और न ही अवसर। पिछले दिनों 144 फर्जी विश्वविधालयों के मामले ने फिर से सरकार को चुनौती दी है कि शिक्षा के नाम पर इस देश में बहुत बड़ी दलाली चल रही है जो न केवल उच्च शिक्षा में बल्कि प्राथमिक शिक्षा के स्तर स्थिति ओर भी भयानक है। सरकार विदेशी विश्वविधालयों को भी भारत में लाने की फिराक में है मगर जब देश के विश्वविधालयों की विश्वनीयता पर सवाल खड़ा होता है तब विदेशी विश्वविधालयों पर कैसे विश्वास किया जायेगा, आखिर भारत में केम्ब्रीज व आॅक्सफोर्ड तो अपनी शाखाएं खालने नही जा रहे है।
वैसे भी समान व स्तरीय शिक्षा उपलब्ध कराने का दायीत्व सरकार का है लेकिन भारतीय लोकतंत्र में यह अधिकार भी 63 साल बाद दिया गया और उसमें भी शिक्षा की गुणवता के बारे में कोई ख्याल नहीं किया गया है। खैर, जनता को दे दिया- एक ओर लोलीपोप।
जब 2002 में 86 वें संविधान संशोधन द्वारा शिक्षा के अधिकार को अनुच्छेद 21 क में जोड़ा गया तो बहुत से सवाल थे जो इस अधिनियम को कठघरे में खड़ा करते है। अगर कुछ समय के लिये मान लिया जाये कि सरकार ने बहुत अच्छा कानून बनाया है जिसमें 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिये मुफ्त शिक्षा की बात कही गयी है तो उस उन्नीकृष्णन फैसले का क्या होगाा ? जिसमें कहा गया है कि 6 वर्ष तक की उम्र के हर बच्चे को संतुलित पोषाहार, स्वास्थ्य पोषणहार, स्वास्थ्य देखभाल और प्राथमिक शिक्षा का अधिकार था। सवाल सिर्फ मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा तक ही सीमित नहीं है, मुख्य सवाल है शिक्षा में गुणात्मक परिवर्तन का, क्योंकि आज बेरोजगारी की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया मगर रोजगार के अवसरों के सृजन की तरफ सरकार का कोई ध्यान नहीं है। गावों में कृषि की बिगड़ती हालत और सता की उदासीनतों के कारण लोगों को मजबूरी में शहरों की ओर पलायन करना पड़ रहा है लेकिन सरकार के पास न गावों की स्थिति को बेहतर बनाने की ठोस योजना है और न ही शहर में उचित सुविधा व रोजगार के अवसर। ऐसी स्थिति में गावों में बच्चे माता-पिता के साथ खेत के काम में हाथ बंटाते है और शहर में बाल मजदूरी के जाल में घर का खर्चा चलाने में हाथ बंटाते है। जब तक उनके माता-पिता के रोजगार व सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित नहीं किया जाता तब तक उनके पढ़ने का सवाल ही नहीं उठता। ऐसी शिक्षा से देश के विकास में कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं हो सकता है क्योंकि बच्चा जब मानसिक रूप से स्वतंत्र नहीं हो, तब तक पढ़ने में मन कैसे लग सकता है ?
अब सरकार यह दिखाने की कोशिश कर रही है कि वह शिक्षा को लेकर बहुत ही चिंतित है लेकिन अगर शिक्षा पर किये गये खर्चे को देखा जाये तो सच्चाई साफ हो जाती है। शिक्षा के खर्च का मुल्यांकन करें तो 1992 के नवउदारवादी नीतियां अपनाने के कारण शिक्षा पर खर्च लगातार घटाया जा रहा है। 2001 में जी. डी. पी. का 3.19 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया गया और 2007 में यही खर्च घटकर 2.47 प्रतिशत रह गया है। दुनियां में शिक्षा पर खर्च करने वाले देशों में भारत का स्थान 115 वां है। एक तरफ दुनियां के विकसित देश खर्चा बढ़ा रहे है, वहीं भारत शिक्षा के खर्च को घटा रहा है। तथ्य यह है कि किसी भी देश के लिये शिक्षा से अच्छा अन्य कोई निवेश का रस्ता नहीं होता है। इस विरोधोभास की स्थिति में कपिल सिब्बल साहब गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रहे हैं कि शिक्षा का अधिकार विधेयक देश की शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परीवर्तन कर देगा मगर सच्चाई यह है कि सरकार जनता को गुमराह कर रही है। क्योंकि अभी तो देश की शिक्षा व्यवस्था का आधारभूत ढ़ांचा ही सही ढ़ग से विकसित नहीं कर पाये है। आंख खोलकर देखा जाये तो ग्रामीण भारत के बहुत सक ऐसे गांव मिल जायेंगे, जहां पर सरकारी कागजों में तो स्कूल है और अघ्यापक भी तनख्वाह उठातें है मगर इमारत के नाम पर बच्चे पेड़ के निचे बैठकर पढ़ते है। कहीं पर अध्यापक नही ं है तो कही पर 100 बच्चों पर एक अध्यापक है। ऐसी स्थिति में जनता का सरकारी स्कूलों से विश्वास ही उठ गया है। एक तरफ सरकारी स्कूलों की हालत दिन प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है और वही दूसरी तरफ सरकार शिक्षा के क्षेत्र में नीजिकरण को बढ़ावा देती जा रही है। नीजिकरण की इस अंधाध्ुंाध दौड़ में गली-गली में प्राइवेट स्कूल खुल गये है, जिनकी आसमान छूती फीस गरीब आदमी नही सहन कर पाता और सरकारी स्कूलों की बिगड़ती हालत के कारण मजबूरी में बच्चों को प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना पड़ता है, जहां पर पढ़ाई कम कागजी कार्यवाही ज्यादा होती है। जिस देश में 70 प्रतिशत लोग 20 रूपये प्रतिदिन की आय पर गुजारा करते है, वहां पर प्राइवेट स्कूल में कोई कैसे अपने बच्चों को पढ़ा पायेगा।
शिक्षा का मतलब सिर्फ अक्षर ज्ञान नही होता, शिक्षा का मतलब होता है मनुष्य का शारीरिक, मानसिक और सर्वांगिण विकास मगर हमारे हुक्मरानों को यह बात समझ में नही आती शायद। अब अगर उच्च शिक्षा की बात करें तो ऐसी ही स्थिति है, न पर्याप्त शोध के साधन है और न ही अवसर। पिछले दिनों 144 फर्जी विश्वविधालयों के मामले ने फिर से सरकार को चुनौती दी है कि शिक्षा के नाम पर इस देश में बहुत बड़ी दलाली चल रही है जो न केवल उच्च शिक्षा में बल्कि प्राथमिक शिक्षा के स्तर स्थिति ओर भी भयानक है। सरकार विदेशी विश्वविधालयों को भी भारत में लाने की फिराक में है मगर जब देश के विश्वविधालयों की विश्वनीयता पर सवाल खड़ा होता है तब विदेशी विश्वविधालयों पर कैसे विश्वास किया जायेगा, आखिर भारत में केम्ब्रीज व आॅक्सफोर्ड तो अपनी शाखाएं खालने नही जा रहे है।
वैसे भी समान व स्तरीय शिक्षा उपलब्ध कराने का दायीत्व सरकार का है लेकिन भारतीय लोकतंत्र में यह अधिकार भी 63 साल बाद दिया गया और उसमें भी शिक्षा की गुणवता के बारे में कोई ख्याल नहीं किया गया है। खैर, जनता को दे दिया- एक ओर लोलीपोप।
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शनिवार, 5 जून 2010
मंटो को खत
सुबह उठते ही मुझे याद आया कि आज तो 11 मई है, उर्दू के महान कथाकार सहादत हसन मंटो का जन्मदिन है। मंटो का ख्याल आते ही ‘टोबा टेक सिंह’ से लेकर ‘ठंडा गोस्त’ तक यानी पूरा मंटो मेरे सामने खड़ा हो गया, बिल्कुल होषोहवास में। मुझे तो भरोसा ही नही हो रहा था कि मंटो जैसा बिंदास आदमी बिना पीये आज ख्याल में कैसे आ गया? इस सवाल का जवाब मैंने खुद ही तलाषा क्योंकि तब तक मंटो मेरे ख्याल से जा चुका था, शायद कड़वी शरबत पीने। उर्दू का सर्वाधिक विवादित और चर्चित लेखक मंटो कि पहचान थी कि उसके साहित्य में कुछ भी बनावटी नहीं था, जो समाज में देखा उसे बेझिझक और बिना डरे हुए सपाट तरिके से बयां किया। समाज का झुठा गिलाफ उधेड़ने के बदते में उसे वो सब भी सहन करना पड़ा जो शायद लीक से हटकर न लिखता तो नहींे सहना पड़ता और वो ही उसकी पहचान है। वो वक्त भी ऐसा वक्त था जब हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दो अलग अलग मुल्क बन रहे थे, बेहिसाब लोग मारे जा रहे थे ओर मंटो जैसी बैचेन रूंह अमन के रास्ते ढूंढ़ रही थी। न इधर कोई हुकूमत थी न उधर, अब आप ही बताये कि ऐसा आदमी जो सोचने का काम दिमाग से नहीं दिल से करता हो वो इन परिस्थितियों में होष में कैसे रह सकता है? लेकिन वो ही अकेला होष में था बाकि सब होष खो चुके थे, मर रहे थे और मार रहे थे- इधर से भी, उधर से भी। मंटो ने जिस भी विषय को उठाया, उसकी गहराई तक जाकर, बड़ी ही बारकी से हर पहलू को उकेरा। कभी कभी लगता है कि मंटो असल में एक ऐसा कहानीकार था जो कहानी के हर पात्र के दिल और दिमाग को पकड़ता था। उसके साहित्य में खुबसुरत शब्दों की कमी थी लेकिन मानवीय मनोविज्ञान से वो ऐसा परिदृष्य गढ़ देता है कि पाठक को मानसिक रूप से झकझोर देती है। मंटोे के साहत्यि की विषय, शैली, प्रवृति और विविधता उसे दक्षिण एषिया का प्रतिनिधि कथाकार बना दिया, ‘टोबा टेक ंिसंह’ तो विष्व कर कालजयी रचनाओं में शामिल है। अष्लीलता के आरोप में मंटो पर कई मुकदम भी चले मगर पाठक मंटो का कायल था और आज भी है। जब भी कुछ पढ़ने का मन न करे मंटो को उठा लीजिये, हर बार कुछ नया मिल ही जायेगा। जो लोग उस वक्त मंटो को अष्लील कहते थे, वो तो आज भी कह सकते है क्योंकि समाज में औरत और मर्द के के रिष्तों को लेकर तो अभी भी वो ही मान्यताएं है, चाहे हिन्दुस्तान हो या फिर पाकिस्तान। बस! आज का दिन मंटो की तरह जीना था, सोचा कोई कहानी लिखुं। बहुत सोचा लेकिन कोई विषय वस्तु ही नही नजर आ रही थी। वैसे तो कई विषय थे, जैसे- मेरे गांव की लड़की अपनी ही जात के लड़के से प्रेम कर लिया और उसे जात पंचायत ने मौत की सजा सुना दी, उर्मिला को इसलिये जहर दिया गया कि वो विधवा होकर किसी से संबंध रखती थी, ऐसे अनेक उदाहरण थे जिन पर कहानी लिख सकता था लेकिन मेरे परीवार को उस गांव में ही रहना था। मैं कितना डरपोक हूं और तुम कितने निडर थे। सो, मैंने इस विचार को त्याग दिया और सोचा शहर का ही कोई विषय चुन लेता हूं। एक विषय पर कहानी लिखना भी शुरू कर दिया, हर लाइन लिखकर तेरे से तुलना करता तो कहानी लिखने का इरादा हमेषा के लिये त्याग देता। गजब का आदमी था और लिखने का भी गजब का अंदाज था। कुछ लोग कहते है कि वो तरक्कीपसंद था, कुछ कहते है कि अष्लील था मगर हकिकत तो यह है कि उसे किसी भी सांचे में फिट नहीं किया जा सकता है उसका आकार ही निराला था, जो भी हो वो कलम का सच्चा सिपाही जरूर था। रात के वक्त गंदा पानी पीकर लिखने बैठ गया, कुछ तो लिखना ही था क्योंकि आज मेरे प्रिय कथाकार का जन्मदिन था। जो लिखा वो मंटो के नाम एक पत्र था और उसे बड़ी ईमानदारी से आपके हवाले करता हॅूं-
‘देखो मंटो! मैने आज का पूरा दिन तेरी तरह जीने की कोषिष की है और शायद कुछ हद तक जी भी लिया, तेरी नजर से दुनियां को समझने की कोषिष की और थोड़ा बहुत समझ भी लिया लेकिन जब तेरी तरह से लिखने कि कोषिष की तो तो काली सलवार मेरा पिछा ही नहीं छोड़ रही थी..............अब देख भई! तुने मेरे ख्यालात चुराये है और उनकी किमत तुझे चुकानी पड़ेगी। बतादे यार! कैसे लिखता था तू?’
‘देखो मंटो! मैने आज का पूरा दिन तेरी तरह जीने की कोषिष की है और शायद कुछ हद तक जी भी लिया, तेरी नजर से दुनियां को समझने की कोषिष की और थोड़ा बहुत समझ भी लिया लेकिन जब तेरी तरह से लिखने कि कोषिष की तो तो काली सलवार मेरा पिछा ही नहीं छोड़ रही थी..............अब देख भई! तुने मेरे ख्यालात चुराये है और उनकी किमत तुझे चुकानी पड़ेगी। बतादे यार! कैसे लिखता था तू?’
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