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शुक्रवार, 1 मार्च 2013

आत्महत्या नहीं संघर्ष

नवउदारवादी दौर में लगातार भारतीय कृषि पर मंडरा रहे संकटों के कारण एक ओर जहां किसान आत्महत्याएं लगातार बढ़ रही हैं। किसान लगातार खेती छोड़कर आजीविका के अन्य साधनों की ओर रुख कर रहे हैं और खेती की जमीन उद्योगों के हवाले की जा रही। वहीं पर एक किसान आंदोलन ने सफलता का एक चरण पूरा कर लिया। संघर्षों के सफर में अक्सर उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। इसने आत्महत्याओं और निराशा के माहौल को तोड़कर आशा और उम्मीदों की सुबह की ओर कदम बढ़ाया है। राजस्थान के चुरू जिले के किसानों ने तैयालीस दिनों के आंदोलन के उपरांत 228 करोड़ रुपये का फसल बीमा प्राप्त करने में सफलता अर्जित की। शायद यह भारत के किसान आंदोलन का पहला उदाहरण है जहां पर किसानों ने लम्बे संघर्ष के बाद इतनी बड़ी राशी में फसल बीमा पाने में सफल रहे हैं। दरअसल चुरु जिले में पाले से चने व सरसों की फसल नष्ट हो गई थी। छोटी जोतों के किसानों की फसल पूर्ण रूप से पाला प्रभावित होने के कारण पूरे क्षेत्र में एक निराशा छा गई। किसानों एग्रीकल्चर इंशोरेंस कम्पनी के माध्यम से फसल बीमा करवा रखी थी। यह बीमा कापरेटिव सोसायटी व अन्य बैंकों के माध्यम से करवा रखी थी। बीमा करवाने से वाले अधिकांशतः छोटे किसान थे और कापरेटिव सोसायटी के माध्यम से जिन्होंने बीमा करवायी थी वे तो ज्यादातर दलित पृष्टभूमि के किसान थे। फसल नष्ट होने पर समय पर किसानों का बीमा राशी नहीं दी जा रही थी। तारानगर, राजगढ़, सरदारशहर के किसानों ने मिलकर किसान सभा के नेतृत्व में आंदोलन शुरु कर दिया। आंदोलन का पहला चरण 22 मई से शुरु और और फिर 13 जुलाई को तारानगर तहसील के किसानों ने बाजार बंद करवाया और 26 जुलाई को उन्होंने तहसील कार्यालय पर छब्बीस घंटे तक कब्जा रखा। इससे किसानों का उत्साह बड़ा और सैंकड़ों की तादात में अन्य किसान भी उनसे जुड़ गये। सिर्फ तहसील कार्यालय के अतिरिक्त भी क्षेत्र के गांवों में अनेक जगह पर धरने, प्रदर्शन और रैलियों की कड़ी शुरू हो गई। 
यह अपने अधिकारों के प्रगति किसानों की जागृति का अनुपम उदाहरण साबित हुआ और आंदोलन की गति तेज होती गई। प्रथम चरण में किसानों को पूरी बीमा राशी नहीं दी गई। इसमें कुल 22 करोड़ की राशी दी गई और प्रशासन का कहना था कि जिनका एक जगह बीमा किया गया उन्हीं को मुआवजा दिया जायेगा। जन विरोधी नीतियों का विरोध करने वाले किसानों ने ठान ली कि वे अपना पूरा हक लेकर रहेंगे। इस दौरान लोग अपने जाति, धर्म और अन्य भेदभावों को त्यागकर लामबंध हुए और एक अहिंसक आंदोलन को आगे बढ़ाया। यहां सवाल सिर्फ फसल बीमा का ही नहीं था, किसान बिजली की दरों में वृद्धि, फसलों के उचित मूल्य न मिलना, कृषि के लिए दी जाने वाली सब्सीडी घटाने के नीतियों से त्रस्त किसानों के गुस्से का एक रूप था। लगातार ऐसी नीतियों के कारण कर्ज में डूबा किसान इस बार आत्महत्या का रास्ता अख्तियार करने की बजाय संघर्ष की राह चुनी। यही मूल वजह उनमें राजनीतिक चेतना के संचार की रही है क्योंकि वे यह समझ गये थे उनकी दुदर्शा का कारण नई आर्थिक नीतियां हैं और आत्महत्या उनका समाधान नहीं है।
दूसरे चरण के आंदोलन की शुरुआत हुई और इस बार प्रथम चरण से ज्यादा जोश व आक्रोश के साथ लोगों ने धरने-प्रदर्शन में भागीदारी दर्ज कराई। आंदोलन का एक पक्ष बहुत मजबूत था कि इसमें छात्र, महिलाओं सहित एक बड़े तबके ने एक साथ उपस्थिति दर्ज कराई। इस चरण के दौरान बची हुई बीमा राशी भी कम्पनी को देनी पड़ी और अकेले तारानगर तहसील के किसानों को 94 करोड़ रुपये का मुआवजा मिला। कुल 228 करोड़ के मुआवजे में 218 करोड़ तो केवल चने की फसल का मुआवजा था और उसमें से भी 33 करोड़ कापरेटिव सोसायटी को मिला। यह एक तरह से किसानों में सामूहिकता के प्रति विश्वास को बढ़ावा दिया है। इस फसल बीमा के दौरान किसानों ने पचास रुपये प्रति बिघा की दर से बीमा कराई और शेष राशी में से पच्चीस प्रतिशत राज्य सरकार व बाकि की केंद्र सरकार की ओर से जमा कराई जाती है। और किसानों को मिलने वाली बीमा राशी पंद्रह सौ रुपये प्रति बिघा यानी की एक हैक्टेयर के लिए छह हजार रुपये का अनुदान मिला। चुंकि इस राशी से फसल के मूल्य की भरपाई तो नहीं हो सकती लेकिन आत्महत्या की तरफ जाने वाले किसान को राहत भी मिल गई और रास्ता भी।
शायद भारत के कर्ज में डूबे किसानों के लिए यह आंदोलन एक संदेश का कार्य कर सकता है और उनमें ऊर्जा का संचार करके जिंदगी की राह पर संघर्ष का रास्ता दिया सकता है।

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

फैक्टरियों के लिए उजाड़े हजारों बीघे हरे -भरे खेत

झुंझुनू के लगभग 16 गांवों यानी 6 पंचायतों को उजाड़कर तीन व्यावसायिक परिवारों के हित देखनेवाली व्यवस्था को कम से कम लोकतंत्र तो नहीं कह सकते। इसी जिले को सरकार ने डार्क जोन घोषित किया है यानी कोई भी किसान अपने खेत में कुआं नहीं खोद सकता। वहीं उसी जिले में सरकार ने एक कम्पनी को 40 हजार घन लीटर पानी देने का करार किया है। मतलब सरकार के पास किसानों के लिए पानी नहीं है और पूंजीपतियों की लिए सब कुछ

राजस्थान के झुंझुनू जिले में, तीन सीमेंट फैक्टरी लगाने के लिये सरकार किसानों की 70 हजार बीघा जमीन किसानों से छीनकर पूंजीपतियों के हवाले कर रही है। अधिग्रहण के तहत आ रही जमीन राजस्थान की सबसे उपजाऊ जमीनों में से है। जिसके अधिग्रहण से करीब 50 हजार लोग बेघर हो जाएंगे। श्री सीमेंट ने भूमि अधिग्रहण के लिए 1280 बीघा के चेक अगस्त में बनाकर जमीन मालिकों को बांटना शुरू किया लेकिन लोगों ने चेक लेने से मना कर दिया। उनके कुछ सवाल थे- कीमत किससे पूछ कर तय की गई? जमीन से बेदखल होकर वे लोग अब कहां जाएं? लगभग 16 गांवों यानी 6 पंचायतों को उजाड़कर तीन व्यावसायिक परिवारों के हित देखनेवाली व्यवस्था को कम से कम लोकतंत्र तो नहीं कह सकते। श्री सीमेंट द्वारा चेक भेजने से पहले 50 बीघा जमीन बिचौलियों द्वारा खरीद ली गई थी और बाद में वे ही लोग चेक ले लिए बाकी लोगों ने चेक लेने से मना कर दिया और धरने पर बैठ गए। यह आंदोलन की शुरुआत थी जो धीरे-धीरे एक व्यवस्थित आंदोलन का रूप ले लिया। विधानसभा चुनावों से पहले तमाम नेता आकर वादा किए कि वह खुद मर जायेंगे मगर किसानों की जमीन नहीं जाने देंगे लेकिन जो चुनाव जीत गये वह सत्ता सुख में लिप्त हो गये। जो हार गए, वह अपने व्यवसाय में लग गए। किसानों की सुध लेने वाला कोई नहीं रहा। वैसे भी किसान सत्ता के चरित्र से वाकिफ थे। इसलिए उन्होंने आंदोलन चलाने के लिए किसान संघर्ष समिति का गठन किया जो आंदोलन के आगे की रणनीति तय करे। इस भूमि अधिग्रहण से प्रभावित होने वाली पंचायतों के सरपंचों से लेकर 99 प्रतिशत लोग सरकार की इस जनविरोधी नीति का विरोध कर रहे हैं। किसानों का एक तर्क बहुत मजबूत है कि आप यहां खनन करें लेकिन उत्पादन कारखाना किसी बंजर भूमि पर लगवा दो। किसानों के धरने- प्रदर्शन लगातार जारी हैं लेकिन प्रशासन लोगों को डराध मकाकर उनकी जमीन हड़पना चाहता है। इन कम्पनियों ने नए-नए तरीके अपनाकर आंदोलन को बिखेरने की कोशिश भी की है। हरेक जाति के कुछ लोगों को लालच देकर जातिगत बिखराव करके आंदोलन तोड़ने का कुचक्र भी रचा गया है। मगर सवाल लोगों की रोजी-रोटी का है। अत: कम्पनियों के मंसूबे सफल नहीं हो पा रहे हैं। इस आंदोलन से साफ है कि राजस्थान भी कोई शांत राज्य नहीं है, घड़साना अब भी उबल रहा है, जो कभी आंदोलन का रूप ले सकता है। आश्र्चय यह है कि इसी झुंझुनू जिले को सरकार ने डार्क जोन घोषित किया है यानी कोई भी किसान अपने खेत में कुआं नहीं खोद सकता वहीं उसी जिले में सरकार ने एक कम्पनी को 40 हजार घन लीटर पानी देने का करार किया है। मतलब सरकार के पास किसानों के लिए पानी नहीं है और पूंजीपतियों की लिए सब कुछ। यह भी ध्यान देने की बात है कि स्थानीय मीडिया इस आंदोलन के प्रति किसी प्रकार की दिलचस्पी नहीं दिखाई है। किसान सभा और अन्य संगठन इस आंदोलन में पूरी तरह से लगे हुए हैं लेकिन अन्य कोई दल आगे नहीं आ रहा है। सवाल सिर्फ झुंझुनू या घड़साना का नहीं है। पूरे देश में चल रहे उन जन आंदोलनों का है जो छोटे-छोटे रूपों में हैं लेकिन उनसे एक आशा की किरण मिलती है जो व्यवस्था को बदलने की कूवत रखते हैं। राजस्थान में जिस तरह से सामंतवाद रहा है और आज की जो स्थिति है, उसे देखकर लगता है कि एक व्यापक जन आंदोलन दस्तक दे रहा है।
12/03/11 के राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित

http://rashtriyasahara.samaylive.com/epapermain.aspx?queryed=17

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

शोषण कि मंडी

सूत्रों से पता चला है कि कुछ मीडिया संस्थानों में मोहल्ला, जनतंत्र और भड़ास ४ मीडिया जैसी सामाजिक एवं पत्रकारिता से जुडी साइटों को खोलने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है. अब सवाल उठता है कि इन साइटों पर ऐसा क्या है जिसके कारण मीडिया संस्थानों को दिक्कत होती है. असल में मीडिया संस्थानों द्वारा लीक से हटकर काम करने वाले तमाम लोगों से दिक्कत होती है. मोहल्ला,जनतंत्र और भड़ास ४ मीडिया पढने वाले तो उसे कहीं और भी पढ़ सकते हैं मगर इससे भारतीय मीडिया का चरित्र साफ़ हो जाता है. इसी तरह से और भी परिवर्तन मीडिया संस्थानों में हो रहे हैं, जिसे सुन कर आप भौचक्के रह जायेंगे. अगर आप किसी मीडिया संसथान में नौकरी कर रहे हैं तो वहां पर कोई भी सोशल नेटवर्किंग साईट नहीं खोल सकते क्योंकि इससे आप समाज से जुड़ जाते हैं.और पारंपरिक मीडिया पत्रकारों को समाज से जुड़ने कि बजाये समाज से दूर करने कि मान्यता पर आधारित है, मतलब ये कि संस्थानों में काम करने के दौरान आप समाज से किसी तरह से जुड़ने का प्रयास न करें और पत्रकार बंधू किसी तरह से भी संचारक्रांति के करीब न आयें. इसमें सबसे मज़ेदार बात ये है कि इस पूरी मुहीम में वो लोग भी शामिल हैं जो पत्रकारों के हितों में लम्बी लम्बी बात करते हैं. ऐसी स्थिति में सुध लेने वालों कि सुध कौन लेगा, दुनियाभर के मानवधिकारों कि बात करने वाला पत्रकार समुदाय आज अपने ही मानवाधिकारों के हनन के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा पाते हैं. मीडिया संस्थान एक पत्रकार को इंसान की बजाय मशीन मानते हैं, कुछ संस्थानों में पत्रकारों का आर्थिक और शारीरिक शोषण लगातार जारी है. महीनो तक तनख्वाह नहीं मिलती और अगर आप आवाज़ उठायें तो नौकरी छोड़ने के लिए तैयार हो जाएँ.चौकाने वाला तथ्य यह है कि छोटे और बड़े मीडिया संस्थानों में पंद्रह सौ रुपये के मासिक पर पत्रकारों से दस से बारह घंटे काम कराया जाता है.
अब सचेत हो जाइये, कल ऑफिस में भी नोटिस लग सकता है -
नोटिस
(आज से कार्यालय में निम्नाकित नियम लागू है)
1 . मोहल्ला, जनतंत्र और भड़ास ४ मीडिया जैसी साइट खोलना प्रतिबंधित है.
2 . फेसबुक, जीमेल और ऑरकुट खोलना मना है.
3 . मोबाईल ऑन रखना प्रतिबंधित है.
4 . ऑफिस समय में पेशाब करना मना है.
5 . ऑफिस में हंसना मना है ( आप यहाँ रो भी नहीं सकते)
6 . ऑफिस के काम के अलावा एक दूसरे से बात करना प्रतिबंधित है.
7 . ऑफिस में खांसना मना है (भले ही आपको जुखाम हो)
8 . ऑफिस में दाढ़ी रखना भी मना है.
(उपरोक्त नियमों का उलंघन करनेवालों के खिलाफ कड़ा कदम उठाया जायेगा.)
आज्ञा से
(शोषण मीडिया केंद्र)

सनोबर विला में एक अजनबी

समकालीन भारतीय साहित्य के 151 नंबर के अंक में प्रकाशित
इस कहानी संग्रह में ओम गोस्वामी की पांच कहानियां है जो विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में बहुत पहले प्रकाषित हो चुकी है। ‘इस बीच’ नामक कहानी पर तो धारावाहिक भी बन चुका है। कथाकार ने जीवन के खट्टे मिट्ठे अनुभवों को जिस प्रकार से शब्दों के ताने बाने में बुना है वो साहित्य और समाज के लिये एक शुभ संकेत है। इस संग्रह की हर कहानी अलग- अलग विषय वस्तु लिये हुये है।
पहली कहानी ‘सनोबर विला में एक अजनबी’ में ‘गुरटू’ नामक नौकर का चरित्र उस भारतीय समाज का नेतृत्व कर रहा है जो गरीब रहते हुए भी अपने सिद्धान्त से समझौता नहीं करता है। ‘गुरटू’ के पूरे परिवार को आतंकवादियों ने मार डाला था, वह किसी तरह बच निकला था। गुरटू एक विख्यात विद्वान तो था ही साथ ही खाना बनाने का लाजवाब हूनर भी रखता था। इसी हुनर से वह अपनी प्रतिभा को दबा कर भी सेठ कुंजनलाल के धर पर नौकरी कर जीवन गुजार रहा था। गुरटू एक ऐसा चरित्र है जिसमें जीवन के प्रति अदम्य जीजिविषा कूट - कूट कर भरी हई है। वो अपनी कला व मेहनत से इज्जत की जीन्दगी जीना चाहता है।
दूसरी तरफ सेठ कुंजनलाल, लखीराम व करोड़ीमल उस सामाजिक मानसिकता को प्रदर्षित करते है जो अपने तुच्छ स्वार्थों के लिये इंसानियत की भी बली देकर आदमी की खरीद फरोख्त करती है। इन्हें पैसों का इतना धमण्ड होता है कि हर चीज को पैसे के तराजु में तोलतें है, जहां पर इंसानियत व मानवीय भावनाओं के लिये कोई स्थान नहीं होता है। कहानी का भावप्रवाह शब्दों के माध्यम से कसावट लिये हुए है। सरदार जी का पूरा व्यक्तित्व इस तरह का है कि वह प्रतिभा को आदर व सम्मान देना जानता है। बुढ़े बुजुर्ग की इज्जत करने का संस्कार होने के कारण ही वह गुरटू को ससम्मान अपने साथ ले जाता है। पूरी कहानी में सामाजिक द्वंद को दर्षाया है जिसमें मानवीय व्यवहार के अच्छे और बूरे दोनों पहलूओं की जानकारी मिलती है।
दूसरी कहानी ‘जीवन युद्ध’ एक ऐसे व्यक्तित्व मास्टर राँझूराम के जीवन की कहानी है जिसकी जिंदगी में रिष्तों कोई अहमीयत नहीं है। सिर्फ पैसे के बल पर समाज में खुद को श्रेष्ठ दिखानें की चाह रखता है। बाप और बेटे के रिष्ते के प्रेम की डोरी में बांधे रखने में उसका विष्वास नहीं है। इसी कारण राँझूराम के जीवन युद्ध में प्रतिपक्ष कोई दूसरा न होकर उसका बेटा ही हुआ।पांच बेटों का पिता होते हुए भी रिष्तों की अहमियत नहीं समझ पाया और शायद यही कारण हुआ कि अंत में उसके बेटे भी बाप को दौलत की मषीन मानने लगे। रँझूराम की पत्नि शालिन और भोलीभाली औरत जो सबकुछ जानते हुए भी मूकदर्षक बनी रहती है।यह पूरी कहानी वर्तमान परिपेक्ष्य की साक्षी है कि दौलत की इस अंधाधुध दौड़ में रिष्ते पिछे छूट जातें हैं। जब तक आदमी को इस बात का अहसास होता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
इस संग्रह की हर कहानी किसी न किसी सामाजिक बुराई पर चोट मार्मिक पहुंचा रहीं हैं। ‘दर्द की दहलीज’ काहनर की नायिका नौजी एक पतिवर्ता, षीलवति और भारतीय नारी का संकेत देती है, जो हर कष्ट सहते हुए भी अपनी अस्मिता को बचाना चाहती है। एक विधवा औरत को समाज में जिन नाना प्रकार के दुः खों का सामना करना पड़ता है, उसका दर्द भरा चित्रण साहित्य सीमाओं में रहते हुए इस कहानी में किया गया है।
पंडित अमिचंद नषे का हद से ज्यादा षिकार होने के कारण नैतिकता अनैतिकता के पैमाने भूल चुका था। चैधरी जैसे लोग पुरुष प्रधान समाज के वो अनैतिक तत्व है जो स्त्रि को केवल भोग की वस्तु समझते हैं। इस कहानी का जिस प्रकार से अंत होता है, वह कि एक औरत का दुःख केवल औरत ही समझ सकती है क्यांकि वो ही पुरुषप्रधान समाज के काँटों को भोगती है। यह कहानी दुनियंा के उन तमाम समाजों का दर्पण है, जहां पर लिंग के आधार शोषण होता है। चाहे वो पत्नि के रुप में हो या फिर स्त्रि होने के नाते शारीरिक और मानसिक यातना हो।

शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

भिती चित्रों की रंगभूमी


आजकल में प्रकाशित

राजस्थान के जयपुर में अरावली पर्वत माला की श्रंखला गुजरती है उसके उत्तर के तीन जिलों के क्षेत्र को षेखावाटी कहा जाता है। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर षेखावाटी नामक जगह का नामकरण राव षेखा जी के नाम पर हुआ। राव षेखा जी ने षेखावाटी को सन 15 वीं सदी में बसाया था। मेथोलोजी के हिसाब से पंाडवों ने यहां पर वनवास का समय बिताया था और जिस जगह उनकी लोहे की जंजीरें गल गई थी। उस स्थान को ‘लोहार्गल’ कहते है, मगर इतिहास में इनका प्रामाणिक सबूत नहीं मिलता है। वर्तमान समय में जो षेखावाटी का क्षेत्र है उसमें सीकर, चुरु व झुंझुनु नामक तीन जिले षामिल है। इस क्षेत्र की भाषा, रहन सहन व संस्कृति में बाकि राजस्थान से कुछ भिन्न है। यहां की बोली को भी षेखावाटी के नाम से जाना जाता है। यह क्षेत्र अपनी कला व संस्कृति के लिए हमेषा अलग पहचान रखता है। 17 वीं षताब्दी में यहां के सेठ साहूकार लोग व्यापार करने के लिए देष के विभिन्न हिस्सों जैसे-कलकत्ता, मुम्बई, व सूरत के अलावा विदेषों में जाकर बस गये। इन्होंने यहां पर बड़ी और सुन्दर हवेलियां बनाई। अगर इन हवेलियों के पीछे के परिदृष्य को देखें कि आखिर इनका निमार्ण क्यों किया गया और वो संसाधन कहां से आये? तब तीन प्रमुख तत्व सामने आते है- एक ब्याज का तांडव, जिसमें 200 से 400 प्रतिषत की दर पर ब्याज लिया जाता था और अनपढ़ किसान व मजदूरों को बूरी तरह लूटा जाता था, उस महाजनी संस्कृति के बीज अभी भी मौजूद है, भाई से लेकर दोस्त तक कोई भी षेखावाटी के इलाके में बिना ब्याज के पांच दिन के लिये भी पैसा उधार नहीं देता और सबसे आष्चर्यजनक बात है कि अभी भी महाजनी समाज में ब्याज दर 24 प्रतिषत है। इस प्रकार एक पूरे ब्याजीय युग के दौरान लूटी गई अपार धन संपदा को इन हवेलियों के निर्माण में दफना दिया गया। दूसरा तत्व है कि विभाजन के समय में दोनों तरफ से ओने जाने वाले शरणार्थियों की सम्पति को लूटा गया और इस लूट में चोरों की एक नई महाजनीय पीढ़ी का जन्म हुआ, वो भी आगे चलकर हवेलियों निमार्ण में आगे आये। तीसरा तत्व है कि आजादी के बाद राजस्थान में भूमी का नाम मात्र का वितरण हुआ है और अभी भी जमीन के बड़े बडे़ जमींदार है जो इन बनीयों से मिलकर किसानों और खेतीहर मजदूरों का शोषण किया और धर्म के नाम पर पंडितों को साथ मिलाकर इन हवेलियों का निर्माण किया।
षेखावाटी अपनी हवेलियों के लिए विष्व प्रसिद्ध है जिसका कारण इन हवेलियों में बनाये गये भिती चित्र है। इस क्षेत्र में रामगढ़, फतेहपुर, लक्ष्मणगढ़, मंडावा, महनसर , बिसाऊ, नवलगढ़, डूडलोद व मुकंदगढ़ जैसे कस्बे हवेलियों के कारण ही आज भी विष्व सैलानियों के आकर्षण का केन्द्र बने हुए है। इन हवेलियों के गुम्बद से लेकर तलघर तक भिती चित्रों से अटे पड़े है। विष्व में भिती चित्रों पर षोध करने वाले अनेक षोधार्थी हर साल यहां आते है। षेखावाटी को खुली कला दीर्घा भी कहा जाता है। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय यहां पर भी छोटे मोटे स्तर पर किसान विद्रोह हुए थे मगर वे अंग्रेजी हुकुमत के विरोध में न होकर सामंतों के विरोध में थे अतः बड़े फलक के रुप में नहीं उभर सके। वर्तमान समय में इन हवेलियों के भिती चित्रों को देखने से पता चलता है कि इस चित्रकारी पर अलग-अलग युग का असर रहा है। कहीं मुगलकालीन दरबार व चित्रषैली देखने को मिलती है तो कहीं पारसी षैली का भी प्रभाव है।

महनसर के सेठ सेजाराम पोद्दार की हवेली की सोने चांदी की दुकाने, पोद्दारों की छत्तरियां और यहां के गढ़ काफी मषहूर है। ष्षेखावाटी में रजवाड़ों के समय अनेक देषी राजाओं ने अपने गढ़ बनाये जो किसी पहाड़ या ऊँचे टीले पर स्थित है। इन गढ़ों में सीकर, लक्ष्मणगढ़, डूण्डलोदेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेे, बठोठ व पाटोदा के गढ़ प्रमुख हैेें । इन गढ़ों पर चित्रकारी का सुन्दर आंकलन देखा जा सकता हैैैैैै। डूंडलोद का गढ़ तो आजकाल हैरिटेज होटल बन गया है। लक्ष्मणगढ़ व कुछ अन्य गढ़ो को पूंजीपतियों ने खरीद लिया है जिसके कारण आज जनता इस कला व संस्कृति को देखने से वंचित है। डूंडलोद की गोयनिका हवेली खुर्रेदार हवेली के नाम स प्रसिद्ध है। इस हवेली का निमार्ण सेठ अर्जुनदास गोयनका ने करवाया था । इस विषालकाय चैक की हवेली क बाहर दो बैठकें आकर्षक द्वार और भीतर सोलह कक्षों का निमार्ण किया गया है। जिनके भीतर कोठरियों, दुछत्तियों, खूंटियों, कड़ियों आदि की पर्याप्त व्यवस्था रखी गई है। इसे आजकल संग्राहलय का दर्जा दे दिया गया है। इस घुमावदार खुर्दे की हवेली का भीतरी हिस्सा लोक चित्रों से भरा हुआ है, जिसमें कृष्ण लीला के चित्र प्रमुख है। मन्डावा के कासन होटल, सागरमल लदिया की हवेली, रामदेव चैखानी की हवेली व मोहनलाल नेवटिया की हवेली भी दर्षनीय है। झुंझुनु में रानी सती का मंदिर, टीबड़े वालो की हवेली और ईसरदास मोदी की सैकड़ों खिड़कियों की हवेली है। रामगढ़ षेखावाटी में रामगोपाल पोद्दार की छतरी में रामकथा अपने लोककला के साथ चित्रित है। इसके अलावा रामगढ़ में खेमका हवेली भी है। यह वही रामगढ़ है जहां लक्ष्मीनिवास मित्तल के पूर्वज रहते थे। चुरु में मालखी का कमरा, सुराणों का हवामहल, रामविलास गोयनका की हवेली,मंत्रियों की बड़ी हवेली औेेर कन्हैयालाल बागला की हवेली दर्षनीय है। इसके अलावा नवलगढ़ में भी बहुत सी हवेलियां हैं जहां पर ‘पहेली’ जैसी अनेक फिल्मों की सूटिंग होती है।
इन हवेलियों में प्राकृतिक रंगों से भिती चित्रों का जो चित्रांकन किया गया है वो अदभुत है। इतिहास के हर युग की कला व षैली का प्रभाव इन चित्रों पर नजर आता है। एक तरफ पौराणिक कथाओं का चित्रांकन लोक कला में उकेरा है वहीं दूसरी तरफ अकबर के चित्र साम्प्रदायिक सौहार्द का संदेष देते है।
ये हवेलिया तो जिंदा है मगर आजादी के 61 साल बाद आज स्थिति यह है कि इन हवेलियों के भिती चित्रों को बनाने वाले कलाकारों की पूरी पीढ़ी ही लुफ्त हो गई है। एक भी चित्रकार नहीं रहा जो भिती चित्रों की इस दुनियां को जानता हो। इसके अनेक कारण गिनाये जा सकतें हैं कि आजादी के बाद न तो सरकार इन चित्रकारों की तरफ कोई ध्यान दिया और न ही समाज अपने स्तर पर इनकी कला को आगे बढ़ा सका। सबसे बड़ा सवाल है कि उस शोषण के इतिहास को पूरी तरह मिटाकर, बनीयों के बाप दादाओं के नाम पर कसीदे पढ़े जाते है।

-संदीप कुमार मील/ मोबाइल नम्बर- 8800780131

रविवार, 30 जनवरी 2011

दलितों की औधोगिक दख़ल

आज से लगभग पांच साल पहले फिक्की की तर्ज पर मिलिंद कांबले ने डिक्की (दलित इंडियन चैंबर आॅफ कॅामर्स) की स्थापना की, तब यह एक शुरूआती कदम था लेकिन अब डिक्की का सालाना टर्न आॅवर पांच हजार करोड़ रूपये तक पहुँच गया है। पिछले दिनों इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में दलित करोड़पतियों का इक्कठा होना भारतीय पूंजीवादी इतिहास में नया कदम है। पचास से पांच सौ करोड़ सालाना टर्न अॅावर वाले दलित उधोगपतियों ने नये साल के लक्ष्य तय किये कि वो 2011 में हेलिकाॅप्टर खरीदेंगे। अब सवाल उठता है कि पूंजीवाद के मूलभूत दुर्गुणों से क्या यह नया पूंजीपति वर्ग बच पायेगा ? हालांकि इन सब उधोगपतियों ने शून्य से व्यापार शुरू किया है और एक स्टेज पर जाकर भारतीय उधोग जगत में अपना स्थान बनाया है। लेकिन पूंजीवाद की गिरफ्त में आने के बाद वे अपने समाज के बारे में कितना सोच पाते हैं, क्योंकि पूंजीवाद का धरातल शोषण पर टिका हुआ है और जब आर्थिक शोषण की बात आती है तो जाति गौण हो जाती है। सामाजिक समानता की बात करते समय आर्थिक शोषण को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है, एक ही समाज द्वारा अपने सदस्यों का आर्थिक शोषण भारतीय समाज में कोई नई बात नहीं है। भारत में वर्ग संघर्ष और वर्ण संघर्ष दोनों समानांतर है।
इस नये पूंजीपति वर्ग के उभरने से जो सकारात्मक पक्ष उभरेगा वो होगा कि औधोगिक क्षेत्र में सवर्ण वर्चस्व को धक्का लगना। समाज के हर पिछडे़ वर्ग में एक आत्मविश्वास की किरण फैल सकती है कि भारतीय औधोगिक क्षेत्र में उनका भी हिस्सा है, लेकिन इस कपोल कल्पना से उनके जीवन में कोई परिवर्तन नहीं होता दिखाई दे रहा है। परिवर्तन तो तब माना जायेगा जब यह नया पूंजीपति वर्ग अपनी कम्पनीयों की नौकरीयों में आरक्षण की शुरूआत करे। लेकिन यह वर्ग भी ऐसा नहीं करेगा, क्योंकि जब मुनाफे की बात आती है तो पूंजीपति का रंग बदल जाता है चाहे उसका वास्ता समाज के किसी भी वर्ग से रहे। अगर यह वर्ग भी नीजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करने की पहल नहीं करता है तो फिर फिक्की और डिक्की में क्या फर्क है ? सिर्फ सत्ता के स्थानान्तरण से तो वंचित समुदाय की समस्याओं का हल होने वाला नहीं है। क्या इनके उधोगों में मजदूरों का शोषण नहीं होता है, क्योंकि शोषण के बिना पूंजीपति बना ही नहीं जा सकता है। इन उधोगपतियों का 2011 का लक्ष्य हेलिकाॅप्टर लेना है न कि दलित समाज का हित करना। कुछ लोगों के पूंजीपति बन जाने के कारण किसी भी समाज का भला होने वाला नहीं है। कुछ लोगों का तर्क है कि इनके उधोगपति बन जाने से दलित समाज के लोगों को औधोगिक क्षेत्र में आने का मनोबल बढ़ेगा लेकिन दलित समाज की समस्याएं सामाजिक और राजनैतिक है और उनका सामाधान भी सामाजिक राजनीतिक क्षेत्र में परिवर्तन से ही हो सकता है। सामाजिक न्याय की लड़ाई केवल वो ही वर्ग लड़ सकता है जो समस्याओं से जूझ रहा है। लेकिन अगर यह वर्ग सामाजिक न्याय के संघर्ष में आर्थिक रूप से मजबूत कर पाये तो संघर्ष आगे बढ़ पायेगा। और वर्ग संघर्ष व वर्ण संघर्ष के बीच सामंजस्य बैठा पाते है या नहीं। यह तो इनको तय करना है कि इस संघर्ष इनकी क्या भूमिका होगी, एक पूंजीपति की या फिर सामाजिक न्याय के संघर्ष के कार्यकर्ता की। पूंजीपति आख़िर पूंजीपति है चाहे वो किसी भी समाज का हो, उसके हित संघर्ष के लक्ष्यों से अलग होते है।

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

घूमावदार सत्य

‘इस ट्रक के भी विभिन्न पहलू थे जैसे सत्य के कई पहलू होतें हैं।’ रागदरबारी के इस वाक्य का अर्थ मुझे उस समय समझ में आया, जब मैंने सत्य के कई पहलू देखे। ‘सत्य’ एक ही था मगर उसे विभिन्न दृष्टिकोणों से देखकर अलग-अलग अर्थ निकाले जा रहे थे। मेरे एक मित्र को बिहार जाना था, इस कारण मुझे ट्रेन का तात्कालिन टिकट लेने के लिये सुबह चार बजे सरोजनी नगर रेलवे स्टेषन जाना पड़ा। आरक्षण खिड़की के खुलने का समय सुबह आठ बजे था मगर लोगों की कतार इतनी लम्बी थी कि कुछ लोग रात के आठ बजे से ही बिस्तर डाल कर सो रहे थे। खैर, जब मैं लाइन में लगा तो मेरे आगे लगभग सौ लोग थे। औरतों के लिये अलग से लाइन थी। यह दीदी के दौर की राजधानी ट्रेन की कहानी है। जैसे आमतौर पर भीड़ में होता है वैसे ही कभी कभी लोगों में झड़पें हो रही थी।
अचानक औरतों की कतार मंे शोर-षराबा होने लगा, लोगों का एक रैला उस तरफ उमड़ा और कुछ ही देर में धक्का मुक्की होने लगी। मैं भी दौड़कर उनके पास पहुंचा और भीड़ को चीरता हुआ घेरे के बीच तक जा पहुंचा। तीन औरतों में आपस में झगड़ा हो रहा था जिसमें दो सक्रिय रूप से भाग ले रही थी और एक बीच में कभी कभार हस्तक्षेप कर रही थी। झगड़े का कारण था कि जो औरत कम बोल रही थी वो रात को आठ बजे आकर लाइन में लगी थी मगर उसका बच्चा रोने लगा और वो बच्चे को लेकर घर चली गई। जाते समय अपने आगे वाली औरत को को बोलकर गई थी कि मेरा नम्बर तेरे पीछे है, यही सत्य का एक पहलू था। जब वो सुबह लौटकर आयी तो उसकी जगह पर एक तीसरी औरत थी जो उसे लाइन में नही जगने दे रही थी। उसका कहना था कि एक बार आकर कह गई कि यहां मेरा नम्बर है उसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि मैं यहां रात भर बैठी रही हूं। यह भी सत्य था कि वो औरत वहां रात भर बैठी रही, दूसरा पहलू भी हो गया। झगड़ा आगे ओर पीछे वाली औरत में था जिसमें आगे वाली औरत का बस इतना ही कहना था कि बीचवाली औरत रात को आकर गई थी। यह भी सत्य था जो सबसे प्रभावषाली था और इसीलिये जिस औरत के कारण झगड़ा हो रहा था वो चुप थी, लड़ाई के दोनों पक्ष आगे पीछे वाली औरतें सम्भाले हुए थी। एक साथ सत्य के तीन पहलू थे और तीनों अपनी अपनी जगह सत्य से जुड़े हुए थे।
अचानक सत्य का चौथा पहलू उजागर हुआ जो सबसे खतरनाक था। एक आदमी भीड़ से निकलकर आया जिनका इन तीनों औरतों और कतार से कोई संबंध नहीं था। आते ही बोला, ‘तुम औरतों को तो लड़ाई झगड़े के अलावा कोई काम नही होता है, चुपचाप बैठ जाओ।’ जब इस वाक्य का उन तीनों औरतों ने विरोध किया तो धीरे धीरे पुरूषों की जमात झगड़े के मैदान मे टपक पड़ी जिनका इस झगड़े से दूर दूर तक कोई संबंध नही था। अब यह लड़ाई औरतों के बीच कतार के नम्बरों से बदल औरत और पुरूष के बीच की लड़ाई का रूप धारण कर चुकी थी। यह पूरा तबका झगड़े के शांत करवाने के बजाये मजाक के मकसद से शामिल हुआ था। अतः में तीनों औरतें चुप बैठ गई।
चौथा पहलू सत्य के तीन अलग अलग पहलूओं से हटकर पुरूषवादी समाज का सटीक चित्र प्रस्तुत कर रहा था। भारतीय समाज में आज भी औरतों को पर जाति और धर्म के नाम पर जुल्म ढ़ाये जाते हैं उनके पीछे एक बहुत बड़ा कारण है कि सामाजिक व्यवस्था में औरत को समाज का बराबर का हिस्सा माना ही नहीं जाता है। समाज में औरत और पुरूष दोहरी नैतिकता को स्थापित किया गया है जिसके उदाहरण रोज अमानवीय घटनाओं के रूप में सामने आते है। समाज में बच्चें के जन्म से ही उसमें इस भवना को बढ़ावा दिया जाता है कि पुरूष श्रेष्ठ है और औरत के भोग की वस्तु है और ऐसे कुसंस्कार अनपढ़ समाज के आलावा पढ़े लिखे समाज में भी धड़ले से पोषित होते है। पढ़े लिखे समाज में तो कहीं कहीं इतनी विद्रुपताएं देखने को मिलती है कि जो स्त्री अधिकारों की बात करतें हैं वो ही अपने निजी जीवन में सामंतवादी और पुरूषवादी मानसिकताओं से जकड़े रहते है।
चौथे पहलू को मैंने गांव में भी देखा था और शहर में भी देखा है, दोनों जगह पर बाकि भौतिक संसाधनो में तो बहुत बड़ा अंतर है, शोषण के तरीके बदले हुए है मगर शोषण का रूप वही है, कितना सार्वभौमिक है यह सत्य का चौथा पहलू। काश! वो तीनों सत्य मिलकर चौथे का जवाब दे पाते।