‘इस ट्रक के भी विभिन्न पहलू थे जैसे सत्य के कई पहलू होतें हैं।’ रागदरबारी के इस वाक्य का अर्थ मुझे उस समय समझ में आया, जब मैंने सत्य के कई पहलू देखे। ‘सत्य’ एक ही था मगर उसे विभिन्न दृष्टिकोणों से देखकर अलग-अलग अर्थ निकाले जा रहे थे। मेरे एक मित्र को बिहार जाना था, इस कारण मुझे ट्रेन का तात्कालिन टिकट लेने के लिये सुबह चार बजे सरोजनी नगर रेलवे स्टेषन जाना पड़ा। आरक्षण खिड़की के खुलने का समय सुबह आठ बजे था मगर लोगों की कतार इतनी लम्बी थी कि कुछ लोग रात के आठ बजे से ही बिस्तर डाल कर सो रहे थे। खैर, जब मैं लाइन में लगा तो मेरे आगे लगभग सौ लोग थे। औरतों के लिये अलग से लाइन थी। यह दीदी के दौर की राजधानी ट्रेन की कहानी है। जैसे आमतौर पर भीड़ में होता है वैसे ही कभी कभी लोगों में झड़पें हो रही थी।
अचानक औरतों की कतार मंे शोर-षराबा होने लगा, लोगों का एक रैला उस तरफ उमड़ा और कुछ ही देर में धक्का मुक्की होने लगी। मैं भी दौड़कर उनके पास पहुंचा और भीड़ को चीरता हुआ घेरे के बीच तक जा पहुंचा। तीन औरतों में आपस में झगड़ा हो रहा था जिसमें दो सक्रिय रूप से भाग ले रही थी और एक बीच में कभी कभार हस्तक्षेप कर रही थी। झगड़े का कारण था कि जो औरत कम बोल रही थी वो रात को आठ बजे आकर लाइन में लगी थी मगर उसका बच्चा रोने लगा और वो बच्चे को लेकर घर चली गई। जाते समय अपने आगे वाली औरत को को बोलकर गई थी कि मेरा नम्बर तेरे पीछे है, यही सत्य का एक पहलू था। जब वो सुबह लौटकर आयी तो उसकी जगह पर एक तीसरी औरत थी जो उसे लाइन में नही जगने दे रही थी। उसका कहना था कि एक बार आकर कह गई कि यहां मेरा नम्बर है उसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि मैं यहां रात भर बैठी रही हूं। यह भी सत्य था कि वो औरत वहां रात भर बैठी रही, दूसरा पहलू भी हो गया। झगड़ा आगे ओर पीछे वाली औरत में था जिसमें आगे वाली औरत का बस इतना ही कहना था कि बीचवाली औरत रात को आकर गई थी। यह भी सत्य था जो सबसे प्रभावषाली था और इसीलिये जिस औरत के कारण झगड़ा हो रहा था वो चुप थी, लड़ाई के दोनों पक्ष आगे पीछे वाली औरतें सम्भाले हुए थी। एक साथ सत्य के तीन पहलू थे और तीनों अपनी अपनी जगह सत्य से जुड़े हुए थे।
अचानक सत्य का चौथा पहलू उजागर हुआ जो सबसे खतरनाक था। एक आदमी भीड़ से निकलकर आया जिनका इन तीनों औरतों और कतार से कोई संबंध नहीं था। आते ही बोला, ‘तुम औरतों को तो लड़ाई झगड़े के अलावा कोई काम नही होता है, चुपचाप बैठ जाओ।’ जब इस वाक्य का उन तीनों औरतों ने विरोध किया तो धीरे धीरे पुरूषों की जमात झगड़े के मैदान मे टपक पड़ी जिनका इस झगड़े से दूर दूर तक कोई संबंध नही था। अब यह लड़ाई औरतों के बीच कतार के नम्बरों से बदल औरत और पुरूष के बीच की लड़ाई का रूप धारण कर चुकी थी। यह पूरा तबका झगड़े के शांत करवाने के बजाये मजाक के मकसद से शामिल हुआ था। अतः में तीनों औरतें चुप बैठ गई।
चौथा पहलू सत्य के तीन अलग अलग पहलूओं से हटकर पुरूषवादी समाज का सटीक चित्र प्रस्तुत कर रहा था। भारतीय समाज में आज भी औरतों को पर जाति और धर्म के नाम पर जुल्म ढ़ाये जाते हैं उनके पीछे एक बहुत बड़ा कारण है कि सामाजिक व्यवस्था में औरत को समाज का बराबर का हिस्सा माना ही नहीं जाता है। समाज में औरत और पुरूष दोहरी नैतिकता को स्थापित किया गया है जिसके उदाहरण रोज अमानवीय घटनाओं के रूप में सामने आते है। समाज में बच्चें के जन्म से ही उसमें इस भवना को बढ़ावा दिया जाता है कि पुरूष श्रेष्ठ है और औरत के भोग की वस्तु है और ऐसे कुसंस्कार अनपढ़ समाज के आलावा पढ़े लिखे समाज में भी धड़ले से पोषित होते है। पढ़े लिखे समाज में तो कहीं कहीं इतनी विद्रुपताएं देखने को मिलती है कि जो स्त्री अधिकारों की बात करतें हैं वो ही अपने निजी जीवन में सामंतवादी और पुरूषवादी मानसिकताओं से जकड़े रहते है।
चौथे पहलू को मैंने गांव में भी देखा था और शहर में भी देखा है, दोनों जगह पर बाकि भौतिक संसाधनो में तो बहुत बड़ा अंतर है, शोषण के तरीके बदले हुए है मगर शोषण का रूप वही है, कितना सार्वभौमिक है यह सत्य का चौथा पहलू। काश! वो तीनों सत्य मिलकर चौथे का जवाब दे पाते।
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शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010
गुरुवार, 9 दिसंबर 2010
पद की गरिमा
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में निर्णय दिया है कि राज्यपालों को बदलने के लिये पुख्ता वजह का होना जरूरी है, इस निर्णय ने फिर से राज्यपाल के पद को लेकर नई बहस को जन्म दिया है। भारतीय राजनीति में राज्यपाल का पद सबसे विवादास्पद पद हो गया है, जब सरकारें बदलती है तब राज्यपालों का हटना भी शुरू हो जाता है। भारतीय लोकतंत्र मंे यह सवाल बार उठता है कि राज्यपाल के पद का क्या मतलब है? इस सवाल के पिछे बहुत से कारण में से एक कारण यह भी है कि आजादी के बाद इस पद की गरीमा को भूलकर इसे एक राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया है। विभिन्न राजनैतिक दलों के आपसी मतभेदों के कारण इस संवैधानिक पद की गरीमा को बार बार उछाला गया है। जब कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति को केन्द्र में मंत्री पद नहीं मिल पाता है या उसे सक्रिय राजनीति से हटाना हो तो उसे किसी राज्य का राज्यपाल नियुक्त कर दिया जाता है, इससे दो फायदे है- एक तो पार्टी का एक नेता संतुष्ट हो जाता है जिससे पार्टी में विद्रोह की आषंका नही रहती और दूसरा फायदा है कि अगर राज्य में विरोधी दल की सरकार है तो उसके खिंच तान करने के लिये भी इस पद का उपयोग कर लेते हैं और यह परम्परा सी पन गई कि राज्यपाल सताधारी दल का राजनेता ही होगा। कुल मिला कर यह पद केन्द्रीय राजनीति का राज्यों पर नियंत्रण रखने का एक साधन हो गया है। झारखण्ड और बिहार के राज्यपालों का हाल पिछले दिनों देख ही चुके है, जब भी किसी राज्य में कोई राजनीतिक संकट आता है तो राज्यपाल की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है, लेकिन दुर्भाग्यपुर्ण बात यह है कि जब भी ऐसी स्थिति आती है तो इस पद को विवादों के घेरे में पाते है।
संसदीय लोकतंत्र में केन्द्र और राज्य के बीच राज्यपाल एक सेतु का काम करता है, इस पद की उपयोगिता खासकर तब देखने को मिलती है जब मंत्रिमंडल भंग हो जाता है लेकिन ऐसी स्थिति में भी किसी पार्टी विषेष की वफादारी के कारण कई बार पक्षपात का आरोप लगाया जाता है। संवैधानिक पद होते हुए भी राज्यपाल को विषष संवैधानिक अधिकार प्राप्त नहीं है, केवल शाही खर्चे का प्रतीक बनकर रह जाता है। हाल के वर्षों में धारा 356 के गलत उपयोग के मामले भी सामने आ रहे है जो स्पष्ट करते है कि इस पद के महत्व व अधिकारों को लेकर पुनर्विवेचना हो। ऐसी स्थिति में सुप्रिम कोर्ट का निर्णय स्वागत योग्य है, लेकिन सवाल उठता है कि वो पुख्ता वजह क्या होगी? जब तक इस पद पर राजनीतिक लोगों को आरूढ़ किया जाता है तो निष्चित रूप से वो अपनी पार्टी के प्रति वफादारी दिखाने की कोषिष करेंगे, अगर राज्यपाल विरोधी पक्ष का है तो वो अपने अपने आप में एक वजह बन जायेगी। सुप्रिम कोर्ट ने इस फैसले में बताया है कि राष्ट्रीय नीति के साथ राज्यपाल के विचारों का मेल नहीं होने के कारण उसके कार्यकाल में कटौती करके हटाया जा सकता है और वो केन्द्र सरकार से असहमत भी नही हो सकते अर्थात केन्द्र में जिस पार्टी की सरकार हो उसे पूरी छूट है कि वो राज्यपाल को जब चाहे हटा सकते है। राज्यपाल का पद पूर्णरूप से राजनीतिक आकाओं के रहम पर निर्भर हो गया है जो कि एक स्वतंत्र संवैधानिक पद है।
6 दषक के संवैधानिक अनुभव के आधार पर साफ जाहिर है कि राज्यपाल के पद की पुर्नविवेचना जरूरी हो, इसे एक संवैधानिक पद के रूप में स्थापित किया जाये और राजनीतिक चालबाजीयों से अलग करके स्वतंत्र अभिनेता का स्थान दिया जाये जो संविधान के अनुसार राज्य और केन्द्र के मध्य अपनी भूमिका निभाये।
संसदीय लोकतंत्र में केन्द्र और राज्य के बीच राज्यपाल एक सेतु का काम करता है, इस पद की उपयोगिता खासकर तब देखने को मिलती है जब मंत्रिमंडल भंग हो जाता है लेकिन ऐसी स्थिति में भी किसी पार्टी विषेष की वफादारी के कारण कई बार पक्षपात का आरोप लगाया जाता है। संवैधानिक पद होते हुए भी राज्यपाल को विषष संवैधानिक अधिकार प्राप्त नहीं है, केवल शाही खर्चे का प्रतीक बनकर रह जाता है। हाल के वर्षों में धारा 356 के गलत उपयोग के मामले भी सामने आ रहे है जो स्पष्ट करते है कि इस पद के महत्व व अधिकारों को लेकर पुनर्विवेचना हो। ऐसी स्थिति में सुप्रिम कोर्ट का निर्णय स्वागत योग्य है, लेकिन सवाल उठता है कि वो पुख्ता वजह क्या होगी? जब तक इस पद पर राजनीतिक लोगों को आरूढ़ किया जाता है तो निष्चित रूप से वो अपनी पार्टी के प्रति वफादारी दिखाने की कोषिष करेंगे, अगर राज्यपाल विरोधी पक्ष का है तो वो अपने अपने आप में एक वजह बन जायेगी। सुप्रिम कोर्ट ने इस फैसले में बताया है कि राष्ट्रीय नीति के साथ राज्यपाल के विचारों का मेल नहीं होने के कारण उसके कार्यकाल में कटौती करके हटाया जा सकता है और वो केन्द्र सरकार से असहमत भी नही हो सकते अर्थात केन्द्र में जिस पार्टी की सरकार हो उसे पूरी छूट है कि वो राज्यपाल को जब चाहे हटा सकते है। राज्यपाल का पद पूर्णरूप से राजनीतिक आकाओं के रहम पर निर्भर हो गया है जो कि एक स्वतंत्र संवैधानिक पद है।
6 दषक के संवैधानिक अनुभव के आधार पर साफ जाहिर है कि राज्यपाल के पद की पुर्नविवेचना जरूरी हो, इसे एक संवैधानिक पद के रूप में स्थापित किया जाये और राजनीतिक चालबाजीयों से अलग करके स्वतंत्र अभिनेता का स्थान दिया जाये जो संविधान के अनुसार राज्य और केन्द्र के मध्य अपनी भूमिका निभाये।
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