एषिया महाद्वीप में दक्षिण एषिया की राजनीतिक स्थिरता एक महत्वपूर्ण अध्याय है क्योंकि यह क्षे़त्र प्राकृतिक व राजनैतिक रूप से सम्पूर्ण एषिया की धूरी है। ऐसी स्थिति में दक्षिण एषिया की हर राजीतिक हलचल का प्रभाव एषिया और विष्व राजनैतिक धरातल पर नजर आता है। इस क्षेत्र में पानी विवाद एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जो समय समय पर उभरकर सामने आया है। एक ओर बढ़ती जनसंख्या और घटते प्राकृतिक संसाधन है, तो दूसरी ओर उचित जल प्रबंध नीति का अभाव है। इस पूरे परिदृष्य में पानी विवाद अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तरों पर अलग अलग संघर्षों का रूप लेता दिखाई देता है।
फिलहाल दक्षिण एषिया के सात देषों में से तीन के साथ भारत का पानी का विवाद है जो कभी शांत हो जाता है तो कभी युद्ध जैसी स्थिति तक पहुंच जाता है। भारत की आजादी के बाद से ही पाकिस्तान व नेपाल के साथ पानी के बंटवारे को लेकर नोक झोक होती रहती है। जब बंग्लादेष का उद्भव हुआ उसके साथ ही गंगा और ब्रह्मपुत्र के पानी के बंटवारे को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया।
अगर भारत पाकिस्तान के पानी विवाद पर नजर डालें तो 1960 में दोनों देषों के सिंध ुजल समझौता हुआ था जिसके तहत रावी, सतलज और व्यास भारत के हिस्से में आयी थी और सिंघु, झेलम और चिनाब पाकिस्तान के हिस्से में आयी थी। इस बंटवारे के बाद भी विवाद का हल नहीं हुआ और सिंघु नदी पर बने आयोग ने अभी तक 118 दौरे और 103 मीटिंगें हो चुकी है, विष्व बैंक से भी मध्यस्थता करवा ली लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला क्योंकि न तो दोनों सरकारें चाहती की इसका कोई हल निकले, जब पाकिस्तान में कोर्ठ आंतरिक अषांति होती है तब पहले तो कष्मीर के मुद्दे पर जनता को गुमराह किया जाता था लेकिन कष्मीर के मुद्दे से पाकिस्तान की जनता तंग आ गई इसलिये अब पानी के सवाल पर जनता को भटकाने की पाकिस्तान सरकार का नया ऐजेंडा है, यही हाल भारत का है। इन दोनों के बीच तीसरा अभिनेता अमेरिका जो कभी नहीं चाहता कि भारत पाक विवाद सुलझे क्योंकि दक्षिण एषिया में यह विवाद अमेरिका की विदेष नीति की कूटनीतिक सफलता के लिये अबूझ हथियार है। इसलिए वो विष्व बैंक के माध्यम से पानी विवाद को इधर उधर भटकाता रहता है। लेकिन अमेरिका प्राकृतिक संसाधनों को हड़पने की मुहिम में अब पानी पर भी नजर गड़ाए हुए है।
दक्षिण एषिया में पानी को लेकर विवाद इसलिए भी है कि यहां कि अधिकांष अर्थव्यवस्थायें कृषि पर निर्भरता रखती है। जिसके कारण नदीयों का पानी सिचाई का एक बहुत बड़ा साधन है। निजीकरण की इस दौड़ में प्राकृतिक संसाधनों का बेरहमी से दोहन हो रहा है और ऐसी स्थिति में राज्यों का आपस में लड़ना कोई नई बात नही है मगर भारत का पानी विवाद न केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर है बल्कि आंतरिक स्तर पर भी पानी विवाद एक बहुत बड़ी समस्या है, राजस्थान, हरियाणा, मध्यप्रदेष आदी राज्यों में भी पानी का विवाद एक बड़ा विवाद है जिसके बारे में सरकारीया आयोग ने भी सिफारिष की थी कि राज्यों के पानी विवाद को निपटाने के लिये केन्द्र को न्यायधिकरण स्थापित करना चाहिए मगर राजनीतिक स्वार्थों के चलते केन्द्र द्वारा ईमानदारी से किसी विवाद को निपटाने की जगह उसको रफा दफा कर दिया जाता है।
पिछले दिनों खबर आयी थी कि चीन ब्रह्मपुत्र को मोड़ने की कोषिष कर रहा जो भारत के लिए खतरनाक होगी और चीन ऐसा कर भी सकता है जो पिछले अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है। भारत पाकिस्तान का विवाद पानी की कमी के कारण होता है जबकि भारत नेपाल पानी विवाद इसके उल्टा है क्योंकि हर साल भारत नेपाल पर यही आरोप लगाता आ रहा है कि नेपाल के पानी छोड़ने से बाढ़ आ गयी और बिहार का बहुत बड़ा हिस्सा तबाह हो जाता है। दरअसल इस बाढ़ का जिम्मेदार नेपाल नहीं भारत खुद है क्योंकि कोसी नदी पर बने बांध के रखरखाव की जिम्मेदारी भारत की है। मगर दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि आजादी के 63 साल बाद भी एक तरफ हर साल बाढ़ आती है और एक तरफ अकाल के कारण लोग मर रहे है, इन सब के पीछे एक बड़ा कारण यही है कि उचित जल प्रबंध नीति हम अभी तक विकसित नहीं कर पाये है। नेपाल की तरफ से यह बात बार बार उठाई जाती है कि 1950 की भारत नेपाल संधी पर पुनर्विचार किया जाये, अगर सही मायने में देखा जाये तो समय के साथ परिस्थितियां व जरूरतें बदल जाती है और ऐसी स्थिति में संधी पर पुनर्विचार में कोई हर्ज नहीं है। हाल ही में भिखनाठोरी में नेपाल द्वारा पानी रोकने के मामले ने भारत को सोचने पर मजबूर कर दिया है, भिखनाठोरी नेपाल सीमा पर एक गांव है जो पास से ही पानी का उपयोग करता था जो नेपाल की सीमा में आता है, बस नेपाल ने पानी बंद कर यिा।1990 के दषक में महाकाली नदी को लेकर विवाद गहराया था जो अंतर्राष्ट्रीय दवाब के बाद सुलझ पाया था। वर्तमान प्रासंगिकता को देखते हुए संधी पर बातचीत करके समस्या का हल निकाल लेना चाहिए।
भारत और बंग्लादेष के बीच पानी का विवाद गंगा नदी को लेकर ज्यादा है जिसके पीछे बंग्लादेष का तर्क होता है कि उसे उचित पानी नहीं मिल पाता है और जो मिलता है वो भी दुषित। फरक्का बैराज को लेकर पहले पाकिस्तान के साथ भारत का विवाद था और जब बंग्लादेष का उदय हुआ तब से भी उसी रूप में बना हुआ है। बंग्लादेष की अर्थव्यवस्था भी कृषि पर निर्भर और सूखे व अन्य कारणेंा से पानी में कटोती होती है तो बहुत हद तक बंग्लादेष की अर्थव्यवस्था गडा़बड़ा जाती है, इस मामले को लेकर बंग्लादेष संयुक्त राष्ट्र संघ व विष्व बैंक की भी मध्यस्थता करवाई है लेकिन जब तक दोनों पक्ष कोई एक राय नहीं बना सकते तब तक हल मुष्किल है।
इस समय दक्षिण एषिया दुनिया का सबसे अस्थिर क्षेत्र माना जाता है क्योंकि ये क्षेत्र भूराजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है इसलिय एक तरफ अमेरिका नजर गड़ाये हुए है और दूसरी तरफ चीन भी पाकिस्तान से नजदीकीयां बढ़ाकर खुद को दक्षिण एषिया की राजनीति में शामिल करना चाहता है। अब स्थिति यह कि पानी को लेकर पाकिस्तान बढ़ा विवाद खड़ा करने की फिराक में है क्योंकि एक तो कष्मीर का मामला अब दम नही पकड़ने वाला है और दूसरा अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के सामने खुद को साफ दिखाने के लिये इसका सहारा ले सकता है। अतः भारत को भी सचेत रहना चाहिए लेकिन 2002 में बनी जल नीति में पानी के मालिकाना हक नीजि कम्पनियों को दे दिया जो नवउदारवादी नीतियों के तहत जल, जमीन और जंगल छिनने के एजेंडे की बड़ी सफलता है। दक्षिण एषिया का भविष्य पानी पर टिका हुआ है जिससे लगातार खिलवाड़ किया जा रहा है ऐसी स्थ्तिि में सार्क जैसे संघठनों को इन विवादों को सुलझाने में पहल करनी चाहिये क्योंकि बाहर का कोई यहां शांती चाहता ही नहीं है, चाहे अमेरिका हो या चीन।
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बुधवार, 9 जून 2010
सोमवार, 7 जून 2010
शिक्षा का अधिकार: चंद सवाल
जब देश का संविधान बनाया जा रहा था तो डाॅ. भीमराव अम्बेडकर से संविधान सभा के एक सदस्य ने अनुरोध किया था कि प्रस्तावित अनुच्छेद 45 में 14 साल की उम्र तक के बच्चों को मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा के वादे को घटाकर उम्र 11 साल कर देनी चाहिए क्योंकि भारत एक गरीब देश है और आधारभूत सुविधाओं का अभाव है लेकिन अम्बेडकर ने इस तर्क को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि हमें उम्र घटाने के बजाय गरीबी को मिटाना चाहिये। मगर दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि आज आजादी के 62 सालों बाद भी भारतीय समाज में शिक्षा और गरीबी के स्तर में कोई खास बदलाव नहीं आया। भारतीय समाज में शिक्षा के निम्न स्तर के दो कारण है। एक तो भारतीय शिक्षा पद्धति पर जबरन वैश्वीकरण का लिबास डाला गया और दूसरा शासक वर्गों ने शिक्षा पद्धति को जिस तरह से अंतर्राष्ट्रीय स्तर देने के कोशिश की उसके लिये भारतीय समाजीक ढ़ांचा आधारभूत तैयार नहीं था।
जब 2002 में 86 वें संविधान संशोधन द्वारा शिक्षा के अधिकार को अनुच्छेद 21 क में जोड़ा गया तो बहुत से सवाल थे जो इस अधिनियम को कठघरे में खड़ा करते है। अगर कुछ समय के लिये मान लिया जाये कि सरकार ने बहुत अच्छा कानून बनाया है जिसमें 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिये मुफ्त शिक्षा की बात कही गयी है तो उस उन्नीकृष्णन फैसले का क्या होगाा ? जिसमें कहा गया है कि 6 वर्ष तक की उम्र के हर बच्चे को संतुलित पोषाहार, स्वास्थ्य पोषणहार, स्वास्थ्य देखभाल और प्राथमिक शिक्षा का अधिकार था। सवाल सिर्फ मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा तक ही सीमित नहीं है, मुख्य सवाल है शिक्षा में गुणात्मक परिवर्तन का, क्योंकि आज बेरोजगारी की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया मगर रोजगार के अवसरों के सृजन की तरफ सरकार का कोई ध्यान नहीं है। गावों में कृषि की बिगड़ती हालत और सता की उदासीनतों के कारण लोगों को मजबूरी में शहरों की ओर पलायन करना पड़ रहा है लेकिन सरकार के पास न गावों की स्थिति को बेहतर बनाने की ठोस योजना है और न ही शहर में उचित सुविधा व रोजगार के अवसर। ऐसी स्थिति में गावों में बच्चे माता-पिता के साथ खेत के काम में हाथ बंटाते है और शहर में बाल मजदूरी के जाल में घर का खर्चा चलाने में हाथ बंटाते है। जब तक उनके माता-पिता के रोजगार व सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित नहीं किया जाता तब तक उनके पढ़ने का सवाल ही नहीं उठता। ऐसी शिक्षा से देश के विकास में कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं हो सकता है क्योंकि बच्चा जब मानसिक रूप से स्वतंत्र नहीं हो, तब तक पढ़ने में मन कैसे लग सकता है ?
अब सरकार यह दिखाने की कोशिश कर रही है कि वह शिक्षा को लेकर बहुत ही चिंतित है लेकिन अगर शिक्षा पर किये गये खर्चे को देखा जाये तो सच्चाई साफ हो जाती है। शिक्षा के खर्च का मुल्यांकन करें तो 1992 के नवउदारवादी नीतियां अपनाने के कारण शिक्षा पर खर्च लगातार घटाया जा रहा है। 2001 में जी. डी. पी. का 3.19 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया गया और 2007 में यही खर्च घटकर 2.47 प्रतिशत रह गया है। दुनियां में शिक्षा पर खर्च करने वाले देशों में भारत का स्थान 115 वां है। एक तरफ दुनियां के विकसित देश खर्चा बढ़ा रहे है, वहीं भारत शिक्षा के खर्च को घटा रहा है। तथ्य यह है कि किसी भी देश के लिये शिक्षा से अच्छा अन्य कोई निवेश का रस्ता नहीं होता है। इस विरोधोभास की स्थिति में कपिल सिब्बल साहब गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रहे हैं कि शिक्षा का अधिकार विधेयक देश की शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परीवर्तन कर देगा मगर सच्चाई यह है कि सरकार जनता को गुमराह कर रही है। क्योंकि अभी तो देश की शिक्षा व्यवस्था का आधारभूत ढ़ांचा ही सही ढ़ग से विकसित नहीं कर पाये है। आंख खोलकर देखा जाये तो ग्रामीण भारत के बहुत सक ऐसे गांव मिल जायेंगे, जहां पर सरकारी कागजों में तो स्कूल है और अघ्यापक भी तनख्वाह उठातें है मगर इमारत के नाम पर बच्चे पेड़ के निचे बैठकर पढ़ते है। कहीं पर अध्यापक नही ं है तो कही पर 100 बच्चों पर एक अध्यापक है। ऐसी स्थिति में जनता का सरकारी स्कूलों से विश्वास ही उठ गया है। एक तरफ सरकारी स्कूलों की हालत दिन प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है और वही दूसरी तरफ सरकार शिक्षा के क्षेत्र में नीजिकरण को बढ़ावा देती जा रही है। नीजिकरण की इस अंधाध्ुंाध दौड़ में गली-गली में प्राइवेट स्कूल खुल गये है, जिनकी आसमान छूती फीस गरीब आदमी नही सहन कर पाता और सरकारी स्कूलों की बिगड़ती हालत के कारण मजबूरी में बच्चों को प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना पड़ता है, जहां पर पढ़ाई कम कागजी कार्यवाही ज्यादा होती है। जिस देश में 70 प्रतिशत लोग 20 रूपये प्रतिदिन की आय पर गुजारा करते है, वहां पर प्राइवेट स्कूल में कोई कैसे अपने बच्चों को पढ़ा पायेगा।
शिक्षा का मतलब सिर्फ अक्षर ज्ञान नही होता, शिक्षा का मतलब होता है मनुष्य का शारीरिक, मानसिक और सर्वांगिण विकास मगर हमारे हुक्मरानों को यह बात समझ में नही आती शायद। अब अगर उच्च शिक्षा की बात करें तो ऐसी ही स्थिति है, न पर्याप्त शोध के साधन है और न ही अवसर। पिछले दिनों 144 फर्जी विश्वविधालयों के मामले ने फिर से सरकार को चुनौती दी है कि शिक्षा के नाम पर इस देश में बहुत बड़ी दलाली चल रही है जो न केवल उच्च शिक्षा में बल्कि प्राथमिक शिक्षा के स्तर स्थिति ओर भी भयानक है। सरकार विदेशी विश्वविधालयों को भी भारत में लाने की फिराक में है मगर जब देश के विश्वविधालयों की विश्वनीयता पर सवाल खड़ा होता है तब विदेशी विश्वविधालयों पर कैसे विश्वास किया जायेगा, आखिर भारत में केम्ब्रीज व आॅक्सफोर्ड तो अपनी शाखाएं खालने नही जा रहे है।
वैसे भी समान व स्तरीय शिक्षा उपलब्ध कराने का दायीत्व सरकार का है लेकिन भारतीय लोकतंत्र में यह अधिकार भी 63 साल बाद दिया गया और उसमें भी शिक्षा की गुणवता के बारे में कोई ख्याल नहीं किया गया है। खैर, जनता को दे दिया- एक ओर लोलीपोप।
जब 2002 में 86 वें संविधान संशोधन द्वारा शिक्षा के अधिकार को अनुच्छेद 21 क में जोड़ा गया तो बहुत से सवाल थे जो इस अधिनियम को कठघरे में खड़ा करते है। अगर कुछ समय के लिये मान लिया जाये कि सरकार ने बहुत अच्छा कानून बनाया है जिसमें 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिये मुफ्त शिक्षा की बात कही गयी है तो उस उन्नीकृष्णन फैसले का क्या होगाा ? जिसमें कहा गया है कि 6 वर्ष तक की उम्र के हर बच्चे को संतुलित पोषाहार, स्वास्थ्य पोषणहार, स्वास्थ्य देखभाल और प्राथमिक शिक्षा का अधिकार था। सवाल सिर्फ मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा तक ही सीमित नहीं है, मुख्य सवाल है शिक्षा में गुणात्मक परिवर्तन का, क्योंकि आज बेरोजगारी की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया मगर रोजगार के अवसरों के सृजन की तरफ सरकार का कोई ध्यान नहीं है। गावों में कृषि की बिगड़ती हालत और सता की उदासीनतों के कारण लोगों को मजबूरी में शहरों की ओर पलायन करना पड़ रहा है लेकिन सरकार के पास न गावों की स्थिति को बेहतर बनाने की ठोस योजना है और न ही शहर में उचित सुविधा व रोजगार के अवसर। ऐसी स्थिति में गावों में बच्चे माता-पिता के साथ खेत के काम में हाथ बंटाते है और शहर में बाल मजदूरी के जाल में घर का खर्चा चलाने में हाथ बंटाते है। जब तक उनके माता-पिता के रोजगार व सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित नहीं किया जाता तब तक उनके पढ़ने का सवाल ही नहीं उठता। ऐसी शिक्षा से देश के विकास में कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं हो सकता है क्योंकि बच्चा जब मानसिक रूप से स्वतंत्र नहीं हो, तब तक पढ़ने में मन कैसे लग सकता है ?
अब सरकार यह दिखाने की कोशिश कर रही है कि वह शिक्षा को लेकर बहुत ही चिंतित है लेकिन अगर शिक्षा पर किये गये खर्चे को देखा जाये तो सच्चाई साफ हो जाती है। शिक्षा के खर्च का मुल्यांकन करें तो 1992 के नवउदारवादी नीतियां अपनाने के कारण शिक्षा पर खर्च लगातार घटाया जा रहा है। 2001 में जी. डी. पी. का 3.19 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया गया और 2007 में यही खर्च घटकर 2.47 प्रतिशत रह गया है। दुनियां में शिक्षा पर खर्च करने वाले देशों में भारत का स्थान 115 वां है। एक तरफ दुनियां के विकसित देश खर्चा बढ़ा रहे है, वहीं भारत शिक्षा के खर्च को घटा रहा है। तथ्य यह है कि किसी भी देश के लिये शिक्षा से अच्छा अन्य कोई निवेश का रस्ता नहीं होता है। इस विरोधोभास की स्थिति में कपिल सिब्बल साहब गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रहे हैं कि शिक्षा का अधिकार विधेयक देश की शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परीवर्तन कर देगा मगर सच्चाई यह है कि सरकार जनता को गुमराह कर रही है। क्योंकि अभी तो देश की शिक्षा व्यवस्था का आधारभूत ढ़ांचा ही सही ढ़ग से विकसित नहीं कर पाये है। आंख खोलकर देखा जाये तो ग्रामीण भारत के बहुत सक ऐसे गांव मिल जायेंगे, जहां पर सरकारी कागजों में तो स्कूल है और अघ्यापक भी तनख्वाह उठातें है मगर इमारत के नाम पर बच्चे पेड़ के निचे बैठकर पढ़ते है। कहीं पर अध्यापक नही ं है तो कही पर 100 बच्चों पर एक अध्यापक है। ऐसी स्थिति में जनता का सरकारी स्कूलों से विश्वास ही उठ गया है। एक तरफ सरकारी स्कूलों की हालत दिन प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है और वही दूसरी तरफ सरकार शिक्षा के क्षेत्र में नीजिकरण को बढ़ावा देती जा रही है। नीजिकरण की इस अंधाध्ुंाध दौड़ में गली-गली में प्राइवेट स्कूल खुल गये है, जिनकी आसमान छूती फीस गरीब आदमी नही सहन कर पाता और सरकारी स्कूलों की बिगड़ती हालत के कारण मजबूरी में बच्चों को प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना पड़ता है, जहां पर पढ़ाई कम कागजी कार्यवाही ज्यादा होती है। जिस देश में 70 प्रतिशत लोग 20 रूपये प्रतिदिन की आय पर गुजारा करते है, वहां पर प्राइवेट स्कूल में कोई कैसे अपने बच्चों को पढ़ा पायेगा।
शिक्षा का मतलब सिर्फ अक्षर ज्ञान नही होता, शिक्षा का मतलब होता है मनुष्य का शारीरिक, मानसिक और सर्वांगिण विकास मगर हमारे हुक्मरानों को यह बात समझ में नही आती शायद। अब अगर उच्च शिक्षा की बात करें तो ऐसी ही स्थिति है, न पर्याप्त शोध के साधन है और न ही अवसर। पिछले दिनों 144 फर्जी विश्वविधालयों के मामले ने फिर से सरकार को चुनौती दी है कि शिक्षा के नाम पर इस देश में बहुत बड़ी दलाली चल रही है जो न केवल उच्च शिक्षा में बल्कि प्राथमिक शिक्षा के स्तर स्थिति ओर भी भयानक है। सरकार विदेशी विश्वविधालयों को भी भारत में लाने की फिराक में है मगर जब देश के विश्वविधालयों की विश्वनीयता पर सवाल खड़ा होता है तब विदेशी विश्वविधालयों पर कैसे विश्वास किया जायेगा, आखिर भारत में केम्ब्रीज व आॅक्सफोर्ड तो अपनी शाखाएं खालने नही जा रहे है।
वैसे भी समान व स्तरीय शिक्षा उपलब्ध कराने का दायीत्व सरकार का है लेकिन भारतीय लोकतंत्र में यह अधिकार भी 63 साल बाद दिया गया और उसमें भी शिक्षा की गुणवता के बारे में कोई ख्याल नहीं किया गया है। खैर, जनता को दे दिया- एक ओर लोलीपोप।
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शिक्षा का अधिकार
शनिवार, 5 जून 2010
मंटो को खत
सुबह उठते ही मुझे याद आया कि आज तो 11 मई है, उर्दू के महान कथाकार सहादत हसन मंटो का जन्मदिन है। मंटो का ख्याल आते ही ‘टोबा टेक सिंह’ से लेकर ‘ठंडा गोस्त’ तक यानी पूरा मंटो मेरे सामने खड़ा हो गया, बिल्कुल होषोहवास में। मुझे तो भरोसा ही नही हो रहा था कि मंटो जैसा बिंदास आदमी बिना पीये आज ख्याल में कैसे आ गया? इस सवाल का जवाब मैंने खुद ही तलाषा क्योंकि तब तक मंटो मेरे ख्याल से जा चुका था, शायद कड़वी शरबत पीने। उर्दू का सर्वाधिक विवादित और चर्चित लेखक मंटो कि पहचान थी कि उसके साहित्य में कुछ भी बनावटी नहीं था, जो समाज में देखा उसे बेझिझक और बिना डरे हुए सपाट तरिके से बयां किया। समाज का झुठा गिलाफ उधेड़ने के बदते में उसे वो सब भी सहन करना पड़ा जो शायद लीक से हटकर न लिखता तो नहींे सहना पड़ता और वो ही उसकी पहचान है। वो वक्त भी ऐसा वक्त था जब हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दो अलग अलग मुल्क बन रहे थे, बेहिसाब लोग मारे जा रहे थे ओर मंटो जैसी बैचेन रूंह अमन के रास्ते ढूंढ़ रही थी। न इधर कोई हुकूमत थी न उधर, अब आप ही बताये कि ऐसा आदमी जो सोचने का काम दिमाग से नहीं दिल से करता हो वो इन परिस्थितियों में होष में कैसे रह सकता है? लेकिन वो ही अकेला होष में था बाकि सब होष खो चुके थे, मर रहे थे और मार रहे थे- इधर से भी, उधर से भी। मंटो ने जिस भी विषय को उठाया, उसकी गहराई तक जाकर, बड़ी ही बारकी से हर पहलू को उकेरा। कभी कभी लगता है कि मंटो असल में एक ऐसा कहानीकार था जो कहानी के हर पात्र के दिल और दिमाग को पकड़ता था। उसके साहित्य में खुबसुरत शब्दों की कमी थी लेकिन मानवीय मनोविज्ञान से वो ऐसा परिदृष्य गढ़ देता है कि पाठक को मानसिक रूप से झकझोर देती है। मंटोे के साहत्यि की विषय, शैली, प्रवृति और विविधता उसे दक्षिण एषिया का प्रतिनिधि कथाकार बना दिया, ‘टोबा टेक ंिसंह’ तो विष्व कर कालजयी रचनाओं में शामिल है। अष्लीलता के आरोप में मंटो पर कई मुकदम भी चले मगर पाठक मंटो का कायल था और आज भी है। जब भी कुछ पढ़ने का मन न करे मंटो को उठा लीजिये, हर बार कुछ नया मिल ही जायेगा। जो लोग उस वक्त मंटो को अष्लील कहते थे, वो तो आज भी कह सकते है क्योंकि समाज में औरत और मर्द के के रिष्तों को लेकर तो अभी भी वो ही मान्यताएं है, चाहे हिन्दुस्तान हो या फिर पाकिस्तान। बस! आज का दिन मंटो की तरह जीना था, सोचा कोई कहानी लिखुं। बहुत सोचा लेकिन कोई विषय वस्तु ही नही नजर आ रही थी। वैसे तो कई विषय थे, जैसे- मेरे गांव की लड़की अपनी ही जात के लड़के से प्रेम कर लिया और उसे जात पंचायत ने मौत की सजा सुना दी, उर्मिला को इसलिये जहर दिया गया कि वो विधवा होकर किसी से संबंध रखती थी, ऐसे अनेक उदाहरण थे जिन पर कहानी लिख सकता था लेकिन मेरे परीवार को उस गांव में ही रहना था। मैं कितना डरपोक हूं और तुम कितने निडर थे। सो, मैंने इस विचार को त्याग दिया और सोचा शहर का ही कोई विषय चुन लेता हूं। एक विषय पर कहानी लिखना भी शुरू कर दिया, हर लाइन लिखकर तेरे से तुलना करता तो कहानी लिखने का इरादा हमेषा के लिये त्याग देता। गजब का आदमी था और लिखने का भी गजब का अंदाज था। कुछ लोग कहते है कि वो तरक्कीपसंद था, कुछ कहते है कि अष्लील था मगर हकिकत तो यह है कि उसे किसी भी सांचे में फिट नहीं किया जा सकता है उसका आकार ही निराला था, जो भी हो वो कलम का सच्चा सिपाही जरूर था। रात के वक्त गंदा पानी पीकर लिखने बैठ गया, कुछ तो लिखना ही था क्योंकि आज मेरे प्रिय कथाकार का जन्मदिन था। जो लिखा वो मंटो के नाम एक पत्र था और उसे बड़ी ईमानदारी से आपके हवाले करता हॅूं-
‘देखो मंटो! मैने आज का पूरा दिन तेरी तरह जीने की कोषिष की है और शायद कुछ हद तक जी भी लिया, तेरी नजर से दुनियां को समझने की कोषिष की और थोड़ा बहुत समझ भी लिया लेकिन जब तेरी तरह से लिखने कि कोषिष की तो तो काली सलवार मेरा पिछा ही नहीं छोड़ रही थी..............अब देख भई! तुने मेरे ख्यालात चुराये है और उनकी किमत तुझे चुकानी पड़ेगी। बतादे यार! कैसे लिखता था तू?’
‘देखो मंटो! मैने आज का पूरा दिन तेरी तरह जीने की कोषिष की है और शायद कुछ हद तक जी भी लिया, तेरी नजर से दुनियां को समझने की कोषिष की और थोड़ा बहुत समझ भी लिया लेकिन जब तेरी तरह से लिखने कि कोषिष की तो तो काली सलवार मेरा पिछा ही नहीं छोड़ रही थी..............अब देख भई! तुने मेरे ख्यालात चुराये है और उनकी किमत तुझे चुकानी पड़ेगी। बतादे यार! कैसे लिखता था तू?’
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मंटो
बुधवार, 2 जून 2010
आधी अँधेरी दुनियां
समाज में चेतना, जागरूकता और षिक्षा फैलाने वाले यंत्र कम होते जा रहे है, जबकि अंधविष्वास और पाखंड नई तकनीक के सहारे बढ़ते जा रहे है। कई सारे टी. वी. चैनलों का उदाहरण दिया जा सकता है जो बिना तर्क व तथ्यों के सुबह से लेकर शाम तक लोगों को मानसिक रूप से विकलांग बनाते रहते है। संचार के माध्यमों का समाज के विकास में बहुत बड़ा योगदान होता है मगर हमारे संचार तंत्र उपभोक्तावादी संस्कृति के षिकार होकर सामाजिक जिम्मेदारीयों से दूर होते जा रहे है। टी. वी. चैनलो पर टी. आर. पी. बढ़ाने के चक्कर में ऐसे प्रोग्राम पेष किये जाते है, जिनका नैतिकता और सामाजिक सरोकारों से कोई लेना देना नहीं होता है। संचार के माध्यमों का उदेष्य केवल मात्र मनोरंजन कराना ही नहीं होता है बल्कि समाज में व्याप्त बुराईयों के प्रति लोगों को जागरूक करना भी होता है। हालांकि कुछ कार्यक्रम सामाजिक विद्रुपताओं पर भी बनाये जाते है, मगर उनकी पैकेजिंग और सृजनात्मक प्रक्रिया बाकि के कार्यक्रमों से निम्न स्तर की होती है जिसके कारण उनमें लोगों की रूची नहीं बन पाती है। मसलन पहले टी. वी. को एक सामाजिक बदलाव के सषक्त माध्यम के रूप में देखा जाता था और वो था भी। लेकिन अब टी. वी. चैनलों पर बाजार का इतना ज्यादा दवाब आ गया है कि वो एक स्वायत निकाय की जगह बाजार का हिस्सा बन गये है। टी. वी. चैनलों को देष की सामाजिक स्थिति में अपनी भूमिका फिर से तय करनी चाहिये ताकि विकास में उनकी सकारात्मक मौजूदगी रहे।
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मंगलवार, 1 जून 2010
ये सूरत बदलनी चाहिये
दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि आजादी के 6 दषक बाद भी भारतीय लोकतंत्र में समानान्तर न्यायिक प्रक्रिया ‘खाप पंचायत’ के तहत चल रही है जिसके पिछे एक पूरा इतिहास है। ‘खाप पंचायत’ एक पुरानी सामाजिक प्रषासनिक व्यवस्था है जिसका वर्णन ऋग्वेद में मिलता है, जहां पर जाति या गौत्र का मुखिया चुना जाता था, जिसे ‘चैधरी’ कहा जाता था। पुरूषप्रधान समाज होने के कारण इस पंचायत में स्त्रियों को कोई अधिकार नहीं दिया गया है। मगर कालान्तर में इस व्यवस्था का ‘चैधरी’ का पद जन्मगत हो गया। द्वितिय विष्व युद्ध में इन चैधरीयों ने अंगे्रजों की खूब मदद की तो अंग्रेजों ने जागीरें दे दी। हर गांव में 5-7 गौत्रों के लोग रहते थे जिन्हें ‘भाईचारे का रूप देकर आपस में शादी नहीं करते थे और ये ही पंचायते अब ‘खाप पंचायत’ के तहत युवाओं की स्वतंत्रता पर नकेल कसी जा रही है। यह सब मामला ‘इज्जत’ बचाने के नाम पर किया जा रहा है, जब दुनियां चांद पर बसने के प्लान बना रही है तो भारत में पांच सौ साल पीछे जाने की बात हो रही है। इसके पीछे एक सबसे बढ़ा कारण है कि समाज में स्त्रियों को एक उपभोग की वस्तु के रूप में देखा जाता है। ‘खाप पंचायत’ के अंतर्गत पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मघ्यप्रदेष और पष्चिमी उतर प्रदेष आदी वही इलाका है, जहां पर भ्रूण हत्या एक फैषन बन गया था। इसके कोई लिखित नियम भी नही है, ‘चैधरी’ तय कर देता है वो सर्वमान्य है। स्त्रियों भागीदारी की बात करें तो पर्दाप्रथा के तहत उन्हें तो बोलने का भी अधिकार नहीं है, चाहे कितना ही जुल्म हो। शायद दुनियां कि एकमात्र बिना गवाह की अदालत होगी- खाप पंचायत। अब मामला यह है कि देष में हर व्यस्क नागरिक को फैसला लेने कर अधिकार है और अगर दो व्यस्क स्त्री पुरूष अपनी ज़िदगी के बारे में साथ रहने का फैसला करते है तो कानूनी रूप से वैध है। लेकिन जाति पंचायतों को यह मंजूर नहीं अगर अपने ही गौत्र में कोई शादी करता है तो उसके खिलाफ यह तर्क देते है कि इनके बीच तो भाई बहन का रिष्ता है और अंर्तजातिय विवाह करते है तो ‘इज्जत’ का सवाल खड़ा कर देते है। अब बताये कि किससे शादी करें? दरअसल इस देष में जरति व्यवस्था की जड़े इतनी गहरी है कि अभी भी राजनीति से लेकर सामाजिक ढ़ंाचा इसके चक्कर लगाता हुआ नजर आ रहा है। इसी के कारण आज खाप पंचायते न केवल अस्तित्व में हैं बल्कि धड़ले से रोज फैसले सुनकार बेगुनाहों की ज़िंदगीयों को तबाह भी कर रही हंै। पंचायती राज के तहत चुने हुए पदाधिकारी भी असमर्थ दिखाई देते है क्योंकि या तो वो भी ऐसी मान्यताओं को मानते है या फिर वोट बैंक के डर से कुछ करते नही। अभी तो खाप पंचायतें इसलिये चर्चा में है क्योंकि मीडिया ने इस को मुद्दा बना रखा है वरना ये पहले भी अस्तित्व में थी और इनसे अमानवीय फैसले देती थी। यही वोट बैंक की राजनीति सता के ऊंचे गलियारों की है, वो भी कुर्सी के डर से मूकदर्षक बना रहता है। अगर बात करें न्याय प्रणाली की तो पहली बात तो धन और बाहुबल के कारण बहुत से मामले अदालत के दरवाजे तक जाते ही नहीं, अगर कोई किसी तरह अदालत का दरवाजा खटखटाता है तो वहां भी इंसाफ की कम ही उम्मीद रहती है क्याकि अदालत सबूत और गवाह मागंती है लेकिन पूरी जाति व बिरादरी के सामने गवाही देने के लिये कोई भी तैयार नहीं होता और इस तरह मामला रफा दफा हो जाता है। इन खाप पंचायतों का प्रभाव इतना अधिक है कि एक पंचायत 84 गांवों को देखती है यानी अपने स्तर पर एक दूसरी शासन व्यवस्था जिसका समाज में वैधानिक आधार नहीं है। लेकिन मौत तक फैसले सुना देती और समाज को उन्हें मानना भी पड़ता है जबकि देष में सवैधानिक रूप से लोकतंत्र है। इसके पीछे मुख्य कारण है कि जातिव्यवस्था हमारे समाज की रगो में खून की तरह बह रह है, षिक्षा के अभाव में लोगों का दिमाग सामन्तवादी सोच और अंधविष्वास से बाहर निकलने की कोषिष भी नही करता। सामाजिक स्तर पर इतनी विद्रुपताएं आ गई है कि जो लोग प्रषासन और न्यायिक प्रक्रिया में है वो भी रूढ़ीवादी मानसिकता में घिरे हुए होने के कारण ऐसे लोगों को शह मिलती है। दूसरी और वोट बैंक के कारण राजनीतिक महत्व के लोग भी चुपि साधे हुये रहते है। अब सवाल उठता है कि समाज को ऐसी स्थिति से कैसे बाहर निकाला जाये, सबसे पहले तो षिक्षा के स्तर को लगातार बढ़ाना पड़ेगा और स्त्री सशक्तिकरण को बढ़ावा देकर लिंग के आधार पर समाज में बराबरी लानी होगी और उसके साथ ही जाति व्यवस्था को सिरे से समाप्त करना होगा।
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खाप पंचायत
सोमवार, 31 मई 2010
दाड़ी का दर्द
‘अयोध्या’ हमेशा से इस देश के राजनीतिक गलियारों में फुटबाल की तरह उछाला जाता है। साम्प्रदायिक ताकतों ने जिस तरह से अयोध्या को लेकर अपने तुच्छ स्वार्थों की रोटी सेकी है, वो हमारे देश की धर्मनिरपेक्षता पर ही सवाल खड़ा कर देती है। अभी लिब्राहन आयोग की रिर्पोट ने फिर से इस आग को हवा देने का काम किया है। इसी वक्त संयोग से अयोध्या जाना हो गया। अयोध्या व फैजाबाद के कुछ साथी अमर शहीद अशफाक उल्ला खाँ व प. रामप्रसाद बिस्मिल की शहादत पर पिछले तीन सालों से हर साल एक फिल्म समारोह का आयोजन करते आ रहे है। इस फिल्म समारोह का उद्देश्य धार्मिक सौहादर्य व भाईचारे को बढावा देना है। जिस प्रकार से अमर शहीद अशफाक उल्ला व राम प्रसाद बिस्मिल ने धर्म से ऊपर उठकर अग्रेंजी हुकुमत से संघर्ष किया था, उसी सांझी विरासत को कायम करने के लिए आयोजित तीसरे अयोध्या फिल्म उत्सव में मुझे भी बुलाया गया।
फिल्म उत्सव के उदघाटनीय सत्र की समाप्ति के बाद मैंने दोस्तों से विवादित स्थल को देखने की इच्छा जताई। साथी गुफरान भाई ने अपनी मोटर साईकिल पर बैठाकर मुझे महतं युगलकिशोर शास्त्री जी के पास लाये और बोले मेरा जाना ठीक नहीं है, आप शास्त्री जी के किसी आदमी के साथ दर्शन कर आइये।’ शास्त्री जी ने एक आदमी को मेरे साथ कर दिया कि इन्हें दर्शन करा दीजिये। मैं, गुफरान भाई और शास्त्री जी के मित्र तीनों, शास्त्री जी के घर से कुछ ही कदम चले थे, कि पीछे से दो लोगों ने आकर रोक लिया गुफरान भाई ने अपना नाम बताया और कहा मैं फैजाबाद का रहने वाला हूँ। इतने मैं एक मेरी तरफ इशारा करके वाला ‘ तब तो यह जरुर कश्मीर के होंगे?’ मैंने पुछा,‘ आप कौन इस तरह हमारेे बारे में पुछने वाले?’ जवाबः ‘हम इंटेलिजेंस के आदमी है।’ दुसरे ने तुरन्त पुछा कि ,‘ तुम्हारा नाम क्या है?’ जब ‘संदीप’ नाम सुना तो उनका शक ओर गहरा हुआ। मेरी दाड़ी में उन्हें पता नही क्या-क्या दिखने लगा। कई उल्टे-पुल्टे सवाल पुछने लगे।
जब से दाड़ी आयी है तब से मुझे दाड़ी रखने का शौक रहा है मगर आज अहसास हुआ कि दाड़ी रखने से आम आदमी ही नहीं इंटेलिजेंस वाले भी शक की निगाहों से देखने लग जाते है। मेरे घर का पता, फोन नम्बर से
लेकर सब पुछताछ करने के बाद पहचान पत्र भी दिखाया मगर मेेरे पास ऐसा कोई लिखित दस्तावेज नहीं था कि जो उनके लिये प्रमाण बनता।
जिसमें लिखा हो कि मैं आंतकवादी नहीं हूँ। तुरन्त मेरी पहचान को लेकर जांच शुरु हो गई। अयोध्या आने से लेकर ठहरने तक के स्थानों की जाँच पडता शुरू। फिर मुझे विवादित जगह पर जाने के लिए तो बोल दिया मगर इंटेलिजेंस वाले 100 कदम की दूरी पर पिछे -पिछे चल रहे थे । हर पुलिस वाला मुझे नजर गड़ाकर देख रहा था। जब विवादित जगह पहंुचा तो सबकी थोड़ी- बहुत जांच कर रहे थे मगर दाड़ी को देखकर मेरी आधा घण्टे गेट पर ही पुरी जन्मपत्री खंखाली गई। जब गेट से आगे पहुंचा तो फिर पुलिस ने मुझे एक तरफ ले जाकर पुछताछ शुरू कर दी । मेरा पर्स निकाल कर तमाम कांटेक्ट नम्बरों को सर्च किया गया और मुझ से सवाल किया कि, ‘ये मीडिया के इतने नम्बर लेकर क्यूँ घूमते हो?’ इन सब का एक ही कारण था-दाड़ी। मेरे जेब से एक पुरानी रशीद निकली जो शर्ट के साथ धुलने के कारण उस पर कुछ लकीर सी देख रही थी। एक पुलिस वाला बोला,’ यह किसका नक्शा है।’ मैंने बताया कि कोई रसीद है जो शर्ट के साथ धुल गई। उस पुलिस वाले से मैंने सवाल किया कि ,‘आखिर आप मुझे इतना चैक क्यूं कर रहे है?’ उत्तर वही था कि तुम्हारी दाड़ी है और तुम आंतकवादी हो सकते है। जिन्दगी में पहली बार मुझे दाड़ी के महत्व का अहसास हो रहा था। आम आदमी कोई भी मुझे से दाड़ी को लेकर पुछताछ नहीं की मगर पुलिस ने तीन घण्टे तक एक ही सवाल में उलझाया रखा कि ‘ये दाड़ी क्यों है?’ अब मैं उन्हें कैसे समझाता कि भाई साहब! यह मेरा शौक है और आजाद भारत में कोई भी आदमी दाड़ी बढ़ा कर घूम सकता है।
जब विवादित ढांचे पर पंहुचा तो पण्डित भी प्रसाद देते हुए मुझे गौर से देख रहा था। मैं हाथ में प्रसाद लेकर बाहर निकल रहा था कि अचानक बन्दर ने मेरे हाथ से प्रसाद छीन लिया। मेरे दिल में आया कि भाई बन्दर ! ये दाड़ी भी दो -चार घण्टे के लिए तुम छीन कर ले जाओ तो इस मुसीबत से तो छुटकारा मिले। सुरक्षा के नाम पर सरकार 8 करोड़ रुपये हर महीने अयोध्या में खर्च करती है। मगर वहां के विकास का स्तर देख कर सब समझ में आ जाता है। खैर, सरकार जाने, उसकी सुरक्षा जाने पर मेरी दाड़ी पर तो कम से कम मेरा हक है कि मैं कटाऊँ या फिर बढ़ाऊँ। विवादित स्थल से बाहर निकले तो इंटेलिजेंस वाले तैयार खड़े थे, बोले,‘अब क्या प्लान है, सब जानकारी दो।’ मैने कहा,‘भाई! सीधा दिल्ली जाऊंगा।’
गुफरान भाई ने बताया कि स्थिति बहुत भयानक है, धर्म के ठेकेदारों के साथ-साथ पुलिस भी हिटलरशाही के रंग में रंगी हुई। शाम को जब ट्रेन से
वापस लौट रहा था तब विदा करते समय गुफरान भाई ने कहा था,‘ संदीप भाई! दाड़ी बनवा लेना यार .....................
जनसता 9 फरवरी 2010 को प्रकाषित
फिल्म उत्सव के उदघाटनीय सत्र की समाप्ति के बाद मैंने दोस्तों से विवादित स्थल को देखने की इच्छा जताई। साथी गुफरान भाई ने अपनी मोटर साईकिल पर बैठाकर मुझे महतं युगलकिशोर शास्त्री जी के पास लाये और बोले मेरा जाना ठीक नहीं है, आप शास्त्री जी के किसी आदमी के साथ दर्शन कर आइये।’ शास्त्री जी ने एक आदमी को मेरे साथ कर दिया कि इन्हें दर्शन करा दीजिये। मैं, गुफरान भाई और शास्त्री जी के मित्र तीनों, शास्त्री जी के घर से कुछ ही कदम चले थे, कि पीछे से दो लोगों ने आकर रोक लिया गुफरान भाई ने अपना नाम बताया और कहा मैं फैजाबाद का रहने वाला हूँ। इतने मैं एक मेरी तरफ इशारा करके वाला ‘ तब तो यह जरुर कश्मीर के होंगे?’ मैंने पुछा,‘ आप कौन इस तरह हमारेे बारे में पुछने वाले?’ जवाबः ‘हम इंटेलिजेंस के आदमी है।’ दुसरे ने तुरन्त पुछा कि ,‘ तुम्हारा नाम क्या है?’ जब ‘संदीप’ नाम सुना तो उनका शक ओर गहरा हुआ। मेरी दाड़ी में उन्हें पता नही क्या-क्या दिखने लगा। कई उल्टे-पुल्टे सवाल पुछने लगे।
जब से दाड़ी आयी है तब से मुझे दाड़ी रखने का शौक रहा है मगर आज अहसास हुआ कि दाड़ी रखने से आम आदमी ही नहीं इंटेलिजेंस वाले भी शक की निगाहों से देखने लग जाते है। मेरे घर का पता, फोन नम्बर से
लेकर सब पुछताछ करने के बाद पहचान पत्र भी दिखाया मगर मेेरे पास ऐसा कोई लिखित दस्तावेज नहीं था कि जो उनके लिये प्रमाण बनता।
जिसमें लिखा हो कि मैं आंतकवादी नहीं हूँ। तुरन्त मेरी पहचान को लेकर जांच शुरु हो गई। अयोध्या आने से लेकर ठहरने तक के स्थानों की जाँच पडता शुरू। फिर मुझे विवादित जगह पर जाने के लिए तो बोल दिया मगर इंटेलिजेंस वाले 100 कदम की दूरी पर पिछे -पिछे चल रहे थे । हर पुलिस वाला मुझे नजर गड़ाकर देख रहा था। जब विवादित जगह पहंुचा तो सबकी थोड़ी- बहुत जांच कर रहे थे मगर दाड़ी को देखकर मेरी आधा घण्टे गेट पर ही पुरी जन्मपत्री खंखाली गई। जब गेट से आगे पहुंचा तो फिर पुलिस ने मुझे एक तरफ ले जाकर पुछताछ शुरू कर दी । मेरा पर्स निकाल कर तमाम कांटेक्ट नम्बरों को सर्च किया गया और मुझ से सवाल किया कि, ‘ये मीडिया के इतने नम्बर लेकर क्यूँ घूमते हो?’ इन सब का एक ही कारण था-दाड़ी। मेरे जेब से एक पुरानी रशीद निकली जो शर्ट के साथ धुलने के कारण उस पर कुछ लकीर सी देख रही थी। एक पुलिस वाला बोला,’ यह किसका नक्शा है।’ मैंने बताया कि कोई रसीद है जो शर्ट के साथ धुल गई। उस पुलिस वाले से मैंने सवाल किया कि ,‘आखिर आप मुझे इतना चैक क्यूं कर रहे है?’ उत्तर वही था कि तुम्हारी दाड़ी है और तुम आंतकवादी हो सकते है। जिन्दगी में पहली बार मुझे दाड़ी के महत्व का अहसास हो रहा था। आम आदमी कोई भी मुझे से दाड़ी को लेकर पुछताछ नहीं की मगर पुलिस ने तीन घण्टे तक एक ही सवाल में उलझाया रखा कि ‘ये दाड़ी क्यों है?’ अब मैं उन्हें कैसे समझाता कि भाई साहब! यह मेरा शौक है और आजाद भारत में कोई भी आदमी दाड़ी बढ़ा कर घूम सकता है।
जब विवादित ढांचे पर पंहुचा तो पण्डित भी प्रसाद देते हुए मुझे गौर से देख रहा था। मैं हाथ में प्रसाद लेकर बाहर निकल रहा था कि अचानक बन्दर ने मेरे हाथ से प्रसाद छीन लिया। मेरे दिल में आया कि भाई बन्दर ! ये दाड़ी भी दो -चार घण्टे के लिए तुम छीन कर ले जाओ तो इस मुसीबत से तो छुटकारा मिले। सुरक्षा के नाम पर सरकार 8 करोड़ रुपये हर महीने अयोध्या में खर्च करती है। मगर वहां के विकास का स्तर देख कर सब समझ में आ जाता है। खैर, सरकार जाने, उसकी सुरक्षा जाने पर मेरी दाड़ी पर तो कम से कम मेरा हक है कि मैं कटाऊँ या फिर बढ़ाऊँ। विवादित स्थल से बाहर निकले तो इंटेलिजेंस वाले तैयार खड़े थे, बोले,‘अब क्या प्लान है, सब जानकारी दो।’ मैने कहा,‘भाई! सीधा दिल्ली जाऊंगा।’
गुफरान भाई ने बताया कि स्थिति बहुत भयानक है, धर्म के ठेकेदारों के साथ-साथ पुलिस भी हिटलरशाही के रंग में रंगी हुई। शाम को जब ट्रेन से
वापस लौट रहा था तब विदा करते समय गुफरान भाई ने कहा था,‘ संदीप भाई! दाड़ी बनवा लेना यार .....................
जनसता 9 फरवरी 2010 को प्रकाषित
एक सच यह भी
राजस्थान के शहरों में घूमते हुए राजशाही के पुराने निशान देखने पर दिमाग में उस ज़माने कि तस्वीर कौंध जाती है जिस समय इनको बनाया गया था क्यूंकि महल, किले, झील और अन्य राजशाही निशां बनाने के पीछे विलासिता के अलावा एक तर्क ये भी था कि इनके माध्यम से राजघराने जनता में अपना प्रभुत्व व शानों शौकत बरक़रार रखना चाहते थे. क्यूंकि उनके पास इनके अलावा अन्य कोई कार्य नहीं था, युद्ध, वीरता और रणभूमि तो पुराने शब्दकोषों कि शोभा बढ़ा रहे थे जिन्हें इतिहास को याद रखने के लिए चारण और भाटों को पैसा दे कर गवाया जाता था. यूरोपीय राजघरानों कि तरह राजस्थान के राजघराने भी आपस में 'रोटी और बेटी' का सम्बन्ध रखते थे, इसके अलावा सबसे बड़ा सम्बन्ध एक दुसरे के हितों कि रक्षा करना भी था. अकलराहत कार्यों के नाम पर बनवाए गये यह महल अपने पीछे शोषण की एक दास्ताँ को भी छुपाये हुए है. बेगार और बंधुआ जैसे शब्दों की उत्पति के बीज भी इन हवेलियों की नीवों में दबे पड़े है. सालभर में आमदमी पर 40 - 45 प्रकार के कर लगाये जाते थे जिनकी वसूली की कई कड़ियाँ थी जो अपने अपने स्तर पर अमानवीय रूप से शोषण करती थी.
मुल्क की आजादी के वक्त अंग्रेजों के साथ साथ इनके राज्य का सूर्य भी अनंतकाल के लिए अस्त हो गया. जिस समय मुल्क में आजादी की खुशियाँ मनाई जा रही थी उस समय इनके महलों के नगाड़े ओंधे पड़े थे.अपने राज्य को भारतीय संघ में विलय करवाने हेतु विलय संधि पर हस्ताक्षर करने गए जोधपुर नरेश की पहनी हुई काली पगड़ी सभी रजवाड़ों की मनोस्तिथि बयां कर रही थी.
आजादी के साथ व्यवस्था तो बदल गयी लेकिन रजवाड़ों की मानसिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया जिसका उदहारण आपको राजस्थान के छोटे से गाँव से लेकर भूतपूर्व रियासतों में देख सकते है, एक गाँव के राजपूत के पास खाने के लाले पड़ते है मगर वो खुद को रावला कहलाना ही पसंद करता है और चाहता है की हर कोई आकर ड्योढ़ी पर माथा झुकाए, यही हाल भूतपूर्व रियासतों के है जिनकी बहुत सी सम्पति तो दारू और पता नहीं कहाँ कहाँ उड़ गयी और जो बची खुची चोरवाली लंगोट है उसके दमपर अब भी राजस्थान को राजपुताना बनाने के ख्वाब देखते है. परन्तु जो बड़ी रियासतें है जिनके पूर्वज नरेश अंग्रेजों के क़दमों में अपनी पगड़ी गिरवी रखकर अंग्रेजों की मेहरबानी पर राजकरने के भ्रम में अपनी मूछें मरोड़ते थे( दूसरों की तो मरोड़ नहीं सकते थे).
आज की तारीख में हम उन रियासतों के वारिसों को देखते है तो पता चलता है कि उन्हें अपने पूर्वजों से क्या सीख मिली है. भारतीय न्याय व्यवस्था पर बोझ बनकर पड़ी हुई इनकी फर्जी मुकदमें, फर्जी वसीयतें, फर्जी वारिस और गुजरे ज़माने कि शानो शौकत बनाये रखने कि फर्जी कोशिश को देखकर हमें पता चलता है कि 15 वि सदी में इतना प्रगतिशीलता कि जड़े कहाँ से फूटी कि अपनी बेटी को दुसरे धर्म में ब्याह दिया.
मुल्क की आजादी के वक्त अंग्रेजों के साथ साथ इनके राज्य का सूर्य भी अनंतकाल के लिए अस्त हो गया. जिस समय मुल्क में आजादी की खुशियाँ मनाई जा रही थी उस समय इनके महलों के नगाड़े ओंधे पड़े थे.अपने राज्य को भारतीय संघ में विलय करवाने हेतु विलय संधि पर हस्ताक्षर करने गए जोधपुर नरेश की पहनी हुई काली पगड़ी सभी रजवाड़ों की मनोस्तिथि बयां कर रही थी.
आजादी के साथ व्यवस्था तो बदल गयी लेकिन रजवाड़ों की मानसिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया जिसका उदहारण आपको राजस्थान के छोटे से गाँव से लेकर भूतपूर्व रियासतों में देख सकते है, एक गाँव के राजपूत के पास खाने के लाले पड़ते है मगर वो खुद को रावला कहलाना ही पसंद करता है और चाहता है की हर कोई आकर ड्योढ़ी पर माथा झुकाए, यही हाल भूतपूर्व रियासतों के है जिनकी बहुत सी सम्पति तो दारू और पता नहीं कहाँ कहाँ उड़ गयी और जो बची खुची चोरवाली लंगोट है उसके दमपर अब भी राजस्थान को राजपुताना बनाने के ख्वाब देखते है. परन्तु जो बड़ी रियासतें है जिनके पूर्वज नरेश अंग्रेजों के क़दमों में अपनी पगड़ी गिरवी रखकर अंग्रेजों की मेहरबानी पर राजकरने के भ्रम में अपनी मूछें मरोड़ते थे( दूसरों की तो मरोड़ नहीं सकते थे).
आज की तारीख में हम उन रियासतों के वारिसों को देखते है तो पता चलता है कि उन्हें अपने पूर्वजों से क्या सीख मिली है. भारतीय न्याय व्यवस्था पर बोझ बनकर पड़ी हुई इनकी फर्जी मुकदमें, फर्जी वसीयतें, फर्जी वारिस और गुजरे ज़माने कि शानो शौकत बनाये रखने कि फर्जी कोशिश को देखकर हमें पता चलता है कि 15 वि सदी में इतना प्रगतिशीलता कि जड़े कहाँ से फूटी कि अपनी बेटी को दुसरे धर्म में ब्याह दिया.
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