विदेश में नौकरी दिलाने का झांसा देकर पैसे हड़पने की घटनाएं रोज सामने आनी लगी हैं। बाहरी देशों में जाकर मजदूरी करने वाले मजदूरों में ज्यादातर मजदूर खाड़ी देशों में जातें हैं और खाड़ी देशों में रोजगार दिलाने वाले कबूतरबाजों का जाल पूरे देश में फैला हुआ है। पिछले दिनों में लीबिया में 116 भारतीयों को बंधक बनाने की खबरें आयीं हैं जिन्हें कबूतरबाजों द्वारा अच्छी पगार और बेहतर रोजगार का झांसा देकर लीबिया भेजा गया, जहां पर अच्छी तनख्वाह तो दूर खाना तक नहीं दिया गया। ऐसे वाकयात बहुत से बेरोजगारों के साथ हाते रहते है। कबूतरबाजी के इस धंधे में ज्यादातर गरीब मजदूर फंसतें हैं क्योंकि एक ओर तो देश में रोजगार की कमी है, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र में और दूसरी बात यह है कि मजदूरी के लिये विदेश भेजने की सरकारी स्तर पर कोई व्यवस्था नहीं है। ऐसी स्थिति में सच्चाई जानते हुए भी मजदूरों को इन कबूतरबाजों का सहारा लेना पड़ता है जो लाखें रूपये लेकर ठगते हैं। ये सबसे पहले तो बेरोजगारों को अच्छी पगार और बेहतर रोजगार के सपने दिखातें हैं और नहीं मिलने पर पैसे वापस करने के खोखले वादे भी करतें हैं। जब इन मजदूरों की विदेशों में दुर्दशा होती है, बेहतर रोजगार तो दूर कम्पनीयों और मालिकों द्वारा मानवीय व्यवहार भी नहीं किया जाता तो बहुत से मजदूर तो वापस लौट आतें हैं और जो नहीं लौटतें है उनकी स्थिति दयनीय होती है। जब वापस लौटकर पैसा मांगतें हैं तो कबूतरबाज पैसा वापस करने से इंकार कर देते हैं। ऐसी स्थिति में पीड़ित पक्ष अगर कानून की शरण में जाता है तो भी उन्हें कोई फायदा नहीं होता है क्योंकि कानून को सबूत चाहिये और मजदूरो व ठगी कबूतरबाजों के बीच कोई लिखित समझौता तो होता नहीं है और बहुत से मामलों में तो गवाह पेश करना भी मुश्किल हो जाता है, तब कबूतरबाज आराम से कानून की पकड़ से बच जातें हैं। इन कबूतरबाजों का जाल गांवों से लेकर बड़े शहरों तक फैला हुआ है जिसकी गिरफ्त में अधिकतर बेरोजगार युवा आते हैं। यह समस्या न केवल कबूतरबाजों द्वारा लोगों को ठगने की है बल्कि यह मुख्यरूप से समाज की उन हालातों की और संकेत करती है जो एक ओर तो ऐसे ठगी लोगों के पनपने का रास्ता साफ करती है, दूसरी ओर लोगों को इनके पास जाने को मजबूर भी करती है जिसके कारण बड़े पैमाने पर श्रम का शोषण होता है।
देश में संसाधनों का बंटवारा कुछ इस प्रकार से हुआ है कि खुशहाली कुछ मुटठीभर लोगों के हिस्से में चली गई और समाज के एक बड़े तबके को बदहाली की स्थिति में जीना पड़ रहा है। मगर इससे भी बड़ा सवाल है कि आबादी लगातार बढ़ती जा रही है और संसाधन सिमित हैं, ग्रामीण क्षेत्र में नए रोजगारों का सृजन नहीं हो रहा है जबकि परम्परागत रोजगार के साधन दिनोंदिन घटते जा रहें हैं। इस पूरे परिदृश्य ने युवाओं के सामने चनौती खड़ी कर दी कि आखिर वो क्या करंे ? यहीं से बहुत सी समस्याओं का जन्म हो जाता है जिन्हें आज हम हमारे चारों ओर के समाज में देखतें हैं और इन कबूतरबाजों का मामला भी उसी का हिस्सा है। जबकि पुलिस व प्रशासन को इन कबूतरबाजों के बारे में पूरी जानकारी रहती है क्योंकि लोगों के संवादों में ये इतने प्रचारित किये जातें हैं कि प्रशासन को आराम से पता चल जाता है। इस पर भी प्रशासन अगर यह तर्क देता है कि उन्हें पता भी नहीं था कि ऐसा कोई धंधां चल रहा है तो सवाल उठता है कि पता क्यों नहीं था ? शिकायत दर्ज होने के बाद भी इन कबूतरबाजों द्वारा लगातार लोगों को ठगा जाये तो जाहिर है कि ये कोई आम ठग या लूटेरे नहीं है बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से सक्षम व ताकतवर लोगों का गिरोह है जो अपनी शक्ति का गलत उपयोग करके लोगों को ठगता रहता है। एक गरीब बेरोजगार 1 लाख रूपये देकर नौकरी के लिये जाता है और उसे इस प्रकार से प्रताड़ित किया जाता है, यह बहुत ही गम्भीर मामला है जिस पर कोई राजनीतिक बातचित नहीं हो रही है। हो सकता है कि इन कबूतरबाजों के तार स्विस बैंक में जमा भारतीय पूंजी तक हो या बहुत से नेता व प्रशासनिक अधिकारीयों की मिलीभगत हो, अपराधीयों को देश से बाहर जाने में भी ऐसे लोगों का हाथ हो सता है जिसकी जांच होनी चाहिए।
इस समस्या का हल करने का पहला तरिका तो है कि देश में ग्रामीण क्षेत्रों में नये रोजगारो का सृजन किया जाये ताकि बेरोजगारों को विदेशों की तरफ रूख ही न करना पड़े और दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि लोगों के साथ ठगी और धोखाधड़ी करने वाले इन कबूतरबाजों के प्रति प्रशासन कड़ा रूख अपनाये ताकि एक बेरोजगार को अमावीय यातनाओं से बचाया जा सके। अगर समय रहते इन कबूतरबाजों पर अंकुश नहीं लगाया गया तो ये आज तो श्रम को विदेशों में बेच रहें है कल पूरे देश को ही बेच खायेंगे।
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सोमवार, 23 अगस्त 2010
गुरुवार, 12 अगस्त 2010
नवउदारीकरण के जाल में किसान
1991 के बाद भारत विष्वव्यापी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का अंग बनता जा रहा है। खुले व्यापार और निजी निवेष के माॅडल को अपनाने के बाद प्राथमिक क्षेत्र पर लगातार संकट के बादल मंडरा रहे है और उससे कृषि व कृषि से जुड़ा हुआ तबका बूरी तरह प्रभावित हुआ है। यूरोप के देषों में औधोगिककरण के बाद खेती पर निर्भरता घटती गई मगर भारत में 1971 की तुलना 2005 में कृषि कामगारों की संख्या दुगुनी हो गई है। एक तरफ जनसंख्या के बढ़ते दवाब और दूसरी तरफ कृषि में सार्वजनिक निवेष के घटने के कारण भारतीय कृषि हाषिये पर पहुंच गई है। विष्व बैंक ने भी 2008 की रिर्पोट में कृषि को विकास के ऐजेंडे में माना है क्योंकि विकासषील देषों की अधिकांष जनता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि से जुड़ी हुई है। वैष्विक परिदृष्य पर पूंजीवादी ताकतें विष्व बैंक व अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के माध्यम से विकासषील देषों की कृषी पर लगातार हमला कर रही है क्योंकि वे अपने टनों अनाज को बाजार में मंदी के डर से नहीं ला सकते, इसलिए समुंद्र में डुबाये जाने वाले अनाज के लिए बाजार तैयार करना चाहते है और वो तभी सम्देषों की कृषि को पूरी तरह तबाह कर दिया जाये।
भारत की जीडीपी में कृषि क्षेत्र की भागीदारी लगातार कम हो रही है और अब यह मात्र 15.7 फीसदी रह गई है क्योंकि कृषि क्षेत्र में 1991 के बाद लगातार सार्वजनिक निवेष को घटाया जा रहा है। 1991 में कृषि पर सार्वजनिक निवेष 16 फीसदी था जो पिछले वर्ष घटकर 6 फीसदी रह गया है। आर्थिक सुधारों के दौरान कृषि की अनदेखी हुई है जिसका मुख्य कारण है कि सरकार कृषि लागतों पर सब्सिडी और उपज पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की नीतियों को ही मुख्य ऐजेंडे में रखा लेकिन कृषि पर शोध, तकनीकी विकास, सिंचाई, ऊर्जा, भंडारण व अन्य परम्परागत ज्ञान के विकास पर कोई निवेष नहीं किया। नई आर्थिक नीतियों को अपनाने के बाद भारतीय किसान वैष्विक बाजार में विकसित देषों के किसानों से प्रतिस्पद्र्धा में टिक ही नहीं पाता है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था को विष्व बाजार में प्रतिस्पद्र्धा के लिये तो खोल दिया मगर अर्थव्यवस्था के प्रारम्भिक ढ़ांचे- कृषि और प्राथमिक क्षेत्र का आधारभूत विकास ही नहीं किया गया। पिछले साल यू. पी. ए. सरकार की 78 हजार करोड़ रूपये की ऋण माफी के बाद भी किसान आत्महत्याएं कर रहे है और इस वर्ष भी कृषि वृद्धि दर पिछले वर्ष की तुलना में 0.2 प्रतिषत ऋणात्मक रही है। जिस देष में 60 प्रतिषत लोग कृषि से जुड़े हुए हो, वहां पर कृषि वृद्धि दर ऋणात्मक रहना कृषि विरोधी नीतियों को दर्षाता है। सही मायनों में ऋण माफी किसानों को फायदा देने के लिये नहीं थी, वो बड़े बैंको की एमपीए कम करने की साजिष थी जो किसानों सिर पर मढ़ दी गई। मीडिया भी कृषि मृद्दो को लेकर संवेदनषील नहीं है, 78 हजार करोड़ रूपये की ऋण माफी को ऐसे उछाला जैसे इससे भारतीय कृषि का मूलभूत ढंाचा ही बदल जायेगा लेकिन उसी साल औधोगिक क्षेत्र को 3 लाख करोड़ रूपये का टेक्स रिबेेट दिया गया जिस पर कोई सवाल नहीं उठे। कार लोन शून्य प्रतिषत ब्याज पर दिया जा सकता है लेकिन किसानो को ऋण देने के लिए सरकार ने नाबार्ड से लेकर किसान तक इतनी ज्यादा औपचारिक कड़िया बना रखी है कि उसे समय व जरूरत के मुताबिक ऋण मिल पाना मुष्किल है। नई आर्थिक नीतियों के तहत अर्थव्यवस्था को पूर्णरूप से सेवा क्षेत्र पर निर्भर करने की कोषिष की गई और प्राथमिक क्षेत्र को नजर अंदाज किया गया। आज किसान और उपभोक्ता के बीच के दलालोे की संख्या इतनी बढ़ गई है कि दोनों का पैसा बिचैलियों द्वारा हड़प लिया जाता है। एक अध्ययन के मुताबिक कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य तथा थोक मूल्यों में 33 प्रतिषत का और थोक एंव खुदरा मूल्यों मंे लगभग 60 प्रतिषत का अन्तर होता है। अगर एक किसान अपनी उपज का 100 रूपये पाता है तो उपभोक्त द्वारा 200 चुकाये जाते है। बीच के 100 रूपये सप्लाई चैन सिस्टम की कमजोरी के कारण बिचैलियों के जेब में जाते है। आज भारतीय कृषि एक घाटे का व्यवसाय बन गई है जिसके मुख्य कारण प्राकृतिक प्रकोप और नई आर्थिक नीति के तहत कृषि विरोधी नीतियों का लागू होना है। कृषि के पिछड़ेपन और ग्रामीण रोजगार के अभाव में बहुत बड़ा तबका शहरों की ओर पलायन कर रहा है जिसके कारण शहरो की अर्थव्यस्थाओं का ढंाचा भी चरमरा रहा है। कृषि क्षेत्र को दिये जाने वाले कर्ज में पिछले कुछ सालों में काफी वृद्वि हुई है। 1996-97 से 2003-04 के बीच यह 14.27 प्रतिषत वार्षिक वृद्धि की दर से बढ़ा है लेकिन कृषि क्षेत्र में वास्तविक निवेष नहीं बढ़ा है। कृषि में सार्वजनिक निवेष और कृषि सब्सिड़ी में विपरीत संबंध दिखाई देता है।
1990 के दषक में विष्व पटल पर समाजवादी आंदोलन का नेतृत्वकर्ता सोवियत संघ के विघटन के कारण पूंजीवादी ताकतों को खुला मैदान हो गया और विष्व एकधुव्रीय व्यवस्था में तबदील होने के कारण बहुत से विकासषील देषों ने मजबूरी में नवउदारवादी नीतियों को अपनाना पड़ा, भारत भी उसी लपेटे में आ गया था। भारतीय कृषि को अमेरिकी सांचे में ढ़ालने के लिये नीति निर्धारकों से लेकर कृषि की शोध संस्थाएं उदारीकरण के पक्ष में तर्क देने में जुट गई, इसीलिए भारतीय कृषि वैज्ञानिक बंजर भूमी को उपजाऊ बनाने की तकनीक खोजने के बजाय बीटी बीजों की वकालत करने लगे। आज देष में 50 से अधिक कृषि विष्वविधालय हैं मगर उनकी उपलब्धियां क्या हैं ? कृषि अनुसंधान और षिक्षा भी भारतीय कृषि के संकट के लिये जिम्मेदार है, क्योंकि वो भारतीय कृषि की समस्याएं और परिस्थितियों पर शोध करने के बजाय इस बात पर शोध कर रहा है कि भारतीय कृषि को अमेरिकन मोडल में कैसे ढ़ाला जाये और इसी कारण मूलभूत समस्यायों को गौण कर दिया गया। आजादी के बाद लगातार एक तरफ बिहार में बाढ़ ने लोगों को तबाह करके रखा और दूसरी तरफ राजस्थान में हर साल अकाल पड़ता है मगर हमारी सरकारों ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया कि बाढ़ का पानी सूखे की तरफ मोड़ कर दोनों तबाहीयों को बचाया जा सकता है। क्योंकि अगर ऐसा हो गया तो अकाल राहत और बाढ़ राहत के नाम पर जो करोड़ों के फंड दिये जाते है उनमें धांधली कैसे होगी? दरअसल में नवउदारवादी नीतियों का चरित्र ही ऐसा है कि वो चंद लोगों के लिये लूट का हथियार है। विकास के नाम पर किसानों को सहायता देने के बजाय उन्हें जमीन से बेदखल करने के पट्टे भी बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों को दे दिया है। सच्चाई तो यह है कि भारतीय किसान कभी प्रकृति से नहीं हारा है क्योंकि प्रकृति हमेषा संतुलन बनाये रखती है मगर नई आर्थिक नीतियों ने तो किसान से लेने की ही नीति अपनाई है उसे बदले में कर्ज के सिवाय मिलता कुछ नहीं।
देष में लगातार किसान आत्महत्याएं कर रहें हैं, पिछले 12 सालों में 2 लाख किसानों द्वारा आत्महत्या करना नवउदारवादी नीतियों का ही परिणाम है और सरकार कर्ज माफी का एक पैकेज देकर इति श्री कर ली लेकिन सवाल उन नीतियों को बदलने का है जिनके कारण आज भारतीय किसान हाषिये पर पहुंच गये है, चाहे सब्सिडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाने की बात हो या फिर नई तकनीक और संसाधन उपलब्ध कराने की हो, किसानों को हर जगह लूटा जाता है। राजनैतिक रूप से किसानों का ऐसा कोई वोट बैंक नहीं है जिसके कारण राजनीतिक दल उन्हें महत्व दें क्योंकि वोट को तो पहले से ही जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर विभाजित कर दिया गया है। कुछ तथाकथित किसान नेता जरूर हैं जिन्हे न तो किसानों की वास्तविक समस्याओं का पता है और न किसान की हालत का। असल में वो जमीन के मालिक जरूर है मगर जमीन पर खुद कभी खेती नहीं की, वो जमींदार है जिनके यहां भूमिहीन मजदूर काम करते है लेकिन वो सरकार की परिभाषा के हिसाब से किसान है क्योंकि सरकार उसी को किसान मानती है जिसके नाम पर जमीन हो। उनके किसान नेता बनने के पीछे तर्क यह है कि किसी अन्य राजनीतिक दल में जगह नहीं मिलने के कारण खुद को राजनीतिक धरातल पर स्थापित करने के लिये किसान राजनीति के नाम पर जहां मौका मिले भाषणबाजी करते रहते हैं।
सप्रंग सरकार के दूसरे कार्यकाल के एक वर्ष पूरे हो जाने पर रिर्पोट कार्ड जारी करके करकार अपनी पीठ थपथपा रही है जबकि इसी सरकार की किसान विरोधी नीतियों के कारण महंगाई में किसान बदहाल है, एक तरफ तो वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं और वही दूसरी तरफ किसान को फसल का उचित मूल्य भी नहीं मिल पा रहा है। मनमोहन सिंह का अर्थषास्त्र किसानों के लिये न होकर, ठेकेदारों और बिचोलियों के हित में है मगर सप्रंग सरकार जबरदस्ती उसे अपनी उपलब्धीयों मनाने पर अड़ी हुई है। एक तरफ भारत में किसानों को दिया जाने वाला अनुदान घटाया जा रहा है और दूसरी तरफ दुनियां के विकसित देष कृषि अनुदान को बढ़ा रहे है, ऐसी स्थिति में भारतीय किसान कैसे वैष्विक बाजार में टिक पायेगा जिसके दरवाजे बिना तैयारी के ही खोल दिये गये है। नवउदारवादी नीतियों का मुख्य ऐजेंडा है कि भारतीय कृषि किसानों से छीनकर बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों के हाथ में चली जाये। कृषि संकट से उभरने के लिये दुसरी हरित क्रांति का शंखनाद करने की तैयारी करने वाले भूल रहे है कि किसान बढ़ती लागत और उपज के घटते मूल्य की दोहरी चक्की में पिस रहा है न की तकनीक और उन्नत किस्म के बीजों के अभाव में। किसान व कृषि को वैष्विकरण के दानव से बचाने के लिये ऋण माफी व अन्य रियायतों की बजाय क्षि नीतियों को बदलने की जरूरत है जो किसान को आज ‘मुक्त बाजार’ के ऐसे बनिये के जाल में फंसा दिया है जिसके बही खातो से लेकर हिसाब किताब की भाषा ही भारतीय किसान विरोधी है।
भारत की जीडीपी में कृषि क्षेत्र की भागीदारी लगातार कम हो रही है और अब यह मात्र 15.7 फीसदी रह गई है क्योंकि कृषि क्षेत्र में 1991 के बाद लगातार सार्वजनिक निवेष को घटाया जा रहा है। 1991 में कृषि पर सार्वजनिक निवेष 16 फीसदी था जो पिछले वर्ष घटकर 6 फीसदी रह गया है। आर्थिक सुधारों के दौरान कृषि की अनदेखी हुई है जिसका मुख्य कारण है कि सरकार कृषि लागतों पर सब्सिडी और उपज पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की नीतियों को ही मुख्य ऐजेंडे में रखा लेकिन कृषि पर शोध, तकनीकी विकास, सिंचाई, ऊर्जा, भंडारण व अन्य परम्परागत ज्ञान के विकास पर कोई निवेष नहीं किया। नई आर्थिक नीतियों को अपनाने के बाद भारतीय किसान वैष्विक बाजार में विकसित देषों के किसानों से प्रतिस्पद्र्धा में टिक ही नहीं पाता है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था को विष्व बाजार में प्रतिस्पद्र्धा के लिये तो खोल दिया मगर अर्थव्यवस्था के प्रारम्भिक ढ़ांचे- कृषि और प्राथमिक क्षेत्र का आधारभूत विकास ही नहीं किया गया। पिछले साल यू. पी. ए. सरकार की 78 हजार करोड़ रूपये की ऋण माफी के बाद भी किसान आत्महत्याएं कर रहे है और इस वर्ष भी कृषि वृद्धि दर पिछले वर्ष की तुलना में 0.2 प्रतिषत ऋणात्मक रही है। जिस देष में 60 प्रतिषत लोग कृषि से जुड़े हुए हो, वहां पर कृषि वृद्धि दर ऋणात्मक रहना कृषि विरोधी नीतियों को दर्षाता है। सही मायनों में ऋण माफी किसानों को फायदा देने के लिये नहीं थी, वो बड़े बैंको की एमपीए कम करने की साजिष थी जो किसानों सिर पर मढ़ दी गई। मीडिया भी कृषि मृद्दो को लेकर संवेदनषील नहीं है, 78 हजार करोड़ रूपये की ऋण माफी को ऐसे उछाला जैसे इससे भारतीय कृषि का मूलभूत ढंाचा ही बदल जायेगा लेकिन उसी साल औधोगिक क्षेत्र को 3 लाख करोड़ रूपये का टेक्स रिबेेट दिया गया जिस पर कोई सवाल नहीं उठे। कार लोन शून्य प्रतिषत ब्याज पर दिया जा सकता है लेकिन किसानो को ऋण देने के लिए सरकार ने नाबार्ड से लेकर किसान तक इतनी ज्यादा औपचारिक कड़िया बना रखी है कि उसे समय व जरूरत के मुताबिक ऋण मिल पाना मुष्किल है। नई आर्थिक नीतियों के तहत अर्थव्यवस्था को पूर्णरूप से सेवा क्षेत्र पर निर्भर करने की कोषिष की गई और प्राथमिक क्षेत्र को नजर अंदाज किया गया। आज किसान और उपभोक्ता के बीच के दलालोे की संख्या इतनी बढ़ गई है कि दोनों का पैसा बिचैलियों द्वारा हड़प लिया जाता है। एक अध्ययन के मुताबिक कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य तथा थोक मूल्यों में 33 प्रतिषत का और थोक एंव खुदरा मूल्यों मंे लगभग 60 प्रतिषत का अन्तर होता है। अगर एक किसान अपनी उपज का 100 रूपये पाता है तो उपभोक्त द्वारा 200 चुकाये जाते है। बीच के 100 रूपये सप्लाई चैन सिस्टम की कमजोरी के कारण बिचैलियों के जेब में जाते है। आज भारतीय कृषि एक घाटे का व्यवसाय बन गई है जिसके मुख्य कारण प्राकृतिक प्रकोप और नई आर्थिक नीति के तहत कृषि विरोधी नीतियों का लागू होना है। कृषि के पिछड़ेपन और ग्रामीण रोजगार के अभाव में बहुत बड़ा तबका शहरों की ओर पलायन कर रहा है जिसके कारण शहरो की अर्थव्यस्थाओं का ढंाचा भी चरमरा रहा है। कृषि क्षेत्र को दिये जाने वाले कर्ज में पिछले कुछ सालों में काफी वृद्वि हुई है। 1996-97 से 2003-04 के बीच यह 14.27 प्रतिषत वार्षिक वृद्धि की दर से बढ़ा है लेकिन कृषि क्षेत्र में वास्तविक निवेष नहीं बढ़ा है। कृषि में सार्वजनिक निवेष और कृषि सब्सिड़ी में विपरीत संबंध दिखाई देता है।
1990 के दषक में विष्व पटल पर समाजवादी आंदोलन का नेतृत्वकर्ता सोवियत संघ के विघटन के कारण पूंजीवादी ताकतों को खुला मैदान हो गया और विष्व एकधुव्रीय व्यवस्था में तबदील होने के कारण बहुत से विकासषील देषों ने मजबूरी में नवउदारवादी नीतियों को अपनाना पड़ा, भारत भी उसी लपेटे में आ गया था। भारतीय कृषि को अमेरिकी सांचे में ढ़ालने के लिये नीति निर्धारकों से लेकर कृषि की शोध संस्थाएं उदारीकरण के पक्ष में तर्क देने में जुट गई, इसीलिए भारतीय कृषि वैज्ञानिक बंजर भूमी को उपजाऊ बनाने की तकनीक खोजने के बजाय बीटी बीजों की वकालत करने लगे। आज देष में 50 से अधिक कृषि विष्वविधालय हैं मगर उनकी उपलब्धियां क्या हैं ? कृषि अनुसंधान और षिक्षा भी भारतीय कृषि के संकट के लिये जिम्मेदार है, क्योंकि वो भारतीय कृषि की समस्याएं और परिस्थितियों पर शोध करने के बजाय इस बात पर शोध कर रहा है कि भारतीय कृषि को अमेरिकन मोडल में कैसे ढ़ाला जाये और इसी कारण मूलभूत समस्यायों को गौण कर दिया गया। आजादी के बाद लगातार एक तरफ बिहार में बाढ़ ने लोगों को तबाह करके रखा और दूसरी तरफ राजस्थान में हर साल अकाल पड़ता है मगर हमारी सरकारों ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया कि बाढ़ का पानी सूखे की तरफ मोड़ कर दोनों तबाहीयों को बचाया जा सकता है। क्योंकि अगर ऐसा हो गया तो अकाल राहत और बाढ़ राहत के नाम पर जो करोड़ों के फंड दिये जाते है उनमें धांधली कैसे होगी? दरअसल में नवउदारवादी नीतियों का चरित्र ही ऐसा है कि वो चंद लोगों के लिये लूट का हथियार है। विकास के नाम पर किसानों को सहायता देने के बजाय उन्हें जमीन से बेदखल करने के पट्टे भी बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों को दे दिया है। सच्चाई तो यह है कि भारतीय किसान कभी प्रकृति से नहीं हारा है क्योंकि प्रकृति हमेषा संतुलन बनाये रखती है मगर नई आर्थिक नीतियों ने तो किसान से लेने की ही नीति अपनाई है उसे बदले में कर्ज के सिवाय मिलता कुछ नहीं।
देष में लगातार किसान आत्महत्याएं कर रहें हैं, पिछले 12 सालों में 2 लाख किसानों द्वारा आत्महत्या करना नवउदारवादी नीतियों का ही परिणाम है और सरकार कर्ज माफी का एक पैकेज देकर इति श्री कर ली लेकिन सवाल उन नीतियों को बदलने का है जिनके कारण आज भारतीय किसान हाषिये पर पहुंच गये है, चाहे सब्सिडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाने की बात हो या फिर नई तकनीक और संसाधन उपलब्ध कराने की हो, किसानों को हर जगह लूटा जाता है। राजनैतिक रूप से किसानों का ऐसा कोई वोट बैंक नहीं है जिसके कारण राजनीतिक दल उन्हें महत्व दें क्योंकि वोट को तो पहले से ही जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर विभाजित कर दिया गया है। कुछ तथाकथित किसान नेता जरूर हैं जिन्हे न तो किसानों की वास्तविक समस्याओं का पता है और न किसान की हालत का। असल में वो जमीन के मालिक जरूर है मगर जमीन पर खुद कभी खेती नहीं की, वो जमींदार है जिनके यहां भूमिहीन मजदूर काम करते है लेकिन वो सरकार की परिभाषा के हिसाब से किसान है क्योंकि सरकार उसी को किसान मानती है जिसके नाम पर जमीन हो। उनके किसान नेता बनने के पीछे तर्क यह है कि किसी अन्य राजनीतिक दल में जगह नहीं मिलने के कारण खुद को राजनीतिक धरातल पर स्थापित करने के लिये किसान राजनीति के नाम पर जहां मौका मिले भाषणबाजी करते रहते हैं।
सप्रंग सरकार के दूसरे कार्यकाल के एक वर्ष पूरे हो जाने पर रिर्पोट कार्ड जारी करके करकार अपनी पीठ थपथपा रही है जबकि इसी सरकार की किसान विरोधी नीतियों के कारण महंगाई में किसान बदहाल है, एक तरफ तो वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं और वही दूसरी तरफ किसान को फसल का उचित मूल्य भी नहीं मिल पा रहा है। मनमोहन सिंह का अर्थषास्त्र किसानों के लिये न होकर, ठेकेदारों और बिचोलियों के हित में है मगर सप्रंग सरकार जबरदस्ती उसे अपनी उपलब्धीयों मनाने पर अड़ी हुई है। एक तरफ भारत में किसानों को दिया जाने वाला अनुदान घटाया जा रहा है और दूसरी तरफ दुनियां के विकसित देष कृषि अनुदान को बढ़ा रहे है, ऐसी स्थिति में भारतीय किसान कैसे वैष्विक बाजार में टिक पायेगा जिसके दरवाजे बिना तैयारी के ही खोल दिये गये है। नवउदारवादी नीतियों का मुख्य ऐजेंडा है कि भारतीय कृषि किसानों से छीनकर बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों के हाथ में चली जाये। कृषि संकट से उभरने के लिये दुसरी हरित क्रांति का शंखनाद करने की तैयारी करने वाले भूल रहे है कि किसान बढ़ती लागत और उपज के घटते मूल्य की दोहरी चक्की में पिस रहा है न की तकनीक और उन्नत किस्म के बीजों के अभाव में। किसान व कृषि को वैष्विकरण के दानव से बचाने के लिये ऋण माफी व अन्य रियायतों की बजाय क्षि नीतियों को बदलने की जरूरत है जो किसान को आज ‘मुक्त बाजार’ के ऐसे बनिये के जाल में फंसा दिया है जिसके बही खातो से लेकर हिसाब किताब की भाषा ही भारतीय किसान विरोधी है।
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भारतीय कृषि और नई आर्थिक नीतियाँ
मंगलवार, 10 अगस्त 2010
दूसरी हरित क्रांति वैकल्पिक कृषि के रास्ते
कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिये भारत सरकार ने कार्यसमूह गठित किया है और उस कार्य समूह के अध्यक्ष का मानना है कि दूसरी हरित क्रांति जरूरी है। एक तरफ देष में तिव्रगती से बढ़ती हुई जनसंख्या और दूसरी तरफ कृषि का लगातार पिछड़ापन एक भयानक खाद्यान्न संकट का संकेत देते हंै। ऐसी स्थिति में वैकल्पिक कृषि भारत का पेट भर सकती है, इसमें क्रांतिकारी सम्भावनाएं है। वैकल्पिक कृषि में श्रम की उपादेयता बढ़ जाती है, इसलिए यह रोजगार सृजन और बेरोजगारी का भी कुछ हद तक निवार्ण करने में सहायक है। कृषि क्षेत्र में ज्ञान के नियमित प्रयोग और स्थानीय संसाधनों के बढ़ते प्रभाव के कारण कृषि में विकेंद्रीकृत विकास की अपार संभावनाएं नजर आती है। इन सबके बावजूद एक अहम सवाल खड़ा होता है कि क्या वैकल्पिक कृषि खाद्यान्न संकट से निजात दिला सकती है ? दुनियांभर में जैविक कृषि पर हुए अध्ययनों से स्पष्ट है कि यह लघु और सिमान्त किसानों के लिये उपयोगी है क्योंकि एक तो इसमें उत्पादन में वृद्धि दर्ज की गई है और दूसरा कारण है कि छोटी जोतों पर नए नए प्रयोग आसानी से किये जा सकते है। लेकिन वैकल्पिक कृषि अपनाने वालों के प्रषिक्षण पर भी इसकी उत्पादकता और गुणवता निर्भर करती है और भारत में दूसरी हरित क्रांति के लिये जरूरी है कि उचित प्रषिक्षण, तकनीकी और उन्नत किस्म के बीज व रासायनिक उर्वरक उपलब्ध कराये जायें। जहां तक किमतों का सवाल है तो यूरोप के देषों का अनुभव बताता है कि सामान्य बाजार भावों में भी वैकल्पिक कृषि मुनाफा कमा सकती है क्योंकि इसकी प्रति हैक्टेयर उत्पादन लागत कम होती है और उत्पादन की मात्रा भी तुलनात्मक रूप से ज्यादा होती है।
अब अगर वैकल्पिक कृषि के नकारात्मक पहलूओं की चर्चा करें तो इससे स्थानीय बीजों, पशुधन एवं परम्परागत ज्ञान नष्ट होता है और इसी कारण विष्व बाजार में विकासषील देषों के उत्पाद विकसित देषों की तुलना में पिछड़ जाते है। वैकल्पिक कृषि में प्रयोग में ली जाने वाली प्रक्रियाएं स्थान और फसल विषेष के लिये होती हैं उन्हें हर जगह ज्यूं का त्यूं इस्तेमाल में नहीं लाया जा सकता है और भारतीय संदर्भ में देखा जाये तो इतनी ज्यादा भौगोलिक और प्राकृतिक विभिन्नताएं है कि वैकल्पिक कृषि पद्धति पर ही प्रष्नचिंह खड़ा हो जाता है। भारत में छोटे छोटे किसानों के पास इतना पैसा नहीं होता है कि वो उन्नत तकनीक और रासायनिक बीजों का प्रयोग कर सकें और न ही उन्हें वक्त व जरूरत के अनुसार बैकों से ऋण मिल पाता है। 2007 की राष्ट्रीय किसान नीति में भी जैविक कृषि को कुछ चुनिंदा क्षेत्रों के लिये ही उपर्युक्त माना है क्योंकि अभी तक भारत में इस संदर्भ में शोध व प्रयोग ही बहुत कम हुआ है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार हमारी भूमि का दो तिहाई हिस्सा लगभग विकृत हो चुका है और लगातार कृषि योग्य भूमि में कमी आ रही है क्योंकि परम्परागत कृषि पद्धतियों से इतनी बड़ी जनसंख्या के लिये खाद्य सामग्री उपलब्ध कराना मुष्किल है। ऐसी स्थिति में अगर वैकल्पिक कृषि को नहीं अपनाया गया तो आने वाले समय में भूख भारत की सबसे बढ़ी समस्या होगी। कुछ लोगों का तर्क होता है कि वैकल्पिक कृषि कितनी भी अच्छी हो लेकिन मषीनीकरण और आधुनिककरण के कारण कृषि में श्रमशक्ति घट जायेगी और बेरोजगार बढ़ जायेगी परन्तु उत्पादन और तकनीक के विकास के साथ गांवों में नये नये रोजगारों का सृजन होगा जिससे बेरोजगारी भी कम होगी और गांव से शहर की तरफ होने वाले पलायन में भी गिरावट आयेगी। क्योंकि जब गांव में ही रोजगार मिल जायेगा तो मजबूरी में होने वाले पलायन पर तो रोक लग ही जायेगी।
भारत में वैकल्पिक कृषि के विकास के लिये जरूरी है कि सराकर उचित संसाधन और तकनीक उपलब्ध कराये, साथ ही साथ भौगोलिक विभिन्नताओं को देखते हुए अलग अलग क्षेत्र के लिये विषेष शोध कराकर उसे किसानों तक पहुंचाये ताकि समय पर उससे किसान लाभांवित हो सके। दूसरी हरित क्रांति का रास्ता वैकल्पिक कृषि से होकर ही जायेगा, इसके लिये सरकार और किसान दोनों को तैयार रहना चाहिए क्योंकि शरूआती दौर में बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। मूलतः समाज और सरकार को वैकल्पिक कृषि को नजर अंदाज नहीं करना चाहिए क्योंकि आने वाले समय में भारत और दुनियों को खाद्यान्न संकट से यही उभार सकती है। जरूरा नहीं है कि सभी फसलों में वैकल्पिक कृषि को अपनाया जाये क्योंकि जिन फसलों में परम्परागत ज्ञान से कम खर्चे पर अच्छी उपज प्राप्त हो रही है उन्हें उसी प्रकार से चलने दिया जाये। इस प्रकार एक स्तर पर परम्परागत कृषि और वैकल्पिक कृषि में सामंजस्य भी जरूरी है। चाहे किसानों की आत्महत्यों का सवाल हो या कृषि क्षेत्र में बढ़ती अन्य समस्याएं, वैकल्पिक कृषि इन सब का एक हल प्रस्तुत करती है। देष में कुछ जगहों पर इसके प्रयोग चल रहे है जो बहुत हद तक सफल भी है मगर अब इसे बड़े फलक पर उतारकर दूसरी हरित क्रांति का शंखनाद करना समय की मांग है।
वैकल्पिक कृषि को अपनाने के लिये किसानों और सरकार को एक दूसरे का सहयोगी होना पड़ेगा।
अब अगर वैकल्पिक कृषि के नकारात्मक पहलूओं की चर्चा करें तो इससे स्थानीय बीजों, पशुधन एवं परम्परागत ज्ञान नष्ट होता है और इसी कारण विष्व बाजार में विकासषील देषों के उत्पाद विकसित देषों की तुलना में पिछड़ जाते है। वैकल्पिक कृषि में प्रयोग में ली जाने वाली प्रक्रियाएं स्थान और फसल विषेष के लिये होती हैं उन्हें हर जगह ज्यूं का त्यूं इस्तेमाल में नहीं लाया जा सकता है और भारतीय संदर्भ में देखा जाये तो इतनी ज्यादा भौगोलिक और प्राकृतिक विभिन्नताएं है कि वैकल्पिक कृषि पद्धति पर ही प्रष्नचिंह खड़ा हो जाता है। भारत में छोटे छोटे किसानों के पास इतना पैसा नहीं होता है कि वो उन्नत तकनीक और रासायनिक बीजों का प्रयोग कर सकें और न ही उन्हें वक्त व जरूरत के अनुसार बैकों से ऋण मिल पाता है। 2007 की राष्ट्रीय किसान नीति में भी जैविक कृषि को कुछ चुनिंदा क्षेत्रों के लिये ही उपर्युक्त माना है क्योंकि अभी तक भारत में इस संदर्भ में शोध व प्रयोग ही बहुत कम हुआ है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार हमारी भूमि का दो तिहाई हिस्सा लगभग विकृत हो चुका है और लगातार कृषि योग्य भूमि में कमी आ रही है क्योंकि परम्परागत कृषि पद्धतियों से इतनी बड़ी जनसंख्या के लिये खाद्य सामग्री उपलब्ध कराना मुष्किल है। ऐसी स्थिति में अगर वैकल्पिक कृषि को नहीं अपनाया गया तो आने वाले समय में भूख भारत की सबसे बढ़ी समस्या होगी। कुछ लोगों का तर्क होता है कि वैकल्पिक कृषि कितनी भी अच्छी हो लेकिन मषीनीकरण और आधुनिककरण के कारण कृषि में श्रमशक्ति घट जायेगी और बेरोजगार बढ़ जायेगी परन्तु उत्पादन और तकनीक के विकास के साथ गांवों में नये नये रोजगारों का सृजन होगा जिससे बेरोजगारी भी कम होगी और गांव से शहर की तरफ होने वाले पलायन में भी गिरावट आयेगी। क्योंकि जब गांव में ही रोजगार मिल जायेगा तो मजबूरी में होने वाले पलायन पर तो रोक लग ही जायेगी।
भारत में वैकल्पिक कृषि के विकास के लिये जरूरी है कि सराकर उचित संसाधन और तकनीक उपलब्ध कराये, साथ ही साथ भौगोलिक विभिन्नताओं को देखते हुए अलग अलग क्षेत्र के लिये विषेष शोध कराकर उसे किसानों तक पहुंचाये ताकि समय पर उससे किसान लाभांवित हो सके। दूसरी हरित क्रांति का रास्ता वैकल्पिक कृषि से होकर ही जायेगा, इसके लिये सरकार और किसान दोनों को तैयार रहना चाहिए क्योंकि शरूआती दौर में बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। मूलतः समाज और सरकार को वैकल्पिक कृषि को नजर अंदाज नहीं करना चाहिए क्योंकि आने वाले समय में भारत और दुनियों को खाद्यान्न संकट से यही उभार सकती है। जरूरा नहीं है कि सभी फसलों में वैकल्पिक कृषि को अपनाया जाये क्योंकि जिन फसलों में परम्परागत ज्ञान से कम खर्चे पर अच्छी उपज प्राप्त हो रही है उन्हें उसी प्रकार से चलने दिया जाये। इस प्रकार एक स्तर पर परम्परागत कृषि और वैकल्पिक कृषि में सामंजस्य भी जरूरी है। चाहे किसानों की आत्महत्यों का सवाल हो या कृषि क्षेत्र में बढ़ती अन्य समस्याएं, वैकल्पिक कृषि इन सब का एक हल प्रस्तुत करती है। देष में कुछ जगहों पर इसके प्रयोग चल रहे है जो बहुत हद तक सफल भी है मगर अब इसे बड़े फलक पर उतारकर दूसरी हरित क्रांति का शंखनाद करना समय की मांग है।
वैकल्पिक कृषि को अपनाने के लिये किसानों और सरकार को एक दूसरे का सहयोगी होना पड़ेगा।
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