सूत्रों से पता चला है कि कुछ मीडिया संस्थानों में मोहल्ला, जनतंत्र और भड़ास ४ मीडिया जैसी सामाजिक एवं पत्रकारिता से जुडी साइटों को खोलने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है. अब सवाल उठता है कि इन साइटों पर ऐसा क्या है जिसके कारण मीडिया संस्थानों को दिक्कत होती है. असल में मीडिया संस्थानों द्वारा लीक से हटकर काम करने वाले तमाम लोगों से दिक्कत होती है. मोहल्ला,जनतंत्र और भड़ास ४ मीडिया पढने वाले तो उसे कहीं और भी पढ़ सकते हैं मगर इससे भारतीय मीडिया का चरित्र साफ़ हो जाता है. इसी तरह से और भी परिवर्तन मीडिया संस्थानों में हो रहे हैं, जिसे सुन कर आप भौचक्के रह जायेंगे. अगर आप किसी मीडिया संसथान में नौकरी कर रहे हैं तो वहां पर कोई भी सोशल नेटवर्किंग साईट नहीं खोल सकते क्योंकि इससे आप समाज से जुड़ जाते हैं.और पारंपरिक मीडिया पत्रकारों को समाज से जुड़ने कि बजाये समाज से दूर करने कि मान्यता पर आधारित है, मतलब ये कि संस्थानों में काम करने के दौरान आप समाज से किसी तरह से जुड़ने का प्रयास न करें और पत्रकार बंधू किसी तरह से भी संचारक्रांति के करीब न आयें. इसमें सबसे मज़ेदार बात ये है कि इस पूरी मुहीम में वो लोग भी शामिल हैं जो पत्रकारों के हितों में लम्बी लम्बी बात करते हैं. ऐसी स्थिति में सुध लेने वालों कि सुध कौन लेगा, दुनियाभर के मानवधिकारों कि बात करने वाला पत्रकार समुदाय आज अपने ही मानवाधिकारों के हनन के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा पाते हैं. मीडिया संस्थान एक पत्रकार को इंसान की बजाय मशीन मानते हैं, कुछ संस्थानों में पत्रकारों का आर्थिक और शारीरिक शोषण लगातार जारी है. महीनो तक तनख्वाह नहीं मिलती और अगर आप आवाज़ उठायें तो नौकरी छोड़ने के लिए तैयार हो जाएँ.चौकाने वाला तथ्य यह है कि छोटे और बड़े मीडिया संस्थानों में पंद्रह सौ रुपये के मासिक पर पत्रकारों से दस से बारह घंटे काम कराया जाता है.
अब सचेत हो जाइये, कल ऑफिस में भी नोटिस लग सकता है -
नोटिस
(आज से कार्यालय में निम्नाकित नियम लागू है)
1 . मोहल्ला, जनतंत्र और भड़ास ४ मीडिया जैसी साइट खोलना प्रतिबंधित है.
2 . फेसबुक, जीमेल और ऑरकुट खोलना मना है.
3 . मोबाईल ऑन रखना प्रतिबंधित है.
4 . ऑफिस समय में पेशाब करना मना है.
5 . ऑफिस में हंसना मना है ( आप यहाँ रो भी नहीं सकते)
6 . ऑफिस के काम के अलावा एक दूसरे से बात करना प्रतिबंधित है.
7 . ऑफिस में खांसना मना है (भले ही आपको जुखाम हो)
8 . ऑफिस में दाढ़ी रखना भी मना है.
(उपरोक्त नियमों का उलंघन करनेवालों के खिलाफ कड़ा कदम उठाया जायेगा.)
आज्ञा से
(शोषण मीडिया केंद्र)
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मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011
सनोबर विला में एक अजनबी
समकालीन भारतीय साहित्य के 151 नंबर के अंक में प्रकाशित
इस कहानी संग्रह में ओम गोस्वामी की पांच कहानियां है जो विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में बहुत पहले प्रकाषित हो चुकी है। ‘इस बीच’ नामक कहानी पर तो धारावाहिक भी बन चुका है। कथाकार ने जीवन के खट्टे मिट्ठे अनुभवों को जिस प्रकार से शब्दों के ताने बाने में बुना है वो साहित्य और समाज के लिये एक शुभ संकेत है। इस संग्रह की हर कहानी अलग- अलग विषय वस्तु लिये हुये है।
पहली कहानी ‘सनोबर विला में एक अजनबी’ में ‘गुरटू’ नामक नौकर का चरित्र उस भारतीय समाज का नेतृत्व कर रहा है जो गरीब रहते हुए भी अपने सिद्धान्त से समझौता नहीं करता है। ‘गुरटू’ के पूरे परिवार को आतंकवादियों ने मार डाला था, वह किसी तरह बच निकला था। गुरटू एक विख्यात विद्वान तो था ही साथ ही खाना बनाने का लाजवाब हूनर भी रखता था। इसी हुनर से वह अपनी प्रतिभा को दबा कर भी सेठ कुंजनलाल के धर पर नौकरी कर जीवन गुजार रहा था। गुरटू एक ऐसा चरित्र है जिसमें जीवन के प्रति अदम्य जीजिविषा कूट - कूट कर भरी हई है। वो अपनी कला व मेहनत से इज्जत की जीन्दगी जीना चाहता है।
दूसरी तरफ सेठ कुंजनलाल, लखीराम व करोड़ीमल उस सामाजिक मानसिकता को प्रदर्षित करते है जो अपने तुच्छ स्वार्थों के लिये इंसानियत की भी बली देकर आदमी की खरीद फरोख्त करती है। इन्हें पैसों का इतना धमण्ड होता है कि हर चीज को पैसे के तराजु में तोलतें है, जहां पर इंसानियत व मानवीय भावनाओं के लिये कोई स्थान नहीं होता है। कहानी का भावप्रवाह शब्दों के माध्यम से कसावट लिये हुए है। सरदार जी का पूरा व्यक्तित्व इस तरह का है कि वह प्रतिभा को आदर व सम्मान देना जानता है। बुढ़े बुजुर्ग की इज्जत करने का संस्कार होने के कारण ही वह गुरटू को ससम्मान अपने साथ ले जाता है। पूरी कहानी में सामाजिक द्वंद को दर्षाया है जिसमें मानवीय व्यवहार के अच्छे और बूरे दोनों पहलूओं की जानकारी मिलती है।
दूसरी कहानी ‘जीवन युद्ध’ एक ऐसे व्यक्तित्व मास्टर राँझूराम के जीवन की कहानी है जिसकी जिंदगी में रिष्तों कोई अहमीयत नहीं है। सिर्फ पैसे के बल पर समाज में खुद को श्रेष्ठ दिखानें की चाह रखता है। बाप और बेटे के रिष्ते के प्रेम की डोरी में बांधे रखने में उसका विष्वास नहीं है। इसी कारण राँझूराम के जीवन युद्ध में प्रतिपक्ष कोई दूसरा न होकर उसका बेटा ही हुआ।पांच बेटों का पिता होते हुए भी रिष्तों की अहमियत नहीं समझ पाया और शायद यही कारण हुआ कि अंत में उसके बेटे भी बाप को दौलत की मषीन मानने लगे। रँझूराम की पत्नि शालिन और भोलीभाली औरत जो सबकुछ जानते हुए भी मूकदर्षक बनी रहती है।यह पूरी कहानी वर्तमान परिपेक्ष्य की साक्षी है कि दौलत की इस अंधाधुध दौड़ में रिष्ते पिछे छूट जातें हैं। जब तक आदमी को इस बात का अहसास होता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
इस संग्रह की हर कहानी किसी न किसी सामाजिक बुराई पर चोट मार्मिक पहुंचा रहीं हैं। ‘दर्द की दहलीज’ काहनर की नायिका नौजी एक पतिवर्ता, षीलवति और भारतीय नारी का संकेत देती है, जो हर कष्ट सहते हुए भी अपनी अस्मिता को बचाना चाहती है। एक विधवा औरत को समाज में जिन नाना प्रकार के दुः खों का सामना करना पड़ता है, उसका दर्द भरा चित्रण साहित्य सीमाओं में रहते हुए इस कहानी में किया गया है।
पंडित अमिचंद नषे का हद से ज्यादा षिकार होने के कारण नैतिकता अनैतिकता के पैमाने भूल चुका था। चैधरी जैसे लोग पुरुष प्रधान समाज के वो अनैतिक तत्व है जो स्त्रि को केवल भोग की वस्तु समझते हैं। इस कहानी का जिस प्रकार से अंत होता है, वह कि एक औरत का दुःख केवल औरत ही समझ सकती है क्यांकि वो ही पुरुषप्रधान समाज के काँटों को भोगती है। यह कहानी दुनियंा के उन तमाम समाजों का दर्पण है, जहां पर लिंग के आधार शोषण होता है। चाहे वो पत्नि के रुप में हो या फिर स्त्रि होने के नाते शारीरिक और मानसिक यातना हो।
इस कहानी संग्रह में ओम गोस्वामी की पांच कहानियां है जो विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में बहुत पहले प्रकाषित हो चुकी है। ‘इस बीच’ नामक कहानी पर तो धारावाहिक भी बन चुका है। कथाकार ने जीवन के खट्टे मिट्ठे अनुभवों को जिस प्रकार से शब्दों के ताने बाने में बुना है वो साहित्य और समाज के लिये एक शुभ संकेत है। इस संग्रह की हर कहानी अलग- अलग विषय वस्तु लिये हुये है।
पहली कहानी ‘सनोबर विला में एक अजनबी’ में ‘गुरटू’ नामक नौकर का चरित्र उस भारतीय समाज का नेतृत्व कर रहा है जो गरीब रहते हुए भी अपने सिद्धान्त से समझौता नहीं करता है। ‘गुरटू’ के पूरे परिवार को आतंकवादियों ने मार डाला था, वह किसी तरह बच निकला था। गुरटू एक विख्यात विद्वान तो था ही साथ ही खाना बनाने का लाजवाब हूनर भी रखता था। इसी हुनर से वह अपनी प्रतिभा को दबा कर भी सेठ कुंजनलाल के धर पर नौकरी कर जीवन गुजार रहा था। गुरटू एक ऐसा चरित्र है जिसमें जीवन के प्रति अदम्य जीजिविषा कूट - कूट कर भरी हई है। वो अपनी कला व मेहनत से इज्जत की जीन्दगी जीना चाहता है।
दूसरी तरफ सेठ कुंजनलाल, लखीराम व करोड़ीमल उस सामाजिक मानसिकता को प्रदर्षित करते है जो अपने तुच्छ स्वार्थों के लिये इंसानियत की भी बली देकर आदमी की खरीद फरोख्त करती है। इन्हें पैसों का इतना धमण्ड होता है कि हर चीज को पैसे के तराजु में तोलतें है, जहां पर इंसानियत व मानवीय भावनाओं के लिये कोई स्थान नहीं होता है। कहानी का भावप्रवाह शब्दों के माध्यम से कसावट लिये हुए है। सरदार जी का पूरा व्यक्तित्व इस तरह का है कि वह प्रतिभा को आदर व सम्मान देना जानता है। बुढ़े बुजुर्ग की इज्जत करने का संस्कार होने के कारण ही वह गुरटू को ससम्मान अपने साथ ले जाता है। पूरी कहानी में सामाजिक द्वंद को दर्षाया है जिसमें मानवीय व्यवहार के अच्छे और बूरे दोनों पहलूओं की जानकारी मिलती है।
दूसरी कहानी ‘जीवन युद्ध’ एक ऐसे व्यक्तित्व मास्टर राँझूराम के जीवन की कहानी है जिसकी जिंदगी में रिष्तों कोई अहमीयत नहीं है। सिर्फ पैसे के बल पर समाज में खुद को श्रेष्ठ दिखानें की चाह रखता है। बाप और बेटे के रिष्ते के प्रेम की डोरी में बांधे रखने में उसका विष्वास नहीं है। इसी कारण राँझूराम के जीवन युद्ध में प्रतिपक्ष कोई दूसरा न होकर उसका बेटा ही हुआ।पांच बेटों का पिता होते हुए भी रिष्तों की अहमियत नहीं समझ पाया और शायद यही कारण हुआ कि अंत में उसके बेटे भी बाप को दौलत की मषीन मानने लगे। रँझूराम की पत्नि शालिन और भोलीभाली औरत जो सबकुछ जानते हुए भी मूकदर्षक बनी रहती है।यह पूरी कहानी वर्तमान परिपेक्ष्य की साक्षी है कि दौलत की इस अंधाधुध दौड़ में रिष्ते पिछे छूट जातें हैं। जब तक आदमी को इस बात का अहसास होता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
इस संग्रह की हर कहानी किसी न किसी सामाजिक बुराई पर चोट मार्मिक पहुंचा रहीं हैं। ‘दर्द की दहलीज’ काहनर की नायिका नौजी एक पतिवर्ता, षीलवति और भारतीय नारी का संकेत देती है, जो हर कष्ट सहते हुए भी अपनी अस्मिता को बचाना चाहती है। एक विधवा औरत को समाज में जिन नाना प्रकार के दुः खों का सामना करना पड़ता है, उसका दर्द भरा चित्रण साहित्य सीमाओं में रहते हुए इस कहानी में किया गया है।
पंडित अमिचंद नषे का हद से ज्यादा षिकार होने के कारण नैतिकता अनैतिकता के पैमाने भूल चुका था। चैधरी जैसे लोग पुरुष प्रधान समाज के वो अनैतिक तत्व है जो स्त्रि को केवल भोग की वस्तु समझते हैं। इस कहानी का जिस प्रकार से अंत होता है, वह कि एक औरत का दुःख केवल औरत ही समझ सकती है क्यांकि वो ही पुरुषप्रधान समाज के काँटों को भोगती है। यह कहानी दुनियंा के उन तमाम समाजों का दर्पण है, जहां पर लिंग के आधार शोषण होता है। चाहे वो पत्नि के रुप में हो या फिर स्त्रि होने के नाते शारीरिक और मानसिक यातना हो।
शनिवार, 5 फ़रवरी 2011
भिती चित्रों की रंगभूमी
आजकल में प्रकाशित
राजस्थान के जयपुर में अरावली पर्वत माला की श्रंखला गुजरती है उसके उत्तर के तीन जिलों के क्षेत्र को षेखावाटी कहा जाता है। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर षेखावाटी नामक जगह का नामकरण राव षेखा जी के नाम पर हुआ। राव षेखा जी ने षेखावाटी को सन 15 वीं सदी में बसाया था। मेथोलोजी के हिसाब से पंाडवों ने यहां पर वनवास का समय बिताया था और जिस जगह उनकी लोहे की जंजीरें गल गई थी। उस स्थान को ‘लोहार्गल’ कहते है, मगर इतिहास में इनका प्रामाणिक सबूत नहीं मिलता है। वर्तमान समय में जो षेखावाटी का क्षेत्र है उसमें सीकर, चुरु व झुंझुनु नामक तीन जिले षामिल है। इस क्षेत्र की भाषा, रहन सहन व संस्कृति में बाकि राजस्थान से कुछ भिन्न है। यहां की बोली को भी षेखावाटी के नाम से जाना जाता है। यह क्षेत्र अपनी कला व संस्कृति के लिए हमेषा अलग पहचान रखता है। 17 वीं षताब्दी में यहां के सेठ साहूकार लोग व्यापार करने के लिए देष के विभिन्न हिस्सों जैसे-कलकत्ता, मुम्बई, व सूरत के अलावा विदेषों में जाकर बस गये। इन्होंने यहां पर बड़ी और सुन्दर हवेलियां बनाई। अगर इन हवेलियों के पीछे के परिदृष्य को देखें कि आखिर इनका निमार्ण क्यों किया गया और वो संसाधन कहां से आये? तब तीन प्रमुख तत्व सामने आते है- एक ब्याज का तांडव, जिसमें 200 से 400 प्रतिषत की दर पर ब्याज लिया जाता था और अनपढ़ किसान व मजदूरों को बूरी तरह लूटा जाता था, उस महाजनी संस्कृति के बीज अभी भी मौजूद है, भाई से लेकर दोस्त तक कोई भी षेखावाटी के इलाके में बिना ब्याज के पांच दिन के लिये भी पैसा उधार नहीं देता और सबसे आष्चर्यजनक बात है कि अभी भी महाजनी समाज में ब्याज दर 24 प्रतिषत है। इस प्रकार एक पूरे ब्याजीय युग के दौरान लूटी गई अपार धन संपदा को इन हवेलियों के निर्माण में दफना दिया गया। दूसरा तत्व है कि विभाजन के समय में दोनों तरफ से ओने जाने वाले शरणार्थियों की सम्पति को लूटा गया और इस लूट में चोरों की एक नई महाजनीय पीढ़ी का जन्म हुआ, वो भी आगे चलकर हवेलियों निमार्ण में आगे आये। तीसरा तत्व है कि आजादी के बाद राजस्थान में भूमी का नाम मात्र का वितरण हुआ है और अभी भी जमीन के बड़े बडे़ जमींदार है जो इन बनीयों से मिलकर किसानों और खेतीहर मजदूरों का शोषण किया और धर्म के नाम पर पंडितों को साथ मिलाकर इन हवेलियों का निर्माण किया।
षेखावाटी अपनी हवेलियों के लिए विष्व प्रसिद्ध है जिसका कारण इन हवेलियों में बनाये गये भिती चित्र है। इस क्षेत्र में रामगढ़, फतेहपुर, लक्ष्मणगढ़, मंडावा, महनसर , बिसाऊ, नवलगढ़, डूडलोद व मुकंदगढ़ जैसे कस्बे हवेलियों के कारण ही आज भी विष्व सैलानियों के आकर्षण का केन्द्र बने हुए है। इन हवेलियों के गुम्बद से लेकर तलघर तक भिती चित्रों से अटे पड़े है। विष्व में भिती चित्रों पर षोध करने वाले अनेक षोधार्थी हर साल यहां आते है। षेखावाटी को खुली कला दीर्घा भी कहा जाता है। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय यहां पर भी छोटे मोटे स्तर पर किसान विद्रोह हुए थे मगर वे अंग्रेजी हुकुमत के विरोध में न होकर सामंतों के विरोध में थे अतः बड़े फलक के रुप में नहीं उभर सके। वर्तमान समय में इन हवेलियों के भिती चित्रों को देखने से पता चलता है कि इस चित्रकारी पर अलग-अलग युग का असर रहा है। कहीं मुगलकालीन दरबार व चित्रषैली देखने को मिलती है तो कहीं पारसी षैली का भी प्रभाव है।
महनसर के सेठ सेजाराम पोद्दार की हवेली की सोने चांदी की दुकाने, पोद्दारों की छत्तरियां और यहां के गढ़ काफी मषहूर है। ष्षेखावाटी में रजवाड़ों के समय अनेक देषी राजाओं ने अपने गढ़ बनाये जो किसी पहाड़ या ऊँचे टीले पर स्थित है। इन गढ़ों में सीकर, लक्ष्मणगढ़, डूण्डलोदेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेे, बठोठ व पाटोदा के गढ़ प्रमुख हैेें । इन गढ़ों पर चित्रकारी का सुन्दर आंकलन देखा जा सकता हैैैैैै। डूंडलोद का गढ़ तो आजकाल हैरिटेज होटल बन गया है। लक्ष्मणगढ़ व कुछ अन्य गढ़ो को पूंजीपतियों ने खरीद लिया है जिसके कारण आज जनता इस कला व संस्कृति को देखने से वंचित है। डूंडलोद की गोयनिका हवेली खुर्रेदार हवेली के नाम स प्रसिद्ध है। इस हवेली का निमार्ण सेठ अर्जुनदास गोयनका ने करवाया था । इस विषालकाय चैक की हवेली क बाहर दो बैठकें आकर्षक द्वार और भीतर सोलह कक्षों का निमार्ण किया गया है। जिनके भीतर कोठरियों, दुछत्तियों, खूंटियों, कड़ियों आदि की पर्याप्त व्यवस्था रखी गई है। इसे आजकल संग्राहलय का दर्जा दे दिया गया है। इस घुमावदार खुर्दे की हवेली का भीतरी हिस्सा लोक चित्रों से भरा हुआ है, जिसमें कृष्ण लीला के चित्र प्रमुख है। मन्डावा के कासन होटल, सागरमल लदिया की हवेली, रामदेव चैखानी की हवेली व मोहनलाल नेवटिया की हवेली भी दर्षनीय है। झुंझुनु में रानी सती का मंदिर, टीबड़े वालो की हवेली और ईसरदास मोदी की सैकड़ों खिड़कियों की हवेली है। रामगढ़ षेखावाटी में रामगोपाल पोद्दार की छतरी में रामकथा अपने लोककला के साथ चित्रित है। इसके अलावा रामगढ़ में खेमका हवेली भी है। यह वही रामगढ़ है जहां लक्ष्मीनिवास मित्तल के पूर्वज रहते थे। चुरु में मालखी का कमरा, सुराणों का हवामहल, रामविलास गोयनका की हवेली,मंत्रियों की बड़ी हवेली औेेर कन्हैयालाल बागला की हवेली दर्षनीय है। इसके अलावा नवलगढ़ में भी बहुत सी हवेलियां हैं जहां पर ‘पहेली’ जैसी अनेक फिल्मों की सूटिंग होती है।
इन हवेलियों में प्राकृतिक रंगों से भिती चित्रों का जो चित्रांकन किया गया है वो अदभुत है। इतिहास के हर युग की कला व षैली का प्रभाव इन चित्रों पर नजर आता है। एक तरफ पौराणिक कथाओं का चित्रांकन लोक कला में उकेरा है वहीं दूसरी तरफ अकबर के चित्र साम्प्रदायिक सौहार्द का संदेष देते है।
ये हवेलिया तो जिंदा है मगर आजादी के 61 साल बाद आज स्थिति यह है कि इन हवेलियों के भिती चित्रों को बनाने वाले कलाकारों की पूरी पीढ़ी ही लुफ्त हो गई है। एक भी चित्रकार नहीं रहा जो भिती चित्रों की इस दुनियां को जानता हो। इसके अनेक कारण गिनाये जा सकतें हैं कि आजादी के बाद न तो सरकार इन चित्रकारों की तरफ कोई ध्यान दिया और न ही समाज अपने स्तर पर इनकी कला को आगे बढ़ा सका। सबसे बड़ा सवाल है कि उस शोषण के इतिहास को पूरी तरह मिटाकर, बनीयों के बाप दादाओं के नाम पर कसीदे पढ़े जाते है।
-संदीप कुमार मील/ मोबाइल नम्बर- 8800780131
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