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शुक्रवार, 18 मार्च 2011

फैक्टरियों के लिए उजाड़े हजारों बीघे हरे -भरे खेत

झुंझुनू के लगभग 16 गांवों यानी 6 पंचायतों को उजाड़कर तीन व्यावसायिक परिवारों के हित देखनेवाली व्यवस्था को कम से कम लोकतंत्र तो नहीं कह सकते। इसी जिले को सरकार ने डार्क जोन घोषित किया है यानी कोई भी किसान अपने खेत में कुआं नहीं खोद सकता। वहीं उसी जिले में सरकार ने एक कम्पनी को 40 हजार घन लीटर पानी देने का करार किया है। मतलब सरकार के पास किसानों के लिए पानी नहीं है और पूंजीपतियों की लिए सब कुछ

राजस्थान के झुंझुनू जिले में, तीन सीमेंट फैक्टरी लगाने के लिये सरकार किसानों की 70 हजार बीघा जमीन किसानों से छीनकर पूंजीपतियों के हवाले कर रही है। अधिग्रहण के तहत आ रही जमीन राजस्थान की सबसे उपजाऊ जमीनों में से है। जिसके अधिग्रहण से करीब 50 हजार लोग बेघर हो जाएंगे। श्री सीमेंट ने भूमि अधिग्रहण के लिए 1280 बीघा के चेक अगस्त में बनाकर जमीन मालिकों को बांटना शुरू किया लेकिन लोगों ने चेक लेने से मना कर दिया। उनके कुछ सवाल थे- कीमत किससे पूछ कर तय की गई? जमीन से बेदखल होकर वे लोग अब कहां जाएं? लगभग 16 गांवों यानी 6 पंचायतों को उजाड़कर तीन व्यावसायिक परिवारों के हित देखनेवाली व्यवस्था को कम से कम लोकतंत्र तो नहीं कह सकते। श्री सीमेंट द्वारा चेक भेजने से पहले 50 बीघा जमीन बिचौलियों द्वारा खरीद ली गई थी और बाद में वे ही लोग चेक ले लिए बाकी लोगों ने चेक लेने से मना कर दिया और धरने पर बैठ गए। यह आंदोलन की शुरुआत थी जो धीरे-धीरे एक व्यवस्थित आंदोलन का रूप ले लिया। विधानसभा चुनावों से पहले तमाम नेता आकर वादा किए कि वह खुद मर जायेंगे मगर किसानों की जमीन नहीं जाने देंगे लेकिन जो चुनाव जीत गये वह सत्ता सुख में लिप्त हो गये। जो हार गए, वह अपने व्यवसाय में लग गए। किसानों की सुध लेने वाला कोई नहीं रहा। वैसे भी किसान सत्ता के चरित्र से वाकिफ थे। इसलिए उन्होंने आंदोलन चलाने के लिए किसान संघर्ष समिति का गठन किया जो आंदोलन के आगे की रणनीति तय करे। इस भूमि अधिग्रहण से प्रभावित होने वाली पंचायतों के सरपंचों से लेकर 99 प्रतिशत लोग सरकार की इस जनविरोधी नीति का विरोध कर रहे हैं। किसानों का एक तर्क बहुत मजबूत है कि आप यहां खनन करें लेकिन उत्पादन कारखाना किसी बंजर भूमि पर लगवा दो। किसानों के धरने- प्रदर्शन लगातार जारी हैं लेकिन प्रशासन लोगों को डराध मकाकर उनकी जमीन हड़पना चाहता है। इन कम्पनियों ने नए-नए तरीके अपनाकर आंदोलन को बिखेरने की कोशिश भी की है। हरेक जाति के कुछ लोगों को लालच देकर जातिगत बिखराव करके आंदोलन तोड़ने का कुचक्र भी रचा गया है। मगर सवाल लोगों की रोजी-रोटी का है। अत: कम्पनियों के मंसूबे सफल नहीं हो पा रहे हैं। इस आंदोलन से साफ है कि राजस्थान भी कोई शांत राज्य नहीं है, घड़साना अब भी उबल रहा है, जो कभी आंदोलन का रूप ले सकता है। आश्र्चय यह है कि इसी झुंझुनू जिले को सरकार ने डार्क जोन घोषित किया है यानी कोई भी किसान अपने खेत में कुआं नहीं खोद सकता वहीं उसी जिले में सरकार ने एक कम्पनी को 40 हजार घन लीटर पानी देने का करार किया है। मतलब सरकार के पास किसानों के लिए पानी नहीं है और पूंजीपतियों की लिए सब कुछ। यह भी ध्यान देने की बात है कि स्थानीय मीडिया इस आंदोलन के प्रति किसी प्रकार की दिलचस्पी नहीं दिखाई है। किसान सभा और अन्य संगठन इस आंदोलन में पूरी तरह से लगे हुए हैं लेकिन अन्य कोई दल आगे नहीं आ रहा है। सवाल सिर्फ झुंझुनू या घड़साना का नहीं है। पूरे देश में चल रहे उन जन आंदोलनों का है जो छोटे-छोटे रूपों में हैं लेकिन उनसे एक आशा की किरण मिलती है जो व्यवस्था को बदलने की कूवत रखते हैं। राजस्थान में जिस तरह से सामंतवाद रहा है और आज की जो स्थिति है, उसे देखकर लगता है कि एक व्यापक जन आंदोलन दस्तक दे रहा है।
12/03/11 के राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित

http://rashtriyasahara.samaylive.com/epapermain.aspx?queryed=17

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